स्वतंत्र भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में पहली बार 1991 में भारी परिवर्तन देखने को मिला जब चार दशक पुरानी समाजवादी व्यवस्था और आत्मनिर्भरता की नीति को छोड़ दिया गया।
इसके बाद खुली अर्थव्यवस्था का दौर आया और भारतीय बाजार दुनिया के अन्य बाजारों से जुड़ गया। अभी दो दशक से भी कम समय ही हुआ है कि हम एक और भारी बदलाव की ओर बढ़ रहे हैं। इस तरह के ऐतिहासिक बदलाव की एक कीमत होती है।
महामंदी, जिसने जीवन और संपत्ति को प्रभावित किया, के बाद व्यापार के चक्र में सरकारी व्यय की भूमिका महसूस की जाने लगी। द्वितीय विश्व युध्द की कीमत चुकाने के बाद लोगों की बेहतरी के लिए कल्याणकारी राज्य की जरूरत महसूस की गई।
सत्तर के दशक में बाजार, तेल की बढ़ती कीमतों, बढ़ती महंगाई दर और घटते औद्योगिक विकास (स्टैगफ्लेशन) से रूबरू हुआ। भारत में सुधार का दौर 1991 में तब शुरू हुआ जब उससे पहले आर्थिक संकट काफी गहरा गया था।
भारत के लिए यह दिलचस्प है कि इस समय जो संकट का दौर चल रहा है, उसकी शुरुआत यहां नहीं हुई है। यह वैश्वीकरण का असर है, जिसके चलते संकट ने उसका दरवाजा खटखटाया लेकिन अंतत: उस पर इसका असर कम से कम होगा।
अन्य देशों की तुलना में उसे कम ही सीख लेनी होगी। भारत अन्य से इस मायने में कुछ अच्छी स्थिति में है क्योंकि उसने रूढ़िवादिता के चलते खुले बाजार की कुछ नीतियों पर अमल नहीं किया। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह भी है कि कुछ ऐसी बातें हैं, जिससे भारत को सीखने की जरूरत है।
एक महत्त्वपूर्ण बात, जिससे सभी लोगों को सीखने की जरूरत है, वह है वित्तीय नियामक क्षेत्र। अब जरूरत इस बात की है कि संपूर्ण वित्तीय क्षेत्र को नियमों के अधीन लाया जाए, न कि तमाम महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को बगैर किसी नियम के स्वतंत्र छोड़ दिया जाए। दूसरी बात यह है कि संपत्तियों के बुलबुले को यूं ही न छोड़ दिया जाए, वह भी ऐसे में जब वह स्पष्ट रूप से नजर आ रहा हो।
रूढ़िवादिता यह है कि बाजार खुद ही परिसंपत्तियों की कीमतें तय कर देगा और अगर कीमतें बढ़ती हैं, तो वह खुद ही इसे ठीक कर लेगा। इसका नुकसान पश्चिमी देशों में हाउसिंग क्षेत्र के बुलबुले के मामले में बहुत स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है।
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नियामकों को किसी भी उस वित्तीय उत्पाद को अनुमति नहीं देनी चाहिए, जिसके बारे में आपकी (नियामकों की) सोच यह हो कि इसे किस तरह से नियंत्रित किया जाएगा या किस तरह से इस पर नजर रखी जा सकेगी। इन तीन क्षेत्रों पर भारत ने सही फैसला किया, जबकि वैश्विक दबाव था कि इन क्षेत्रों में ढील दी जाए।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सीख संपूर्ण नीति को लेकर है और भारतीयों को खासकर इससे अनुभव लेना चाहिए, जिससे भविष्य में आगे बढ़ सकें। पिछले कुछ महीनों में कुछ चीजों और कार्यविधियों की वैश्विक रूप से आवश्यकता महसूस की जा रही है कि- रूढ़िवादिता को छोड़कर लोगों की नौकरियां बचाई जाएं और तनाव कम किया जाए।
सामान्य दिनों में विकसित अर्थव्यवस्थाएं बेरोजगारों को सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश करती हैं, लेकिन जैसा संकट इस समय है कि पूरी दुनिया प्रभावित है, वैसी स्थिति में नए तरह का संकट उठ खड़ा हुआ है। यह देखना बहुत ही हृदयग्राह्य है कि किस तरह से पश्चिमी देश बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
उनकी कोशिश है कि वित्तीय व्यवस्था के ढहने से उत्पन्न होने वाली सामाजिक घबराहट से बचा जा सके, जबकि एशियाई वित्तीय संकट में जैसा कि इंडोनेशिया में हुआ, इससे सामाजिक घबराहट बढ़ रही है।
इस समय नौकरियों को बचाने की जरूरत इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि इसमें सख्त वित्तीय कार्रवाई करनी जरूरी हो गई है। इसमें बजट घाटा कितना बढ़ गया है, इस तरफ कोई नहीं देख रहा है। इसके साथ ही महंगाई रोकने की जरूरत भी उतनी ही शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है।
इस तरह से एक नया उदाहरण सामने आ रहा है कि मौद्रिक और वित्तीय नीति निश्चित रूप से एक साथ काम करे, यहां पर अब ऐसी कोई चीज नहीं बची है कि महंगाई को लक्ष्य बनाने के अलावा मौद्रिक नीति स्वतंत्र होनी चाहिए। इस समय सरकार के नेतृत्व में ही मौद्रिक और वित्तीय अधिकारी साथ बैठकर नीतियां बनाने का काम कर रहे हैं।
भारत का केंद्रीय बैंक कभी भी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं रहा और रहेगा भी नहीं। सामान्य समय में मौद्रिक और वित्तीय जगत मैक्रो इकनॉमिक स्थिरता को बरकरार रखने की कोशिश करते हैं, जबकि अपवाद के समय में वे तमाम नियमों की अवहेलना करते हैं, जिससे सामाजिक स्थायित्व बना रहे।
अगर विकसित देशों में सरकार का उद्देश्य रहता है कि बड़े पैमाने पर या अधिक बेरोजगारी को रोका जाए तो विकासशील देशों की कोशिश रहती है कि स्थिर रूप से और तेजी के साथ नौकरियों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए और इसके साथ ही कीमतें भी स्थिर रहें। यह मौद्रिक आपूर्ति या बजट घाटे के गणितीय तथ्यों के बगैर किया जाता है।
अब जरूरत है कि बदलाव को ध्यान में रखते हुए प्रयोग जारी रखा जाए। इस समय की अर्थव्यवस्था में महंगाई का मसला एक मामला है, महंगाई की स्थिति आयातित जिंसों के ऊं चे दामों की वजह से है।
चीन की हाल की कोशिश है कि मानव पूंजी की प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए और आधारभूत ढांचे पर ध्यान दिया जाए। यह आंशिक रूप से बैंकों द्वारा आसान तरीकों से धन उपलब्ध कराकर किया जा रहा है।
यह रूढिवादिता में हस्तक्षेप के रूप में नजर आ रहा है। यह तरीका एक बार फिर नजर आता है, जब उसने 5 खरब डॉलर की और मदद की गई।
जबकि भारत इस मोर्चे पर कमजोर नजर आता है। जब ट्रक निर्माता अपने कर्मचारियों को घर रहने के लिए पैसा दे रहे हैं, निश्चित रूप से बैंक अपने ट्रक फाइनैंस में कमी करेंगे और एनबीएफसी को मदद करेंगे और राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण में ज्यादा पैसा खर्च किया जाएगा।
ऐसी स्थिति में बैंकों की स्वायत्तता और वित्त मंत्रालय के वित्तीय दायित्वों के लक्ष्यों को अस्थायी रूप से किनारे रख दिया जाता है। इस समय इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि वित्तीय दायित्वों और विवेकपूर्ण मौद्रिक नीति ही काफी नहीं हैं।
उच्च विकास, जिसमें लोगों और आधारभूत ढांचे को प्राथमिकता दिए बगैर काम करना पर्याप्त नहीं है। वर्तमान वैश्विक संकट एक अवसर प्रदान करता है कि अस्थायी रूप से रूढ़िवादिता की ओर से आंखें बंद कर ली जाएं और आधारभूत ढांचे के निर्माण की ओर कदम बढ़ाया जाए। इसके साथ ही स्वास्थ्य और शैक्षिक सेवाओं के सुधार की ओर ध्यान दिया जाए। वास्तव में यह हमेशा प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए।