कोविड महामारी की शुरुआत के पहले भी हम सरकारी अस्पतालों के बरामदों में पड़े मरीजों के समुचित इलाज के अभाव में मर जाने की खबरें सुनते रहते थे। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों में रखी आलमारियों में भी पुराने मामलों की फाइलों का ढेर लगा हुआ है। कुछ दशकों के बाद वे या तो बेकार हो जाती हैं या उन्हें कानूनी प्रतिनिधि विरासत में ले लेते हैं या उनकी अपने आप अप्राकृतिक मौत हो जाती है। श्रम कानूनों संबंधी मुकदमों के मामले में तो यह काफी हद तक सच है। सर्वोच्च न्यायालय के पिछले दो महीनों में सुनाए गए 80 फैसलों में से केवल एक मामला ही श्रम कानून से संबद्ध था। इस बीच सरकारें सुस्थापित श्रम कानूनों को कमतर करने वाले कानून जल्दबाजी में बनाती रही हैं।
वर्ष 1997 से ही लंबित कई मामले मुख्य न्यायाधीश द्वारा समुचित पीठ गठित होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से 15 मामलों को खुद सर्वोच्च न्यायालय ने वर्गीकृत किया हुआ है। ये मामले श्रमिक संगठनों, बर्खास्तगी, छंटनी, अनुबंध नियुक्ति, भविष्य निधि, ग्रैच्युटी, कारखाना अधिनियम और कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम से संबंधित हैं। अकेले कर्मचारियों को नौकरी से हटाने के ही करीब 180 मामले लंबित हैं जिनमें से सबसे ताजा मामला 2001 का है। हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि ये मामले सर्वोच्च न्यायालय पहुंचने के पहले भी कई अदालतों के चक्कर काट चुके हैं। कई अपीलों को बड़े पीठों के सुपुर्द किया जा चुका है। इसके साथ ही उच्च न्यायालयों में ऐसे मामले बड़े पीठों को सौंपे जाने की घटनाएं भी जोड़ लीजिए।
जब सर्वोच्च न्यायालय लंबे समय तक किसी मामले में स्थिति स्पष्ट करने में नाकाम रहता है तो न्यायाधीश भी उलझन में रहते हैं। वर्ष 1978 में सर्वोच्च न्यायालय ने बेंगलूरु जलापूर्ति मामले में औद्योगिक विवाद अधिनियम में ‘उद्योग’ की उदार व्याख्या दी थी। बाद के न्यायाधीशों को लगा कि उद्योग की यह परिभाषा काफी व्यापक है, लिहाजा वर्ष 2005 में इस मामले को पुनरीक्षण के लिए नौ न्यायाधीशों के पीठ को भेज दिया गया। लेकिन वृहद पीठ ने अभी तक इस मामले की सुनवाई ही नहीं की है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस स्थिति को लेकर हाल ही में कुछ सख्त टिप्पणियां की हैं। जब पेटेंट कार्यालय ने इस कानून का हवाला देते हुए कुछ कर्मचारियों को नौकरी से हटा दिया तो मामला सामने आया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘इस वक्त तक बेंगलूरु जलापूर्ति मामला मौलिक रूप से अछूता रहा है। न्यायिक पुनरीक्षण के तूफानों से अभी तक बचता आ रहा इस फैसले से निश्चित रूप से उच्च न्यायालय आबद्ध है।’ सर्वोच्च न्यायालय के 1978 के फैसले को आधार बनाते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि पेटेंट कार्यालय एक उद्योग है। धर्मार्थ संस्थानों, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और दूसरी इकाइयों को यह जानने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से अंतिम फैसले का इंतजार करना होता है कि वे उद्योग की श्रेणी में आते हैं या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय और नीचे की अदालतों के फैसलों में भी शायद इसे गलत रूप में समझ लिया गया है। न्यायिक निष्क्रियता की वजह से अपना मुकदमा हार जाने वाले वादियों की खराब किस्मत ही इसके लिए जिम्मेदार है।
ऐसी समस्या कई दूसरे श्रम मामलों में भी बनी हुई है। इस साल की शुरुआत में अदालत ने श्रम कानूनों से जुड़े कुछ सवाल बड़े पीठों को भेजे थे। सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठ ने अस्थायी एवं दैनिक कामगारों को नियमित करने के 2015 के अपने फैसले पर ही नए सिरे से गौर करने का फैसला किया। उसे लगा था कि उसके पुराने फैसले श्रम अदालतों की शक्ति के प्रति सामंजस्यपूर्ण नहीं है। यह आदेश चार उच्च न्यायालयों के दिए फैसलों के खिलाफ दायर अपीलों पर पारित किया गया। शीर्ष अदालत में नौकरी स्थायी करने की मांग वाली अपीलों की भरमार होती है लेकिन इस मसले पर बीते दशकों में अलग-अलग आदेश पारित होते रहे हैं। औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या में अस्पष्टता होने से ऐसा हुआ।
जब नए श्रम कानून लागू हो चुके हैं तो इन याचिकाओं में उठाए गए तमाम मुद्दे अप्रासंगिक या महज बौद्धिक विमर्श का मुद्दा बनकर रह जाएंगे। हालांकि अपने मामले की पैरवी करने वाले मुवक्किल यही दलील देंगे कि उनकी याचिकाओं का निपटारा घटना के समय मौजूद रहे कानून के मुताबिक ही किया जाए। यह कानून के पश्चवर्ती प्रभाव को लेकर कई बहसों को जन्म देगा। अदालत को पुराने एवं नए श्रम कानूनों के बीच सामंजस्य बिठाना होगा।
नए श्रम कानूनों में 44 पुराने श्रम कानूनों को समाहित किया गया है लेकिन इन्हें आगे चलकर संवैधानिक अदालतों से भी पार पाना होगा। केंद्र सरकार ने पिछले महीने जल्दबाजी में तीन श्रम संहिताओं को पारित कराया था। उस समय विपक्ष संसदीय कार्यवाही में शामिल नहीं था और इन विधेयकों के प्रावधानों की समुचित विवेचना नहीं हुई। गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों की सरकार ने मौजूदा श्रम कानूनों में ढील देने वाली कुछ अधिसूचनाएं जारी कर नियोक्ताओं को राहत देने की कोशिश की थी। लेकिन शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार की अधिसूचना यह कहते हुए खारिज कर दी कि यह कामगारों के जीवन के अधिकार एवं बेगार श्रम के विरुद्ध हासिल अधिकार का निरादर करता है।
ऐसा लगता है कि हाल के समय में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक एवं मानवाधिकार मुद्दों से निपटते समय अपनी महिमा कुछ हद तक खो दी है। उस संदर्भ में देखें तो श्रम कानूनों पर इसके निर्णयों का विश्लेषण घिसा-पिटा ही होगा। यह शीर्ष अदालत का तीसरा बड़ा परीक्षण साबित होगा।
