वर्ष 2018-20 के दौरान धीमी पड़ी आर्थिक वृद्धि दर, 2020-21 में कोविड/ लॉकडाउन के कारण लगा झटका, उसके बाद अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर की आकृति के सुधार और भारी भरकम राजकोषीय घाटे और ऋण-जीडीपी अनुपात के बीच वित्त वर्ष 2022-23 का वृहद आर्थिक प्रबंधन की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होना तय था। कुछ माह पहले केंद्रीय बजट पेश होने पर मैंने अनुमान जताया था कि वित्त वर्ष 2023 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि करीब 7 फीसदी (ऐसा कम आधार प्रभाव के कारण होना अनुमाानित है), मुद्रास्फीति करीब 6-7 फीसदी और नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर 13-14 फीसदी रहेगी।
कमजोर हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था
तब से अब तक वैश्विक आर्थिक हालात काफी खराब हुए हैं और इसकी कई वजह हैं:
अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में फरवरी से मुद्रास्फीति में तेज इजाफा होने से उन देशों में नीतिगत एवं ब्याज दरों में इजाफा हुआ है।
चीन में कोरोनावायरस के ओमीक्रोन स्वरूप का तेज प्रसार हुआ है जिससे शांघाई समेत बड़े शहरों में कड़ा लॉकडाउन लगाया गया है।
सात सप्ताह से चले आ रहे रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने रूस के खिलाफ असाधारण प्रतिबंध लगाये हैं। इससे तेल, उर्वरक, धातु, खाद्यान्न एवं अन्य जिंसों की कीमतें बढ़ी हैं और आपूर्ति क्षेत्र की बाधा उत्पन्न हुई है।
इसका परिणाम यह हैकि वैश्विक आर्थिक वृद्धि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा जनवरी में जताये गए अनुमान से काफी कम रहेगी, वैश्विक व्यापार विस्तार धीमा रहेगा और विकासशील देशों के लिए विशुद्ध पूंजी प्रवाह भी कम रहेगा क्योंकि निजी पूंजी अमेरिका जैसे देशों में सुरक्षित ठिकाना तलाश करेगी। ये बातें अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर कितनी भारी पड़ेंगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यूरोप में जंग और पश्चिमी प्रतिबंध कितने गहरे और लंबे खिंचते हैं, चीन में तथा दुनिया के अन्य हिस्सों में कोविड की क्या स्थिति रहती है और अमेरिका तथा अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक नीति में कड़ाई कितने समय चलती है।
भारत पर असर
वैश्विक अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट भारत की आर्थिक वृद्धि में धीमापन लाएगी, इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी, बाह्य भुगतान संतुलन में कमी आएगी और राजकोषीय स्थिति पर दबाव और बढ़ेगा। हमारी आर्थिक संभावनाओं को कितनी क्षति पहुंचेगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वैश्विक आर्थिक प्रदर्शन कितना गिरता है और उसे लेकर हमारी नीतिगत प्रतिक्रिया कैसी होती है तथा मॉनसून का प्रदर्शन कैसा रहता है। इस शुरुआती चरण में तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि वित्त वर्ष 2023 में प्रमुख आर्थिक मानक कैसा प्रदर्शन करेंगे। परंतु मेरा प्राथमिक अनुमान सुझाता है कि जीडीपी वृद्धि दर 6 फीसदी या उससे कम रहेगी, मुदास्फीति बढ़कर 7-8 फीसदी हो जाएगी, नॉमिनल जीडीपी वृद्धि 12-14 फीसदी रहेगी, चालू खाते का घाटा 2.5 से 3 फीसदी (यह अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतों पर निर्भर करता है) रहेगी, रुपये में कुछ अवमूल्यन होगा और केंद्र सरकार का बजट घाटा जीडीपी के 6.5 से 7 फीसदी के इर्दगिर्द रहेगा।
ये संभावित अनुमान पिछले दिनों रिजर्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीतिगत वक्तव्य में प्रस्तुत अनुमानों से थोड़ा ही कमजोर हैं। केंद्रीय बैंक ने वित्त वर्ष 2023 के लिए 7.2 फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान लगाया था जबकि उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति के 6 फीसदी से कम रहने की बात कही थी। दिलचस्प बात यह है कि 7 फीसदी से अधिक की यह अनुमानित वृद्धि ज्यादातर इसलिए है कि अप्रैल-जून की पहली तिमाही में कम आधार दर का फायदा मिलना है। रिजर्व बैंक ने लगातार तिमाहियों में सालाना आधार पर 16.2 फीसदी, 6.2 फीसदी, 4.1 फीसदी और 4 फीसदी का सुधार होने का अनुमान जताया है। दूसरी तरह से देखें तो आरबीआई का अनुमान है कि अंतिम तीन तिमाहियों में सालाना वृद्धि में औसतन 4.6 फीसदी की जबकि वित्त वर्ष 2023 की दूसरी छमाही में 4 फीसदी की गिरावट आएगी। मैंने भी एक वर्ष पहले करीब ऐसे ही अनुमान जताते हुए कहा था कि हमारे लिए मध्यम अवधि में 5 फीसदी की दर को पार करना मुश्किल होगा।
भारत को क्या करना चाहिए?
इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य में वांछित नीतिगत प्रतिक्रिया को लेकर मेरी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार है:
सरकार को व्यय और राजस्व के बजट में उल्लिखित लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। वैश्विक घटनाओं के कारण जो विपरीत परिस्थितियां बन रही हैं वे आपूर्ति क्षेत्र के झटके के समान हैं जिन्हें बिना उच्च राजकोषीय घाटे के दूर नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में तो कतई नहीं जब सरकार का ऋण-जीडीपी अनुपात रिकॉर्ड 90 प्रतिशत पर है तथा संयुक्त राजकोषीय घाटा जीडीपी के 10-11 फीसदी के स्तर पर है।
दूसरा, हाल में की गई घोषणा के अनुसार असाधारण समायोजन वाली मौद्रिक नीति को वापस लेने का काम थोड़ा तेज गति से होना चाहिए (रिजर्व बैंक इस मामले मे थोड़ा धीमे रहा है)। ऐसा करके ही उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति को 6 फीसदी से अधिक तेज होने से रोका जा सकेगा। रीपो दर को जल्दी बढ़ाने की आवश्यकता है, ऐसा करके ही भविष्य में तेज वृद्धि को रोका जा सकता है।
तीसरा, हमें अपने प्रचुर विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल रुपये के अवमूल्यन को थामने के लिए करना होगा ताकि अस्थिरता को रोका जा सके लेकिन इसके साथ ही जरूरी गिरावट आने दी जाए। इस बीच किसी खास किस्म की समता से बचाव का प्रयास भी किया जा सकता है।
चौथा, सरकार को अपने महत्त्वाकांक्षी सार्वजनिक निवेश कार्यक्रम, खासकर बुनियादी ढांचा कार्यक्रम के क्रियान्वयन की पूरी कोशिश करनी चाहिए।
पांचवां, यूएईऔर ऑस्ट्रेलिया के साथ हाल ही में संपन्न मुक्त व्यापार समझौते के शुरुआती चरणों से एक नई व्यापार समर्थक नीति को लेकर मजबूत संकेत मिले हैं। हालांकि इनसे वैश्विक एवं क्षेत्रीय आपूर्ति शृंखलाओं में भारत की कमजोर भागीदारी की भरपाई नहीं होगी। इन बातों के लिए यह आवश्यक है कि हम क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में पर्यवेक्षक बने रहने के बजाय दोबारा उसमें प्रवेश का आवेदन करना चाहिए। उसे इसके अलावा भी अन्य बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में शामिल होना चाहिए। यह बात ऐसे समय पर खास मायने रखती है जब डब्ल्यूटीओ के अनुशासनों पर अत्यधिक भूराजनीतिक दबाव पडऩे की संभावना है।
छठा, रोजगार की स्थिति गंभीर है। नीतियों की मदद से कम कौशल वाले रोजगार बढ़ाने के हरसंभव प्रयास किए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए नई श्रम संहिता का क्रियान्व्यन या रोजगार को हतोत्साहित करने वाली प्रक्रियाओं में सुधार के प्रयास तेज किए जा सकते हैं। निर्यात वृद्धि की उच्च दर से भी मदद मिलेगी।
इन सब बातों से धीमी वैश्विक वृद्धि की पूरी भरपायी तो नहीं होगी लेकिन इससे उच्च मुद्रास्फीति, उत्पादन और रोजगार को पहुंची क्षति तथा बाह्य वित्तीय अस्थिरता में इजाफे की लागत कम करने में मदद मिल सकती है।
(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में विचार निजी हैं)