राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में वायु प्रदूषण के हालात बद से बदतर हो चुके हैं। सभी स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं, कुछ सरकारी कर्मचारियों को घर से काम करने को कह दिया गया है और दिल्ली के आसपास स्थित 11 में से केवल पांच कोयला आधारित ताप बिजली घर संचालित हैं। विनिर्माण गतिविधियों पर भी एक सप्ताह के लिए रोक लगा दी गई है। हमेशा की तरह एनसीआर और पड़ोसी क्षेत्रों के विभिन्न प्रभारी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। यह सब इस हद तक बढ़ गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने शिकायती लहजे में इसे अफसरशाही का उलझाऊ और जटिल मामला बताया है।
दिल्ली में ठंड के मौसम में हवा की गुणवत्ता दुनिया भर में सबसे खराब होने की वजहें एकदम साफ हैं। बड़े पैमाने पर इमारतों का निर्माण, वाहनों का भारी-भरकम यातायात जिसमें कुछ ऐसे वाहन भी शामिल होते हैं जो प्रदूषण नियंत्रण मानकों का पालन नहीं करते और बच निकलते हैं, पड़ोसी राज्यों में खेती के बाद बचे फसल अवशेष (पराली) को जलाया जाना और हवा का विपरीत रुख आदि सभी मिलकर इस सालाना संकट को जन्म देते हैं। यह एक जटिल समस्या है जिसे हल करना आसान नहीं है। धूल और धुएं से बने कोहरे के कई स्रोत हैं और इस पूरे क्षेत्र में कई प्राधिकार हैं जो एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं। इन बातों के बावजूद अगर एनसीआर में साल दर साल जहरीली हवा को नहीं रोका जा रहा है तो यह नेतृत्व की नाकामी को ही जाहिर करता है।
चूंकि इसकेलिए विभिन्न संस्थानों और प्राधिकारों के बीच समन्वय की आवश्यकता है इसलिए केंद्र सरकार को नेतृत्व की इस कमी को दूर करना होगा। यह खेद की बात है कि नगर निकायों से लेकर दिल्ली राज्य सरकार और पड़ोसी राज्यों की सरकारों तथा केंद्र सरकार के प्रासंगिक मंत्रालयों तक सभी एक दूसरे पर आरोप लगाने और सर्वोच्च न्यायालय का रुख करने में समय गंवा रहे हैं। जबकि उन्हें समस्याओं को हल करने के लिए तालमेल सुनिश्चित करते हुए संस्थागत प्रणाली विकसित करनी चाहिए।
बीते वर्ष एक के बाद एक अध्यादेशों के जरिये राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा उसके आसपास के इलाकों में हवा की गुणवत्ता का प्रबंधन करने वाले आयोग (सीएक्यूएम) का गठन किया गया जिसने एनसीआर के पिछले पर्यावरण प्रदूषण निरोधक एवं नियंत्रण प्राधिकार की जगह ली। फिर भी यह स्पष्ट है कि नया आयोग पहले ही संघर्ष कर रहा है क्योंकि इस पर अफसरशाहों का दबदबा है और इसे एक समावेशी संस्था के बजाय केंद्र सरकार के उपांग के रूप में देखा जा रहा है। विभिन्न एजेंसियों ने इसकी कई अनुशंसाओं का मान रखा लेकिन आखिरकार सरकार ने यही आशा की कि अगले सप्ताह मौसम का रुख बदल जाएगा और दिल्ली का वातावरण सुधर जाएगा। दिक्कत यह है कि सीएक्यूएम की अनुशंसाओं में पूरे क्षेत्र को समग्रता से नहीं देखा गया। ऐसे में अगर पड़ोसी राज्यों में सबकुछ पहले जैसा है तो दिल्ली में लॉकडाउन लगाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। गौतम बुद्ध नगर तथा अन्य स्थानों पर अगर ताप बिजली घर चल रहे हैं तो दिल्ली में बिजली घर बंद करने का कोई तुक नहीं है। सूक्ष्म प्रदूषक कण राज्यों की सीमाओं का ध्यान नहीं रखते। जो भी हल तलाश किए जाएं उन्हें वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित होना चाहिए क्योंकि आकलन के लिए कई वर्षों के आंकड़े और अध्ययन मौजूद हैं। इसके साथ ही उन्हें पूरे प्रभावित क्षेत्र पर एक साथ लागू किया जाना चाहिए। इसके लिए राज्य सरकारों के सहयोगी की आवश्यकता होगी और यहां राजनीतिक नेतृत्व अहम है। यदि समस्या से तार्किक ढंग से निपटा गया, व्यापक तथा स्थायी योजना अपनाई गई और यह काम एक ऐसी संस्था द्वारा किया गया जो समावेशी हो तो दिल्ली की हवा के साथ राजनीति की संभावना कम हो जाएगी।