यह तो अब करीब-करीब तय हो चुका है कि 20 जनवरी को व्हाइट हाउस में जब बराक ओबामा की ताजपोशी होगी, उस वक्त वह अपना दरबार भी चुन चुके होंगे, जिसमें विदेश मंत्री होंगे और ब्रिटेन, फ्रांस, चीन तथा भारत के लिए राजदूत भी।
यह लगभग तय हो गया है कि रॉबर्ट गेट्स अप्रैल तक रक्षा मंत्री बने रहेंगे।अमेरिकी दूतावास के मुताबिक आम तौर पर इन लोगों को चुनने में महीनों का वक्त लग जाता है, लेकिन ओबामा के मामले में यह सब लंबा नहीं खिंचेगा क्योंकि वह अपने दरबारियों की फेहरिस्त पहले ही कमोबेश तैयार कर चुके हैं।
सीनेट से अपने दरबारियों को नियुक्तियां दिलाने में भी ओबामा संजीदगी ही बरतेंगे। इस फेहरिस्त को मंजूरी दिलाने की योजना पहले से ही उनके पास मौजूद है, ऐसा माना जा रहा है।
इसे मंजूरी दिलाने में वह हिलेरी और बिल क्लिंटन जैसा आक्रामक रवैया भी नहीं अपनाएंगे।
हिलेरी उम्मीदवारी हासिल करने में ओबामा की प्रतिद्वंद्वी थीं, लेकिन उन्हें मात खानी पड़ी। इसीलिए माना जा रहा हैकि ओबामा शायद ही बिल क्लिंटन को कश्मीर के लिए अमेरिका का विशेष दूत बनाने पर हामी भरें। खुद क्लिंटन को यह बेकार की जिम्मेदारी लग रही है।
लेकिन इन कयासों के बीच भारत और पाकिस्तान के कूटनीतिक खेमों में बेचैनी फैलने लगी है। दोनों देशों के नीति निर्माता मान रहे हैं कि बदलाव के तहत अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति वापस आ सकती है और इसमें सबसे बड़ा निशाना भारत-पाकिस्तान ही बनेंगे।
ओबामा इसका संकेत दे भी चुके हैं। अपने भाषणों में वह कह चुके हैं कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर पर बात करनी चाहिए। इतना ही नहीं, ओबामा के मुताबिक इराक में लड़ाई उतनी जरूरी नहीं है, जितना अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबान से निपटना।
दक्षिण एशिया के बारे में अमेरिका की नीति अफगानिस्तान के चश्मे से देखती है, कश्मीर के चश्मे से नहीं। इसीलिए अमेरिका सबसे पहले पाकिस्तान को भरोसा दिलाएगा कि वह हमेशा उसके साथ है और तब अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ मुहिम छिड़ेगी।
लेकिन पाकिस्तान को भरोसे में लेने के लिए जरूरी है कि कश्मीर मसले में भारत पर दबाव डाला जाए। पाकिस्तान भी इस मौके को शायद ही गंवाएगा और वह कश्मीर मसले पर मध्यस्थता की गुहार एक बार फिर अमेरिका से लगाएगा। अब मध्यस्थता का जिम्मा क्लिंटन को सौंपे जाने पर संदेह है क्योंकि कारगिल युद्ध में भारत का पक्ष लेने के बाद पाकिस्तानी प्रशासन के साथ उनकी बातचीत नाममात्र को ही होती है।
दूसरी ओर भारतीय राजनीतिज्ञों को उम्मीद है कि घरेलू दिक्कतों को सुलझाने में ही ओबामा का अगला साल बीत जाएगा। अर्थव्यवस्था को संबल देना, नस्ल की समस्या सुलझाना और प्रशासन को संजोना ओबामा के लिए बड़ी चुनौतियां हैं।
लेकिन भारत की नीतियां केवल आर्थिक या सामरिक साझेदारी तक सीमित नहीं रह सकती, राजनीतिक संबंधों में भी रस्साकशी होगी। यह भी याद रखना चाहिए कि ओबामा भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी के हिमायती हैं।
उन्होंने कहा है कि एच 1बी वीसा कार्यक्रम के जरिये वह दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अमेरिका बुलाना चाहते हैं, लेकिन वह किसी कीमत पर इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मखौल भी नहीं उड़वा सकते।