दूरसंचार मंत्री ए. राजा इस बात को मानने के लिए र्कतई तैयार नहीं होंगे कि कुछेक ‘खास’ कंपनियों को स्पेक्ट्रम सौंपने की वजह से सरकार को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
लेकिन इस बारे में सबूत उनका साथ नहीं दे रहे हैं। बेशकीमती स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली कंपनियों में से एक, स्वान टेलीकॉम ने अभी पिछले ही महीने अपनी 45 फीसदी इक्विटी को 90 करोड़ डॉलर में बेचा था। इस हिसाब से उसकी कुल कीमत दो अरब डॉलर आंकी गई।
उसने मुल्क के 13 सर्किलों की खातिर केवल 1,537 करोड़ रुपये चुकाए थे। इस हिसाब से उसे केवल आठ महीनों में ही स्पेक्ट्रम में किए गए निवेश पर 5.9 गुनी ज्यादा कीमत मिल गई। दरअसल, स्पेक्ट्रम की खातिर स्वान ने जो 1,537 करोड़ रुपये चुकाए थे, वह जून, 2001 के चौथे सेल्लुयर लाइसेंस की कीमत के बराबर थी। तब मुल्क में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों की तादाद सिर्फ 40 लाख थी।
इसीलिए अगर स्पेक्ट्रम बेचने के लिए उसने नीलामी का सहारा लिया होता, तो उसे कहीं ज्यादा कीमत मिली होती। लेकिन सरकार ने नीलामी का सहारा नहीं लिया और उसने पिछली जनवरी में स्पेक्ट्रम को बेचकर केवल नौ हजार करोड़ रुपये की कमाई की।
अगर सिर्फ स्वान के आंकड़ों को ही देखें तो सरकार को कम से कम 44,100 करोड़ रुपये का भारी नुकसान हुआ है। लेकिन ताजा आंकड़ों की तरफ देखें तो यह अनुमान भी कम नजर आता है। अभी कुछ ही दिनों पहले रियल एस्टेट कंपनी यूनिटेक ने अपनी टेलीकॉम कंपनी का 60 फीसदी हिस्सा नॉर्वे की टेलीनॉर को बेचा है। इसने सभी 23 सर्किलों में लाइसेंस के लिए आवेदन किया था और लाइसेंस की खातिर बस 1,651 करोड़ रुपये चुकाए थे।
स्वान की तरह यूनिटेक ने भी अब तक एक मोबाइल टॉवर तक नहीं लगाया है, ग्राहक की बात तो रहने ही दीजिए। फिर भी उसे अपने स्पेक्ट्रम के लिए 6,120 करोड़ रुपये मिले हैं। साथ ही, यूनिटेक की टेलीकॉम कंपनी के कर्जों को चुकाने की जिम्मेदारी भी टेलीनॉर ने उठा ली है। इस हिसाब से कंपनी की कीमत करीब 11,620 करोड़ रुपये हो जाती है।
साफ है कि यूनिटेक को अपने पैसों का सात गुना रिटर्न मिला है। इस हिसाब से सरकार को स्पेक्ट्रम सौदे में 54,300 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। अगर बोफोर्स मामले की नजर से देखें तो वह पूरा सौदा भी सिर्फ 1600 करोड़ रुपये (14 फीसदी की दलाली के काटकर) का था और उस रकम पर 20 साल पहले राजीव गांधी की सरकार गिर गई थी।
दूसरी तरफ, यूनिटेक ग्रुप के प्रमोटरों ने टेलीकॉम लाइसेंस हासिल करने के बाद बेचने से उतनी रकम जुटा ली, जितनी उन्होंने दसियों साल तक मकान बेचकर नहीं कमाई होगी। आखिर उन्हें और दूसरे किस्मतवालों को ये लाइसेंस मिले कैसे? ‘पहले आओ और पहले पाओ’ के आधार पर।
इसकी घोषणा बिना किसी से सलाह लिए ही सरकार ने कर दी और प्रतिस्पध्र्दा के लिए सारे रास्ते बंद कर दिए। उसके बाद शुरू हो गई उस खास दिन, उस खास दरवाजे तक सबसे पहले पहुंचने की, जहां ये लाइसेंस बांटे जा रहे थे। क्या कोई इस बात पर हैरान नहीं है, या फिर लोगों ने इसकी चिंता करनी छोड़ दी है।