क्या बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां बहुत अधिक ताकतवर हो चुकी हैं? क्या फेसबुक, गूगल (अल्फाबेट), ऐपल, माइक्रोसॉफ्ट और एमेजॉन को विभाजित करने की आवश्यकता है। अमेरिकी सीनेटर इलिजाबेथ वारेन के यह प्रस्ताव पेश करने के पश्चात अमेरिकी राजनीतिक विभाजन से परे डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों पक्षों ने इसे तवज्जो दी है। अमेरिका में पांच शीर्ष प्रौद्योगिकी कंपनियों के खिलाफ ऐंटीट्रस्ट सुनवाई चल रही है। इस सुनवाई में इन कंपनियों के कारोबारी व्यवहार के सही-गलत होने की जांच की जा रही है।
भारत में इस सुनवाई को लेकर बहुत ज्यादा रुचि नहीं ली जा रही है। इन कंपनियों का प्रधान कार्यालय अमेरिका में है और ऐसे में अमेरिका में हो रही इस सुनवाई के संभावित परिणामों का भारतीय प्रौद्योगिकी क्षेत्र और नीति निर्माताओं पर जो भी असर होगा उसकी अनदेखी करना आसान है।
सबसे पहले बात करते हैं कि ये सुनवाई क्यों शुरू की गई। अमेरिका में किसी निजी कंपनी को बहुत अधिक ताकतवर बनने देने से रोकने के लिए ऐसे कदमों का पुराना इतिहास रहा है। अमेरिका में पहला ऐंटीट्रस्ट अधिनियम शर्मन अधिनियम था जो सन 1890 में बना और बाद में फेडरल ट्रेड कमीशन ऐक्ट (एफटीसी) और क्लेटन ऐक्ट के माध्यम से इसे मजबूती प्रदान की गई। अतीत में ऐसी सुनवाई के चलते ही स्टैंडर्ड ऑयल और एटीऐंडटी का विभाजन हुआ और आईबीएम तथा माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को दबदबा बढ़ाने से रोका जा सका।
शुरुआत में अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट के मामले इस बात पर केंद्रित थे कि बाजार में चुनिंदा कंपनियों का दबदबा किस तरह उपभोक्ताओं की जेब पर भारी पडऩे की दिशा में बढ़ेगा। बाद में इसे लेकर ज्यादा सूक्ष्म नजरिया उभरा। इसके मुताबिक प्रौद्योगिकी उद्योग में केवल उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत पर ध्यान केंद्रित करना ठीक नहीं क्योंकि वहां बुनियादी सेवाएं लगभग नि:शुल्क (गूगल और फेसबुक) या सबसे सस्ती (एमेजॉन) हैं। माइक्रोसॉफ्ट और ऐपल के मामले में प्लेटफॉर्म के रूप में इनका दबदबा उत्पादों के स्वामित्व में प्राथमिकता जैसे मसलों की ओर ले जाता है।
बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के विरुद्ध मौजूदा मामला विशिष्ट है। इसमें महत्त्वपूर्ण और अप्रासंगिक दोनों तरह की बातें शामिल हैं। यहां कीमतों पर नियंत्रण या उपभोक्ताओं से अतिरिक्त शुल्क वसूलने का मामला नहीं बनता। जैसा कि हमने पहले भी जिक्र किया, गूगल और फेसबुक बुनियादी सुविधाएं नि:शुल्क प्रदान करती हैं, एमेजॉन यह सुनिश्चित करती है कि ग्राहक को सामान सस्ता मिले। इसी प्रकार पांच बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के बीच भी अलग-अलग क्षेत्र में तीव्र प्रतिस्पर्धा है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के बीच सर्च इंजन, ऑपरेटिंग सिस्टम और क्लाउड के मामले में, माइक्रोसॉफ्ट और एमेजॉन के बीच क्लाउड व कृत्रिम मेधा को लेकर, फेसबुक, गूगल और एमेजॉन के बीच विज्ञापन हिस्सेदारी को लेकर तथा ऐपल, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के बीच मोबाइल ऐप्लीकेशन को लेकर प्रतिस्पर्धा है।
अहम मुद्दे इस प्रकार हैं: पहला, क्या ये पांचों बड़ी कंपनियां अपने दबदबे का इस्तेमाल प्रतिद्वंद्वियों को ठप करने में कर रही हैं। एमेजॉन ने छोटे विक्रेताओं जैसा माल एकदम सस्ते दाम पर बेचकर उनको लगभग दिवालिया कर दिया है। फेसबुक ने इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप को उस समय खरीदा जब वे छोटी कंपनियां थीं। ऐपल, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल सभी अपने दबदबे का इस्तेमाल करती हैं।
उपभोक्ताओं को उनकी सेवाएं जहां नि:शुल्क या अत्यंत कम दरों पर दी जाती हैं, वहीं वे उनके डेटा जुटाकर उनसे धन तो कमाती ही हैं, इस दौरान उनकी निजता के दुरुपयोग की आशंका भी रहती है।
इस सुनवाई के तीन संभावित नतीजे हो सकते हैं: यथास्थिति बनाए रखने का आदेश जारी हो सकता है, इन कंपनियों के विघटन का आदेश जारी हो सकता है या तीसरे विकल्प में उन पर नियंत्रण कायम करने और उन्हें अपना नवाचार प्रतिद्वंद्वियों के साथ साझा करने पर विवश किया जा सकता है।
चाहे जो भी हो भारत और अन्य देशों के लिए इसके अहम निहितार्थ होंगे। यदि यथास्थिति बरकरार रहती है तो दो बड़े प्रौद्योगिकी खेमे जिनमें एक अमेरिका तो दूसरा चीन (अलीबाबा, बायडू, टेनसेंट आदि) में है, उनके बीच शक्ति संतुलन कायम रहेगा और दुनिया के बाकी देश दो में से किसी एक खेमे में रहेंगे। यदि बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों का विभाजन होता है तो चीनी कंपनियों को लाभ होगा। इससे भारतीय तथा अन्य देशों की प्रौद्योगिकी कंपनियों के लिए भी अवसर बनेंगे और वे प्रौद्योगिकी बाजार के उच्चतम स्तर पर अधिक समानता के साथ कारोबार कर सकेंगी। यह बात कृत्रिम मेधा, सोशल मीडिया और मोबाइल ऐप्लीकेशंस सभी पर लागू होती है।
तीसरा विकल्प बड़ी कंपनियों द्वारा अपना पेटेंट नि:शुल्क साझा करने और उनके परिचालन पर नियंत्रण का है। इसकी संभावना कम है लेकिन यह भी नवाचार और नई कंपनियों को बढ़ावा देने वाला होगा।
बेल लैब्स संबंधी निर्णय के बाद पेटेंट नवाचार के लिए उपलब्ध हुए और ट्रांजिस्टर तथा लेजर अमेरिकी कंपनियों के अभियंताओं को नि:शुल्क मिल सके। उसके बाद ही फेयरचाइल्ड सेमीकंडक्टर्स और इंटेल जैसी स्टार्टअप सामने आए। आईबीएम पर लगी रोकथाम ने बिल गेट्स और पॉल ऐलन को माइक्रोसॉफ्ट बनाने का मौका दिया। दो दशक पहले माइक्रोसॉफ्ट के खिलाफ ऐंटीट्रस्ट सुनवाई ने गूगल तथा अन्य कंपनियों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।
भारतीय नीति निर्माताओं के लिए सुनवाई इसलिए भी अहम है क्योंकि यह डेटा संग्रह और निजता के मसले पर रोशनी डालती है। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह दबदबे को लेकर समझ बेहतर कर सकती है। भारतीय नियामकों ने अब तक इसे गंभीरता से नहीं लिया है, हालांकि देश में एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम 1969 और प्रतिस्पर्धा आयोग अधिनियम मौजूद हैं।
सन 1980 के दशक के मध्य तक एकाधिकार और किसी भी उद्योग में मूल्य नियंत्रण सरकारी नीतियों की वजह से हुआ। ज्यादा से ज्यादा मूल्य निर्धारण और अनुचित बाजार संबंधी कदमों से निपट लिया जाता था। बाजार के दबदबे का इकलौता वास्तविक मसला उस समय सामने आया जब दूरसंचार कंपनियों ने शिकायत की थी कि रिलायंस इंडस्ट्रीज अन्य क्षेत्रों (पेट्रोकेमिकल, रिफाइनिंग) के अपने दबदबे का इस्तेमाल दूरसंचार में नि:शुल्क सेवाएं देने में कर रहा है ताकि बाजार पर पकड़ बना सके। हालांकि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग और दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने रिलायंस के पक्ष में निर्णय दिया क्योंकि वह नई कंपनी थी। अमेरिका में हो रही सुनवाई इस विषय में भारतीय नियामकों की समझ सुधारने में मदद कर सकती है, बशर्ते कि वे ऐसा चाहते हों।
