बीते दिनों दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों के सर्वोच्च न्यायालय चर्चा में रहे। अमेरिका की सबसे बड़ी अदालत ने पचास वर्ष पुरानी एक नजीर को उलट दिया जो निजता के अधिकार से संबंधित थी और जिसमें अन्य चीजों के अलावा गर्भपात को कानूनी मंजूरी दी गई थी। ध्यान रहे कि अमेरिकी कानून काफी पुराना है और उसमें संशोधन बहुत कठिन है।
इस बीच भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने दो अलग-अलग तरीकों से खुद को समकालीन भारतीय राजनीति के सबसे विवादास्पद पहलुओं के बीच पाया। पहले 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में न्यायालय की भाषा कुछ ऐसी थी कि कुछ लोगों ने उसे गलत ढंग से इस प्रकार समझ लिया मानो उस मामले में शामिल सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया जाए। निश्चित तौर पर आतंकविरोधी दस्ते को लगा कि उनसे ऐसा ही कहा गया है और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा। पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने लिखा कि ऐसा नहीं कि न्यायालय ने कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। उन्होंने लिखा कि उन्हें सुनवायी के हिस्से के रूप में चिह्नित नहीं किया गया था लेकिन उन्हें नहीं सुना गया और उनकी आजादी को मनमाने ढंग से छीन लिया गया।
इसके बाद राजनीतिक माहौल के एकदम विपरीत नजर आने वाले एक निर्णय में न्यायालय ने भारतीय जनता पार्टी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को भड़काने के लिए अलग-अलग जगहों पर दायर प्राथमिकियों को एक जगह इकठ्ठा करने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि उनके बयान के बाद देश भर में जो दंगे जैसे हालात बने उनके लिए वह इकलौती जिम्मेदार हैं। अदालत ने यह भी कहा कि उनके बयान के कारण पूरे देश में आग लग गई। इस बीच पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने पत्रकार करण थापर से कहा कि अदालतें इस विवाद से जुड़े एक अन्य व्यक्ति के अधिकारों की अनदेखी कर रही हैं और वह हैं फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर। जुबैर को अनिश्चित और संदेहास्पद आरोपों में गिरफ्तार किया गया है। हममें से ज्यादा लोग इन दो अलग-अलग निर्णयों के पीछे के न्यायशास्त्रों की व्याख्या करने में सक्षम नहीं हैं। कम से कम मेरा ऐसा कुछ करने का इरादा भी नहीं है। हालांकि अमेरिका और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त फैसले आने के बाद जनता की प्रतिक्रिया और विश्लेषण में अंतर को साफ महसूस किया जा सकता है।
अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के अधिकार को लेकर जो निर्णय दिया वह पहले ही लीक हो गया था जो कतई अच्छी बात नहीं है लेकिन इसके अलावा यह बारीक छानबीन और सही तथा गलत आलोचना का विषय भी बना।
इसे न्यायाधीशों के राजनीतिक झुकाव से जोड़ा गया तथा उस व्यापक राजनीतिक ढांचे से भी जिसके अधीन उनका नामांकन और उनकी नियुक्ति हुई थी। अमेरिका में कुछ राजनीतिक ताकतें ऐसी भी हैं जो आकलन कर रही हैं कि इस ताजा फैसले को संवैधानिक दायरे में रहते हुए कैसे पलटा जा सके और कैसे यह सुनिश्चित किया जा सके कि न्यायालय इस मसले पर बहुसंख्यक भावनाओं को प्रदर्शित करे। वहीं अन्य राजनीतिक ताकतें खुद को बधाई दे रही हैं क्योंकि वे लंबे समय से पहले के उदार निर्णयों को पलटने का अभियान चला रही थीं। चाहे जो भी हो यह तय है कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय किसी भी अन्य लोकतांत्रिक देश के संस्थान की तरह लोकतांत्रिक जवाबदेही के दायरे में आता है।
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की बात करें तो तमाम वजहों से वह अपनी जवाबदेही के दायरे में नजर नहीं आता। अतीत में इस बात के चौतरफा प्रयास किए गए हैं कि एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जा सके जहां न्यायिक नियुक्तियां इस प्रकार की जाएं जिससे स्वतंत्रता की रक्षा की जा सके और जवाबदेही को नये सिरे से सुनिश्चित किया जा सके। अब तक ऐसे प्रयास नाकाम रहे हैं, हालांकि विशेषज्ञ कुछ काम लायक विचारों की हिमायत करते रहे हैं।
जवाबदेही की इस अनुपस्थिति का एक परिणाम यह है कि हमारे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ऐसे नहीं होते कि आम आदमी की समझ में आसानी से आ सकें। एक और बात यह है कि हमारे देश के न्यायिक और संवैधानिक चयनों तथा व्यापक राजनीतिक माहौल के बीच के संबंध स्थापित नहीं हो पाते।
अन्य लोकतांत्रिक देशों से एकदम उलट माहौल में आम भारतीय इस बात को लेकर चकित नजर आता है कि क्या हमारे उदार लोकतांत्रिक संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है जिसकी मदद से एक ऐसा कानूनी ढांचा सुनिश्चित किया जा सके जो नागरिकों के अधिकारों के बारे में उन्हें बेहतर जानकारी प्रदान कर सके। इसके परिणामस्वरूप अदालतों के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। यह उसके प्राधिकार को खतरनाक तरीके से प्रभावित कर रहा है और इसके साथ ही भविष्य में उसके लिए कौशल दिखाने की गुंजाइश प्रभावित हो रही है।
मेरा कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि भारत में हम लोगों को अन्य न्यायिक प्रणालियों के सभी पहलुओं का अनुसरण करना चाहिए। मेरा यह मतलब तो बिल्कुल नहीं है कि हम अमेरिकी न्याय प्रणाली का अनुसरण करें जिसकी गलतियां एकदम स्पष्ट नजर आ रही हैं।
परंतु अगर देश में कानून और न्याय प्रक्रिया को लेकर सम्मान को बढ़ाना है तो यह महत्त्वपूर्ण है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय इस बात की पुनरीक्षा करे कि वह खुद को अधिक जवाबदेह तथा अपने निर्णयों को अधिक विश्लेषणात्मक किस प्रकार बना सकता है।
