जापानियों ने दुनिया को प्रबंधन का जो गुर सिखाया है, वह है एकदम सही समय पर किसी काम को पूरा करना।
चीनियों ने जो मंत्र दिया है वह है बड़े पैमाने पर उत्पादन की क्षमता। तो फिर भारत दुनिया को प्रबंधन का कौन सा पाठ पढ़ा सकता है? इसे आप कम खर्च पर उत्पादन की कला तो नहीं कहेंगे पर शायद इसे ‘जुगाड’ क़हा जा सकता है।
कुछ लोग इस शब्द का अनुवाद ‘किसी तरह काम पूरा करने’ को लेकर करते हैं और इसे इसी तरह से समझते भी हैं। पर अगर इससे एक कदम आगे बढक़र सोचें तो पता चलेगा कि इसे सीमित संसाधनों का अधिकतम उपयोग भी कहा जा सकता है।
शायद इस नजरिये को समझने का इससे बेहतर कोई दूसरा समय नहीं हो सकता है जब पूरा विश्व तेजी से मंदी की ओर कदम बढ़ा रहा है और कंपनियां अपने राजस्व और मुनाफे को बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
इसका एक सटीक उदाहरण भारत के गांवों में इस्तेमाल की जाने वाली हाइब्रिड मशीन है जिसका नाम भी ‘जुगाड़’ ही है। इस मशीन को एक साथ परिवहन के लिए, सिंचाई के लिए पंप के तौर पर और थोड़े समय के लिए बिजली के लिए इस्तेमाल किया जाता है और वह भी बहुत ही थोड़े से खर्च पर।
ग्रामीण इलाकों में बिजली, पानी और यातायात जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और ऐसे में देश की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए यह मशीन बहुत उपयोगी साबित हुई है और अब भी बनी हुई है।
पर भारत ने दुनिया को केवल यही नहीं सिखाया है कि जब अर्थव्यवस्था में सुविधाओं का अभाव हो तो किस तरह औद्योगिक संभावनाओं की तलाश की जाए।
उन्हें यह भी पता है कि जब बेहद निम् दर्जे की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों तो ऐसे में भी कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा काम किस तरह किया जाए। इसे समझने के लिए दशकों से मुंबई के दफ्तरों में खाना पहुंचा रहे डिब्बेवालों का उदाहरण लिया जा सकता है।
हम में से अधिकांश लोग इन डिब्बेवालों के महत्त्व को तब तक नजरअंदाज करते रहे थे जब तक प्रबंधन गुरु सी के प्रह्लाद ने इनकी कार्यकुशलता का लोहा नहीं माना था। प्रह्लाद ने इन डिब्बेवालों की कार्यकुशलता को 6 सिग्मा में मापा और इन्हें ‘आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन का महारथी’ घोषित किया था।
आज जब यूटीआई संपत्ति प्रबंधन को अपनी म्युचुअल फंड योजनाओं में निवेश की सख्त दरकार है तो उसने इन्हीं डिब्बेवालों के वितरण नेटवर्क का इस्तेमाल किया है। इसी नेटवर्क के जरिये यूटीआई 20 लाख लोगों को फॉर्म और प्रचार सामान बंटवा रही है।
प्रमुख अखबारों में कंपनी के प्रचार के लिए विज्ञापन देने की परंपरा से एक कदम आगे बढ़ते हुए यह तरीका अपनाया गया है। आपके पास कितना संसाधन उपलब्ध है, इसका वास्तविक आकलन करना भी कहीं न कहीं जुगाड़ से जुड़ा हुआ है।
नेहरू की समाजवादी और इंदिरा गांधी की राष्ट्रीयकरण की विचारधारा ने भारतीयों और भारतीय कारोबारियों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अगर संसाधनों का सही तरीके से बंटवारा नहीं किया गया हो और इस पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार व्याप्त हो तो फिर वे कैसे इस माहौल में काम करें।
वे किस तरह ऐसे हालात में भी अधिक से अधिक कारगर साबित हों। प्रतियोगिता बढ़ाने के लिए लाइसेंस प्रणाली की शुरुआत की गई और किसी एक पक्ष का दबदबा न बनने पाए इसके लिए सख्त कानून तैयार किए गए। और इन सबका उद्देश्य एक ही था- ‘गरीबी हटाओ’, हालांकि इसके बाद भी अधिकांश भारतीय गरीबी रेखा के नीचे ही रह गए।
पर 90 के दशक से ही उदारीकरण और वैश्विक प्रतियोगिता के चलते भारतीय कारोबारियों को भी अपनी कारोबारी लागत में बदलाव लाना पड़ा। बाजार में टिके रहने के लिए उन्हें भी महंगे सौदों और परिचालन का दर्द सहना पड़ा।
फिर एक दूसरा चरण आया जब वैश्विक मानकों से मेल खाने के लिए भारतीय कंपनियों ने विश्व स्तरीय उत्पाद बनाने शुरू किए और इसके लिए उन्हें उन संसाधनों और बुनियादी सुविधाओं का अधिकतम उपयोग करना था जो आज भी काफी सीमित मात्रा में पाए जाते हैं।
महिंद्रा ऐंड महिंद्रा कंपनी की स्पोट्र्स यूटिलिटी व्हीकल (एसयूवी), स्कॉर्पियो जुगाड़ के नजरिये का ही एक बेहतरीन उदाहरण है। एमऐंडएम ने इस गाड़ी को 90 के दशक के मध्य में बनाया था और वह भी पश्चिमी देशों में इसी सेगमेंट की दूसरी गाड़ियों के मुकाबले कम लागत पर।
ऊंची लागत पर तैयार किए जाने वाले उत्पाद के ट्रेंड को तोड़ने के लिए कंपनी ने उत्पादन प्रक्रिया में आपूर्तिकर्ताओं को काफी करीब से शामिल किया। इसी नजरिये को अपनाकर कंपनी ने लोगन कार का उत्पादन 15 फीसदी कम लागत पर किया।
चर्चा में रही टाटा मोटर्स की छोटी कार नैनो को भले ही राज्य सरकार से सस्ता कर्ज और कर में छूट मिल रही हो, फिर भी कंपनी ने कम लागत पर भारतीयों के कार के सपने को पूरा करने का बीड़ा उठाया है। इससे दूसरी कंपनियों को लॉजिस्टिक और कच्चे माल के बेहतर इस्तेमाल की सीख मिली होगी।
और इस चर्चा में अगर चंद्रयान 1, जिसे भारत ने 22 अक्टूबर को सफलतापूर्वक लॉन्च किया था का नाम छूट जाए तो शायद पूरी चर्चा ही अधूरी रह जाएगी। जिस महीने सेंसेक्स रिकॉर्ड 23 फीसदी गिरा था उस महीने भारत के लिए चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण एक मात्र अच्छी खबर थी।
इस अभियान के लिए भारत को महज 8 करोड़ डॉलर खर्च करने पड़े थे और उसके साथ ही भारत 6 देशों के विशिष्ट क्लब में शामिल हो गया। चंद्रयान 1 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के लिए भी एक अभूतपूर्व सफलता है।
इसके पहले भी इसरो पश्चिमी देशों की तुलना में लगभग एक तिहाई कीमत पर भूस्थैतिक प्रक्षेपण क्षमताओं का विकास करता रहा है। और यह सब केवल 1 अरब डॉलर के कम बजट में ही किया गया था।
यह सफलता इस मायने में भी महत्त्वपूर्ण है कि हाल ही तक भारत की परमाणु नीतियों की वजह से अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगा रखा था जिससे वह प्रौद्योगिकी और पुर्जों तक पहुंच से दूर हो गया था।