कोविड-19 महामारी की दो घातक लहरों का प्रभाव अब देश में घटने लगा है लेकिन इस बीच ओमीक्रोन जैसे नये प्रकारों का खतरा अभी भी आर्थिक क्षेत्र पर मंडरा रहा है। सवाल यह है कि आखिर महामारी ने देश में रोजगार की स्थिति को किस हद तक प्रभावित किया है और क्या यह अभी इतनी मजबूत है कि महामारी की एक और लहर का सामना कर सके। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) के ताजा आंकड़ों से कुछ परेशान करने वाले अर्थ निकलते हैं। आंकड़े बताते हैं कि हाल के सप्ताहों में नए रोजगार जरूर सृजित हुए हैं लेकिन लगातार दो महीनों में श्रम भागीदारी दर में गिरावट आई है। हालिया अतीत में हमने ऐसा बार-बार होते हुए देखा है। सीएमआईई के निष्कर्ष के मुताबिक महामारी ने देश की श्रम भागीदारी दर को ढांचागत रूप से बदल दिया और यह तीन फीसदी और घटकर 40 फीसदी पर आ गई। यह स्तर मध्य आय वाले अन्य देशों के साथ तुलना की दृष्टि से काफी कम है।
केवल रोजगार के आंकड़े ही नहीं बल्कि दीर्घकालिक दृष्टि अपनाएं तो भारत के लिए उनकी गुणवत्ता भी चिंता का विषय है। सीएमआईई के आंकड़े यह संकेत देते हैं कि हाल के दिनों में रोजगार वृद्धि ग्रामीण इलाकों में केंद्रित रही है और वेतन वाले रोजगार लगातार कम हो रहे हैं। अभी हाल तक इस बात की काफी आशा की जा रही थी कि देश की अर्थव्यवस्था का औपचारिकीकरण होने की गति जोर पकड़ेगी और वेतन वाले शहरी रोजगार भविष्य की वृद्धि का प्रमुख बिंदु होंगे। इसमें दो राय नहीं कि औपचारिकीकरण के पहलू मसलन सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था में भागीदारी की गति बरकरार है लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है कि वेतन वाले शहरी रोजगार आशा के मुताबिक समृद्धि के वाहक हैं।
यह बात खासतौर पर निराश करने वाली है क्योंकि देश के युवा कामगार ऐसे रोजगार की आकांक्षा करते हैं। दीर्घावधि को लेकर यह अंतर्दृष्टि हालिया आंकड़ों के व्यापक रुझान से मेल खाती है। सरकार के आवधिक श्रम शक्ति सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक असंगठित क्षेत्र में गैर कृषि श्रमिकों की हिस्सेदारी बढ़कर करीब 70 प्रतिशत हो गई है। ऐसे लोगों की तादाद भी काफी बढ़ी है जो बिना वेतन के अपने पारिवारिक उपक्रमों में काम कर रहे हैं। इसके अलावा हालिया स्मृति में पहली बार कृषि में काम करने वाले लोगों की तादाद बढ़ी है। इस सर्वे के ताजातरीन तिमाही अनुमान जनवरी-मार्च 2021 के हैं और इनके आधार पर भी इन निष्कर्षों में कुछ खास बदलाव नहीं आता है। सीएमआईई के उलट इन्होंने दिखाया कि शहरी इलाकों में श्रमिक भागीदारी की गति महामारी के पहले के स्तर के करीब है। तथ्य यह है कि रोजगार सर्वेक्षणों से एक बात साफ निकल रही है कि देश का वृद्धि का मॉडल स्पष्ट रूप से संकट में है। कल्याणकारी उपायों तथा सामाजिक संरक्षण में बढ़ोतरी की मदद से अपरिहार्य को टाला जा सकता है तथा कुछ हद तक जीवन स्तर का बचाव किया जा सकता है। लेकिन तथ्य यही है कि देश की अधिकांश आबादी के लिए उत्पादकता, वेतन और रोजगार सुरक्षा जैसी चीजों में स्थायी वृद्धि के माध्यम से ही मजबूत आर्थिक वृद्धि तथा सुरक्षित आजीविका की बुनियाद तैयार की जा सकती है। कृषि रोजगार, ग्रामीण क्षेत्रों के रोजगार तथा बिना भुगतान के या असुरक्षित काम करने के लिए श्रम शक्ति की गतिविधियां यही दर्शाती हैं कि वृद्धि के ताजा रुझान व्यापक नहीं हैं और भविष्य की वृद्धि के लिए टिकाऊ बुनियाद नहीं तैयार हो रही है। सरकार के समक्ष मौजूद आर्थिक चिंताओं में सबसे अधिक तरजीह इसी पर देने की जरूरत है।
