क्या निर्यात भारत की आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान कर सकता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो गत वित्त वर्ष की जबरदस्त निर्यात वृद्धि के बाद लगातार उठाया जा रहा है, हालांकि उस अवधि में घरेलू निजी खपत लगभग ठप रही। वित्त वर्ष 21-22 में भारतीय वाणिज्यिक निर्यात सालाना आधार पर 43.18 प्रतिशत बढ़ा और 291.81 अरब डॉलर से बढ़कर 417.18 अरब डॉलर जा पहुंचा। सरकार को तो यही लगता है कि ऐसा हो सकता है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में कहा कि उन्हें आशा है कि 2030 तक वाणिज्यिक वस्तु निर्यात एक लाख करोड़ डॉलर का स्तर पार कर जाएगा। सरकार ने एक सलाहकार फर्म गठित की है ताकि उसके द्वारा तय किए जा रहे कठिन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए निर्यात संवर्द्धन परिषदों को किस प्रकार पुनर्गठित किया जाए।
गत वर्ष के रिकॉर्ड प्रदर्शन के बावजूद बीते दशक में वाणिज्यिक निर्यात के प्रदर्शन पर नजर डालें तो बहुत उत्साहवर्धक तस्वीर नहीं नजर आती। गत वर्ष के उभार के पहले एक दशक में भारत का वाणिज्यिक वस्तु निर्यात 280 अरब डॉलर से 315 अरब डॉलर के बीच रहा। गत वर्ष के रिकॉर्ड प्रदर्शन में भी कारोबार का आकार बहुत नहीं बढ़ा। इंडिया रेटिंग्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह मोटे तौर पर उच्च मूल्य के कारण था। मिंट में प्रकाशित एक आलेख में मोतीलाल ओसवाल के मुख्य अर्थशास्त्री निखिल गुप्ता ने लिखा कि वास्तविक निर्यात वृद्धि नगण्य रही। कंपनी के विश्लेषण ने दिखाया कि निर्यात में होने वाली वृद्धि मोटे तौर पर जिंस कीमतों में बढ़ती महंगाई के कारण थी।
अन्य एशियाई देशों के उलट भारत कभी निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था नहीं रहा। सन 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से ही निजी निवेश और घरेलू खपत तथा सरकारी व्यय ही भारत की आर्थिक वृद्धि के वाहक रहे।
वाणिज्यिक निर्यात की भूमिका हमेशा सहायक की रही। सेवा निर्यात, खासतौर पर आईटी सेवा निर्यात देश की निर्यात गाथा में बचाव मुहैया कराने वाला रहा। वैश्विक वाणिज्यिक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 2 फीसदी से कम बनी हुई है। हमारी अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए यह अत्यंत कम है।
हमारा देश वैश्विक वाणिज्यिक निर्यात के क्षेत्र में बड़ी शक्ति इसलिए नहीं बन सका क्योंकि हम वैश्विक विनिर्माण का केंद्र नहीं बन सके। भारत में होने वाला विदेशी विनिर्माण मोटे तौर पर घरेलू बाजार पर केंद्रित है। उन्होंने भारत को सस्ते और उच्च गुणवत्ता वाले निर्यात उत्पादों का निर्माण केंद्र नहीं बनाया। यह स्थिति तब बनी जब वैश्विक कंपनियों को भी इस बात का अहसास हो गया था कि उन्हें चीन पर निर्भरता कम करने के लिए वैकल्पिक केंद्र चाहिए। बहुत कम कंपनियों ने भारत को विकल्प बनाने के बारे में गंभीरता से विचार किया।
भारत जिन वजहों से वैश्विक विनिर्माण शक्ति नहीं बन सका उनमें तीन अहम हैं। पहली वजह, जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं, निवेशकों को हमारी नीतियों में तेज बदलाव और अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति जो अगर एक संयंत्र स्थापित करने पर करोड़ों रुपये खर्च करता है तो वह चाहता है कि नीतिगत स्थिरता हो। हमारे देश में यह पिछले एक दशक से नदारद है। कर दरों में निरंतर बदलाव, नियमों में बदलाव और नीतिगत घोषणाएं करके उन्हें अचानक वापस ले लेने जैसी घटनाओं ने निवेशकों को सशंकित किया। गेहूं, पेट्रोलियम उत्पादों और स्टील निर्यात की नीतियों या दरों में बदलाव हालिया उदाहरण हैं। हालांकि सरकार ने हर बार अर्थव्यवस्था की वर्तमान आवश्यकताओं के लिहाज से इन्हें आवश्यक बताया।
दूसरा कारक जिसका जिक्र अक्सर कारोबारी बैठकों में होता है वह है लागत और कारोबारी सुगमता में कठिनाई। इसमें न केवल खराब सड़कों, महंगी बिजली, बंदरगाहों पर लगने वाला ज्यादा समय जैसे सुपरिचित मुद्दे शामिल हैं बल्कि स्थानीय अधिकारियों से निपटने, राज्य, जिला और शहर स्तर के नियमों से निपटना आदि दिक्कतें भी शामिल हैं। इनके चलते अक्सर सरकारी प्रोत्साहन के कारण लागत में होने वाला लाभ गंवाना पड़ा।
तीसरा कारक जिसके बारे में कभी बात नहीं की गई लेकिन जिसकी जांच परख करने की जरूरत है वह है भारतीय नियामकों और सरकार द्वारा लगभग हर क्षेत्र में खराब गुणवत्ता मानक तय करना। इन मानकों की निगरानी और क्रियान्वयन भी बेहद बुरे ढंग से किए जाते हैं। औषधि से लेकर वाहन और खाद्य से लेकर सौंदर्य प्रसाधन तक सभी क्षेत्रों में भारतीय विनिर्माताओं के गुणवत्ता मानक अपने वैश्विक समकक्षों की तुलना में कमजोर हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि इन कमजोर मानकों को भी पूरा नहीं करने पर भी कोई खास निगरानी या जुर्माना नहीं है। भारतीय नीति निर्माताओं ने भी कुछ वजहों से कभी यह नहीं सोचा कि भारतीय उपभोक्ताओं को इससे नुकसान हो रहा है। एक भारतीय वाहन निर्माता या जेनेरिक औषधि कंपनी भारत में जैसा सामान बेचती है, उससे अच्छी गुणवत्ता का सामान वह विदेशों को निर्यात करती है। मानकों को पूरा नहीं करने की कोई कीमत भी उन्हें नहीं चुकानी पड़ती है। हमारे देश में उत्पाद वापस लेने की परंपरा ही नहीं दिखती।
इसके बावजूद कोई भी देश बिना अपने गुणवत्ता मानकों में सुधार किए वैश्विक वाणिज्यिक निर्यात की बड़ी ताकत नहीं बन सका है। कुछ नीति निर्माता कहते हैं कि भारत जैसे विशाल देश में जहां इतने सारे छोटे और मझोले उपक्रम हैं, वहां ऊंचे मानकों को पूरा करना असंभव है। उनका दावा है कि अगर गुणवत्ता पर ज्यादा जोर दिया गया तो देश के कई उद्यम लागत बढ़ने से गैर प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे। इतना ही नहीं उपभोक्ताओं के लिए भी ऐसे उत्पादों को खरीदना मुश्किल होगा।
यह गलत सोच है। सरकार को वे बाधाएं दूर करने पर ध्यान देना चाहिए जिनके कारण विनिर्माण की या भारत में कारोबार की लागत बढ़ती है। इसके साथ ही उन्हें उच्च गुणवत्ता मानक तय करने चाहिए और उनका कड़ाई से पालन करना चाहिए। अगर भारत की विनिर्माण आवश्यकताओं को वैश्विक मानक हासिल करने हैं तो ऐसा करना जरूरी है। केवल ऐसा करके ही हमारा देश केवल सॉफ्टवेयर सेवाओं से इतर विनिर्मित वस्तुओं का बड़ा निर्यातक बन सकता है।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैकव्यू के संस्थापक हैं)
