भारतीय जनता पार्टी में कई ऐसा नेता हैं जो पहलवान, शिक्षक और लोध हैं। एक बार राज्य सभा के लिए नामांकित किए गए दारा सिंह पहलवान हैं, मुरली मनोहर जोशी शिक्षक हैं।
उमा भारती पार्टी में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में शक्तिशाली मध्यवर्गीय जाति लोध का मशहूर चेहरा मानी जाती थीं। लेकिन पार्टी में तीनों विशेषताओं से लैस एकमात्र नेता थे कल्याण सिंह।
वर्ष 1999 में सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री की आलोचना करने और अटल बिहारी वाजपेयी के चुनाव में नुकसान पहुंचाने की कोशिश करने की वजह से लाल कृष्ण आडवाणी ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया था। इससे पहले वह भाजपा के समर्पित नेता थे।
वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विजयी रूप से उनकी घर वापसी हुई। 20 जनवरी 2009 को एक बार फिर उन्होंने पार्टी छोड़ दी। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भेजे त्यागपत्र में उन्होंने एटा लोकसभा सीट के लिए नामांकित करने की खातिर पार्टी का शुक्रिया अदा किया है। साथ ही उन्होंने लिखा है – मैं यह टिकट आपको वापस कर रहा हूं क्योंकि पार्टी में मुझे बेइज्जती और उदासीनता मिली है।
1999 में भाजपा को अलविदा करने के ठीक बाद उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति दल (आरकेडी) का गठन किया था और इस पार्टी ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (एसपी) के साथ गठबंधन किया था। आज की ही तरह तब भी मुलायम सिंह ने उन्हें खुश किया था।
अब उत्तर भारत के महत्त्वपूर्ण मदरसों में से एक दारूल-उलूम देवबंद के अधिकारी गण कल्याण सिंह (वैसा व्यक्ति जिसने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपनी निगरानी में बाबरी मस्जिद को ढहाने की अनुमति दी) का साथ लेने के मुलायम सिंह के फैसले पर इतने ज्यादा नाराज हैं कि उन्होंने आने वाले चुनाव में समाजवादी पार्टी के खिलाफ मतदान करने का फैसला ले लिया है।
यह व्यक्ति कौन है। कल्याण सिंह अलीगढ़ के पास अतरौली के हैं और इनकी पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। जब 1977 में बिहार व उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उन्हें उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया था, तब वह राज्य भाजपा के अध्यक्ष भी थे। 1989 और 1992 के बीच जब वी. पी. सिंह ने मंडल का मुद्दा उछाला था तब भाजपा के पास इसका प्रत्युत्तर देने के अलावा कोई चारा नहीं था।
कल्याण सिंह के रूप में पार्टी ने आदर्श उम्मीदवार पाया, एक ऐसा पिछड़ा जिसने मुलायम सिंह यादव का विरोध किया था, राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया था और भाजपा का ऐसा चुंबक था जिसके जरिए पार्टी ने अन्य पिछड़े वर्ग के हिंदुकरण की उम्मीद पाली थी। इस तरह राजनीतिक फायदा मंदिर और मंडल के इर्द-गिर्द देखा जाने लगा।
कल्याण सिंह एकात्मता यात्रा की अगुवाई के लिए चुने गए और उन्हें पश्चिम बंगाल व बिहार कवर करने का काम सौंपा गया था। आइडिया के तौर पर एकात्मता यात्रा काफी बुध्दिमानी भरी थी। भाजपा नेताओं ने एकता दिखाने के मकसद से विभिन्न नदियों का जल बर्तन में लेकर (बाद में इसे अन्य नदियों में समर्पित किया जाएगा) देश के चारों कोनों की यात्रा की।
संगठन ने जिन नेताओं की पहचान भविष्य के नेता के तौर पर की थी, उन्हें इस यात्रा के जरिए अपना व्यक्तित्व राष्ट्रीय स्तर का बनाने में सहायता मिली। एकात्मता यात्रा के दौरान कोलकाता के एस्प्लानेड में कल्याण सिंह की जनसभा में जितने लोग आए थे, उतने कभी नहीं देखे गए थे। 1991 में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बन गए।
तब सारनाथ में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी ने कल्याण सिंह के बारे में कहा था – वह पिछड़ी जाति के नेता हैं, लेकिन वह ओबीसी की राजनीति नहीं करते। इन सपनों की हवा निकल गई। कल्याण सिंह ने सोचा था कि बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद 1993 में उनकी लोकप्रियता चरम पर है।
राज्य विधानसभा में पार्टी को सिर्फ 176 सीटें मिलीं, जो सरकार बनाने के लिए अपर्याप्त थी यानी सरकार बनाना मुमकिन नहीं था। तब भाजपा ने पहली बार महसूस किया था कि वह इतने कद्दावर नेता नहीं हैं, जैसा कि पार्टी ने मान लिया था। ओबीसी वोट टुकड़ों में बंट गई और कुर्मियों को बहुजन समाज पार्टी के साथ जाना ज्यादा हितकारी लगा।
साल 1997 में एक बार फिर चुनाव हुए, एक बार फिर हुए, लेकिन कल्याण सिंह 176 सीट से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए। इससे भाजपा को लगा कि अगर उत्तर प्रदेश में उन्हें अपना समर्थन आधार मजबूत करना है तो फिर पार्टी को किसी और नेता की तरफ देखना पड़ेगा।
साल 1997 में भाजपा ने एक गलती कर दी। कल्याण सिंह के विरोध के बावजूद वह अपना आधार मायावती के साथ साझा करने पर सहमत हो गई। छह महीने के लिए मायावती ने सत्ता संभाली और फिर जब कल्याण सिंह की बारी आई तो उसने समर्थन वापस ले लिया।
एक बार फिर भाजपा संकट में नजर आई। अब उत्तर प्रदेश में नेतृत्व की बाबत दावा ठोंकने वाले कई चेहरे सामने आ गए हैं – राजनाथ सिंह, लालजी टंडन…। शक्तिहीन करने और अहंकार पर चोट पहुंचाए जाने के बाद भी कल्याण सिंह ने पार्टी के भीतर रास्ता तलाशने की कोशिश की। उन्होंने एक ही तरीके से हमला किया।
1998-99 के आम चुनाव में उन्होंने जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को लालजी टंडन के साथ सहयोग न करने का निर्देश दिया, अपने ऊपर प्रधानमंत्री के चुनाव में नुकसान पहुंचाने की कोशिश के आरोप लगाने के बाद भी। बाद में आडवाणी के निर्देश पर उन्हें निलंबित कर दिया गया और फिर पार्टी से निकाल दिया गया।
वह भाजपा में वापस लौटे, यह जानकर कि चीजें वहां बदल गई हैं। कभी विरोधी रहे राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे, यह उनके लिए असहज था। एक बार फिर उन्होंने केसरिया चोला उतार दिया है। इसके दो कारण हैं। पहला, उनका मानना है कि आने वाले आम चुनाव में केसरिया में थोड़ा बहुत ही खिंचाव होगा।
दूसरा, उत्तर प्रदेश में भाजपा इतनी कमजोर है कि मुसलमान चिंतित नहीं होंगे। इसी वजह से उन्होंने मुलायम सिंह के साथ रणनीतिक गठजोड़ किया है और इससे उनके चुनावी भविष्य पर चोट नहीं पहुंच सकती।
इससे मुलायम सिंह को क्या हासिल होगा। वर्तमान में मुसलमानों के गुस्से के संकेत से सही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सभी मुसलमान मायावती की तरफ मुड़ जाएंगे और साल 2009 के आम चुनाव में मायावती एक झटकेमें 80 सीटों पर परचम लहरा देंगी।
उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को एक तबका अभी भी मुलायम सिंह के साथ है और अगर ऐसे में लोध वोट जुड़ जाए तो फिर नुकसान कैसा?
