मशहूर लेखक सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल ने अपनी चर्चित किताब ‘इन इंडिया: ए मिलियन म्युटिनीज नाऊ’ में आईटीसी के एक एक्जीक्यूटिव चिदानंद दास गुप्ता का जिक्र किया है।
नायपॉल जब 1962 में भारत आए थे तब चिदानंद से उनकी मुलाकात हुई थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में आई इस किताब में नायपॉल ने उनके बारे में जो कुछ भी बयां किया था, हकीकत अब उससे काफी उलट हो चुकी है।
तब से अब तक के वक्त में काफी बदलाव आ चुका है। इस दौरान आईटीसी ने एक लंबा पड़ाव पार किया है। अब आईटीसी के पहचान केवल तंबाकू उत्पादों के लिए ही नहीं रही है।
नई डगर, नई पहचान
अब अगर नायपॉल अपनी किताब में संशोधन करना चाहेंगे तो उनको दासगुप्ता जैसे अधिकारियों को छोड़कर ए शिवकुमार का या फिर के वैद्यनाथन का जिक्र होगा।
शिवकुमार कृषि उत्पादों के निर्यात को लेकर उत्साहित रहने वाले अधिकारी हैं तो वैद्यनाथन पर्यावरण को लेकर घंटों बात कर सकते हैं। आईटीसी ने कई साल तक सतत विकास और कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सबिलिटी का ध्यान रखा है।
कंपनी ने काफी हद तक अपने मूल कारोबार की बजाय दूसरे उद्यमों के जरिये कमाना शुरू कर दिया है। इसके मूल कारोबार यानि तंबाकू की बात करें तो पिछले वित्त वर्ष में इसकी कुल कमाई में 48 फीसदी हिस्सा तंबाकू उद्याोग का रहा। मतलब साफ है कि कंपनी की आधे से ज्यादा कमाई गैर तंबाकू उद्यमों से होने लगी है।
कंपनी के चेयरमैन वाई. सी. देवेश्वर कहते हैं, ‘पर्यावरण को लेकर कंपनी बेहद सतर्क है। पिछले छह साल से हमारी कंपनी को पानी की कोई किल्लत नहीं हुई है। पिछले तीन साल से कंपनी के कारोबार में वृद्धि के बावजूद हमारे कार्बन स्टेटस में कमी आई है। हमें अपने इस्तेमाल के लिए जितना पानी चाहिए उससे तीन गुना पानी हमने संरक्षित किया हुआ है।
इस साल हम एक और बड़े लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब हो जाएंगे। इस साल हम अपने शत प्रतिशत कचरे को ठिकाने लगाने में भी कामयाब हो जाएंगे। इसके साथ ही हमारी कंपनी दुनिया की ऐसी पहली कंपनी हो जाएगी जो इन तीनों मानदंडों पर खरी उतरेगी। कंपनी के आकार और इसके उत्पादों में विभिन्नता को देखते हुए यह सब हासिल करना बहुत मायने रखता है।’
इस लक्ष्य को हासिल करना आईटीसी और उसके कर्मचारियों के लिए किसी भी लिहाज से आसान नहीं रहा है। सबसे बड़ी समस्या तो होटलों से निकलने वाले कचरे के प्रबंधन की थी। होटल में मौजूद रसोई से निकलने वाले कूड़े और पुराने कपड़ों को सही तरीके से डिस्पोज करना खासी चुनौती वाला काम था। लेकिन इसका तरीका भी ढूंढा गया।
रसोई से फेंके जाने वाले खाने में से कुछ को तो जानवरों को खिलाया जाने लगा और बाकी बचे हुए को कंपोस्ट करके उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। इसके अलावा लिनेन और तौलियों को अनाथालायों को दिया जाने लगा। किचेन में बचे घी और तेल को साबुन फैक्ट्रियों में कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा।
लेकिन आईटीसी के लिए सबसे बड़ी चिंता इसका भद्रचलम पेपरबोर्ड प्लांट रहा जहां से सबसे ज्यादा कचरा निकलता था। लेकिन इसका तोड़ भी तलाशा गया। मिल में बॉयलर से निकलने वाली राख से ईंटें बनाई जाने लगीं। ये ईंटें उतनी ही कारगर थीं जितनी कि परंपरागत तरीके से बनाई जाने वाली ईंटें और कंपनी ने इनका इस्तेमाल खुद अपने स्टाफ के लिए कॉलोनी विकसित करने में किया।
ई चौपाल
फिलहाल कंपनी की 6,500 ई चौपाल (इंटरनेट बूथ जो किसानों को उनकी जरूरत की जानकारियां मुहैया कराती है। हैं। इन ई चौपालों के जरिये 40,000 गांवों में रहने वाले 40 लाख से भी ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं। साथ ही कंपनी ने एक सामाजिक वानिकी अभियान भी शुरू किया है जिसके तहत 80,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा जमीन पर खेती की जा रही है।
कंपनी ने लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार भी मुहैया कराया है। होटल उद्योग (मौर्या) में अपनी शानदार उपस्थिति के बाद आईटीसी अब कपड़ों (विल्स लाइफ स्टाइल) और खाद्य सामग्री (सनफीस्ट, आशीर्वाद और किचंस ऑफ इंडिया) के क्षेत्र में भी स्थापित ब्रांड बन गई है।
जहां तक लोगों की राय की बात है तो आईटीसी एक सिगरेट की ब्रांड वाली इमेज से कुछ बाहर आई है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि कानूनों के चलते सिगरेट के विज्ञापनों पर बंदिशें लगी हैं। लेकिन हकीकत तो यही है कि कंपनी की कमाई अभी भी सिगरेट के जरिये ही हो रही है।
और आईटीसी तंबाकू की कमाई से ही अपने अधिकतर बिलों का भुगतान करती है और निवेशकों को पैसा देती है। कंपनी ने जो नये कारोबार शुरू किए हैं उनके लिए पैसा भी तंबाकू की कमाई से ही आया है। दरअसल, आइटीसी अपने शेयरधारकों और समाज दोनों का ही भला करने के काम में जुटी हुई है। कंपनी ने 2000 में ई चौपाल के साथ ही एक क्रांतिकारी शुरुआत की। अब इसके कारोबारी मॉडल में किसान भी एक हिस्सा बन गए।
एक ई चौपाल के लिए कंपनी को ढाई लाख रुपये खर्चने पड़े। इसमें कंप्यूटर, सौर ऊर्जा, बैंडविड्थ, प्रशिक्षण और संचालक पर किए जाने वाला खर्च शामिल है। ई चौपाल से किसानों को खेती से जुड़ी आवश्यक जानकारियां, मौसम की जानकारी और सही कीमतों के बारे में पता लगने लगा।
आईटीसी को इस कवायद से जो सबसे बड़ा फायदा हुआ वह यह कि इससे कंपनी की ग्रामीण इलाकों में एक बढ़िया सप्लाई चेन बन गई। इसने कंपनी को दोतरफा फायदा पहुंचाया। पहला तो यह कि इससे एक बहुआयामी डिलिवरी चैनल बन गया। दूसरा यह कि कंपनी को किसानों के माध्यम से उसके काम लायक वस्तुएं आसानी से मिलने लगीं। वक्त के साथ कंपनी का दायरा भी फैलता गया।
मसलन, एफएमसीजी, टिकाऊ उपभोक्ता सामान, ऑटो से लेकर इंश्योरेंस जैसी सेवाओं को कंपनी ग्रामीण बाजारों तक ले गई। भारतीय जीवन बीमा निगम की ही बात करें। निगम की पॉलिसी जिन पांच माध्यमों के जरिये सबसे ज्यादा बिकती है उनमें से एक आईटीसी की ई चौपाल है।
आईटीसी के कृषि कारोबार के सीईओ शिवकुमार इसकी वजह बताते हैं,’कृषि उत्पादों में वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा ने इस विचार को जन्म दिया। हमको लगा कि हम जब तक पूरी तरह से प्रतिस्पर्द्धी नहीं हो पाएंगे जब तक कि हमारी पूरी चेन इसके लिए तैयार न हो पाएगी।’
गौरतलब है कि आईटीसी ने 2001 में किचेंस ऑफ इंडिया नाम से पैकेज्ड फूड के कारोबार में कदम रखा था। शिवकुमार कहते हैं, ‘कृषि उत्पादों की बढ़िया आपूर्ति, किफायत और उनका सही संरक्षण ही हमारी सफलता का मंत्र रहा है।’ स्नैक्स के लिए कंपनी को आलू और पैकेटबंद आटे के लिए गेहूं की बड़े पैमाने पर जरुरत पड़ती है। इसके आशीर्वाद ब्रांड आटे के लिए दस लाख टन गेहूं तो ई चौपाल के जरिये ही खरीदा जाता है।
आशीर्वाद को कंपनी ने 2002 में बाजार में पेश किया था। और इसने अपनी प्रतिद्वंद्वी हिंदुस्तान यूनिलीवर के ब्रांड अन्नपूर्णा को जबरदस्त तरीके से पटखनी दी है। फिलहाल पैकेटबंद आटे के बाजार में आशीर्वाद की 50 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सेदारी है। सही मायनों में ई चौपाल ने कंपनी की तरक्की में अहम भूमिका अदा की है।
बेहतरीन गेहूं की अच्छी आपूर्ति ने केवल अकेले आशीर्वाद ब्रांड को ही फायदा नहीं पहुंचाया है। कंपनी के बिस्कुट उद्योग भी इससे फलता-फूलता जा रहा है। बाजार के जानकारों के मुताबिक 2006 में कंपनी के बिस्कुटों की बिक्री बढ़कर 700 करोड़ रुपये तक पहुंच गई जबकि इसी क्षेत्र की अगुआ कंपनी ब्रिटानिया का सालाना कारोबार 1,500 करोड़ रुपये का था।
ई चौपाल ने आईटीसी के लिए ग्रामीण इलाकों में रिटेल नेटवर्क स्थापित करने में भी मदद की। 40 ई चौपालों को जोड़कर एक चौपाल सागर बनाया गया है। यह एक हाजिर बाजार है जहां से किसान एक ट्रैक्टर लेकर प्रशिक्षण भी हासिल कर सकते हैं तो खरीदारी भी कर सकते हैं। अगले कुछ सालों में आईटीसी अपने पंख और फैला सकती है। कंपनी लॉजिस्टिक्स, वेयरहाउसिंग और स्टोर के कारोबार को शुरू करने की योजना पर भी काम कर रही है।
कैसे हुई शुरुआत
भद्राचलम पेपरबोर्ड्स लिमिटेड की स्थापना 1975 में आंध्रप्रदेश में हुई। वर्ष 2001 में इसका विलय अपनी मूल कंपनी में ही हो गया और यह आईटीसी की पेपरबोर्ड कंपनी बन गई। दरअसल यह स्पेशियल्टी पेपर डिवीजन कंपनी बन गई। सरकार ने 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में किसी भी प्रतिष्ठान के आस-पास के जंगलों से कच्चे माल की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगा दिया।
इसके बाद कंपनी ने खुद ही कच्चे माल के इंतजाम के मद्देनजर जंगलों को लगाने के काम में जुटना मुनासिब समझा। दरअसल अब कंपनी के सामने चुनौती यह थी कि कागज बनाने के लिए लुग्दी के वैकल्पिक स्रोत की तलाश कैसे की जाए क्योंकि इसका आयात भी नहीं हो सकता।
ऐसे में कंपनी ने एक योजना बनाई जिससे न केवल कच्चे माल की सुचारु रूप से आपूर्ति भी सुनिश्चित हो गई बल्कि इसके जरिए किसानों को लगभग एक साल के लिए काम भी मिल गया। इस कंपनी ने इस क्षेत्र के छोटे और सीमांत किसानों से गठजोड़ किया ताकि वे लोग फैक्टरी के लिए जंगलों में वैसे पेड़ लगाने का काम करे।
इस तरह के विचार से बेकार पड़ी जमीनों का इस्तेमाल उन पेड़ों को लगाने में किया जाने लगा जिनका इस्तेमाल कागज तैयार करने के लिए लुग्दी बनाने में होता है। इसकी वजह से लगभग तीन गुना ज्यादा लुग्दी भी मिली और करीब 90 फीसदी पेड़ों से कच्चे माल की आपूर्ति भी हो गई। इससे भद्राचलम मशीनों का काम भी बंद नहीं हुआ।
आज इनके पास तकरीबन 80,000 हेक्टेयर जमीनें हैं। आईटीसी पहली ऐसी बड़ी कंपनियों में से है जो कार्बन पॉजिटिव कंपनी है। इसकी वजह से ही इन खेतों में काम करके 406 गांवों के लगभग 13,492 घरों के लोग खेती से होने वाली कमाई से ज्यादा ही कमा रहे हैं।
पेपरबोर्ड ऐंड स्पेशियल्टी पेपर्स डिवीजन के मुख्य अधिकारी प्रदीप धोबाले का कहना है, ‘इस क्षेत्र में आर्थिक विकास होने की वजह से ही यहां सामाजिक दबाव या शोषण जैसी कोई चीज नहीं रह गई है।’ कंपनी का दावा है कि आईटीसी का पेपरबोर्ड बिजनेस काफी सफल रहा है।
कंपनी की मानें तो यह सालाना 4,70,000 टन से भी ज्यादा पेपरबोर्ड बनाती है लेकिन खुद ये महज 20 फीसदी का ही इस्तेमाल करती है। आईटीसी दूसरे कॉरपोरेशन को भी कच्चे माल मुहैया कराती है और यह खाद्य पदार्थो, तंबाकू और पर्सनल केयर प्रोडक्ट की पैकेजिंग के काम से भी जुड़ी है। इन दोनों कारोबार के जरिए इसे साल दर साल 43 फीसदी की दर 124 करोड़ रुपये का मुनाफा हो चुका है। आईटीसी ने कार्बन पॉजिटिव कंपनी का दर्जा पाकर समाज के लिए कुछ बेहतर करने का जज्बा दिखाया।
राह की चुनौतियां
अब सरकार भी तंबाकू से जुड़े सामानों पर रोक लगाने के लिए दबाव बना रही है और धूम्रपान को रोकने के लिए कानून भी पास कराया गया। इसके बाद तो आईटीसी के मुख्य कारोबार पर खतरा मंडराने लगा है जिसके जरिए उसकी सबसे ज्यादा कमाई होती है। वह कारोबार है सिगरेट का।
जब केबल टीवी एक्ट में संशोधन किया गया तब इस तरह के कारोबार का विरोध करने वाली पूरी लॉबी को सरकार का सहयोग मिला हुआ था जो सिगरेट इंडस्ट्री पर ही निशाना साधने के लिए तैयार थी। इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने वर्ष 2000 में सिगरेट के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक की वर्ष 2002 में दूसरे कार्यक्रमों और फिल्मों के जरिए भी इसके विज्ञापन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
हालांकि कंपनी तो बिना विज्ञापनों के भी अपना काम चला लेती। इसकी वजह यह थी कि यह लगभग एक दशक पुरानी स्थापित कंपनी थी और इसके वितरण का नेटवर्क भी इतना मजबूत था कि कोई दूसरी कंपनी इसका मुकाबला नहीं कर सकती थी। इसके बाद सरकार के करों का दबाव भी इन्हें झेलने के लिए मजबूर होना पड़ा।
करों में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हो गई मसलन उत्पाद कर, वैट के लागू होने से भी कंपनी पर नकारात्मक असर पड़ने लगा जिसे कंपनी रोक नहीं सकती थी। आईटीसी अब बढ़ते हुए कर के नकारात्मक असर को लगभग खत्म कर चुकी है। इस वित्तीय वर्ष में सिगरेट के कारोबार में 2314.64 करोड़ रुपये लगा कर 6,635 करोड़ रुपये का राजस्व पाने का अनुमान लगा रही है। करों में बढ़ोतरी होने की वजह से सिगरेट के बाजार पर भी इसका असर जबरदस्त रूप से पड़ा।
नई संभावनाओं की तलाश
लेकिन कहते हैं न कि जहां चाह होती है वहीं राह मिलती है। आईटीसी के लिए यह बात बिल्कुल सही है। आईटीसी ने पेपरबोर्ड और खाद्य पदार्थो के कारोबार की मदद से अपने कारोबार को बचाए रखा। आईटीसी ने सुनहरा कल नाम का प्रोजेक्ट शुरू किया जो डेयरी फार्मिंग के लिए संसाधन मुहैया कराने जैसे काम से जुड़ा हुआ था।
इस प्रोजेक्ट के जरिए उन परिवारों को मदद देने की कोशिश की गई जो उनकी फैक्टरी के इलाकों में रहते थे। भविष्य में शिवकुमार दूध के साथ ही चावल, दाल और फलों के कारोबार से खुद को जोड़ना चाहते हैं।
आईटीसी के कार्यकारी निदेशक के. वैद्यनाथ का कहना है, ‘अगर हमलोगों ने अपना नया कारोबार ज्यादा नहीं बढ़ाया होता और केवल सिगरेट के कारोबार से ही जुड़े होते तो अच्छा नहीं होता।’ भद्राचलम पेपरबोर्ड के चेयरमैन रमेश सरीन का कहना है कि देवेश्वर के नेतृत्व में आईटीसी ने जो अपने कारोबार में भी विविधता लाने की कोशिश की वह अच्छी थी।
विकास की बढ़ती दर और नए कारोबार का ही यह नतीजा है कि कंपनी अपने पूरे कारोबार का 50 फीसदी कारोबार एफएमसीजी उत्पादों के जरिए ही कर रही है। आईटीसी के कुछ कारोबार ने तो जबरदस्त तरीके से बाजार में अपना विस्तार किया है। अब जैसे इसके स्नैक्स बिंगो को ही देख लीजिए वर्ष 2007 में लॉन्च होने के 6 महीने के भीतर ही इसने बाजार के 11 फीसदी हिस्से पर अपना कब्जा कर लिया।
आईटीसी का दावा है कि पैकेज्ड फूड के बाजार में इसका हिस्सा 40 से 45 फीसदी के बीच में है और इसके स्नैक्स का हिस्सा बाजार में 12 फीसदी है। हालांकि कंपनी को अब भी तंबाकू उद्योग के लिए सरकार से टक्कर लेना भारी ही पड़ेगा।
कुछ राज्य सरकार आईटीसी को वॉटरशेड प्रोजेक्ट और दूसरे सुनहरा कल कार्यक्रम के काम के लिए जोड़ने की कवायद में हैं। वैद्यनाथ बताते हैं, ‘हमलोग आंध्रप्रदेश के सरकार के साथ जंगलों के लिए और राजस्थान में वॉटरशेड प्रोजेक्ट के लिए और मध्यप्रदेश सरकार के साथ काम कर रहे हैं।’
दमदार दावे का सहारा
आईटीसी की पैकेजिंग और उसके पेपर के कारोबार में कार्बन की मात्रा बेहद कम होने का दावा भी किया जाता है। आईटीसी ने बहुत सावधानी से अपने सिगरेट के कारोबार को कम कर दिया है और अब यह नए कारोबार से खुद को जोड़ने की कवायद में जुटी हुई है।
आईटीसी ने विल्स ब्रांड के जरिए बाजार में एक बड़ी साख तैयार की। इसकी वजह से ही आईटीसी सिगरेट बाजार का सबसे बड़ा खिलाड़ी भी बना और अब उस ब्रांड के नाम का फायदा उसके अपैरल के कारोबार में हुआ।
हरिश बिजुर कंसंल्टेंट्स के प्रमुख हरिश बिजुर का कहना है, ‘आईटीसी का अब बहुत बड़ी छवि बन चुकी है।’ हालांकि आईटीसी सिगरेट जैसे कारोबार से जुड़े होने के कारण ही अपनी सामाजिक छवि को उतनी बेहतर नहीं बना पा रही है। शायद उसकी छवि से जुड़ा यह सबसे बुरा संकट है और इसे उसी के साथ रहना पड़ेगा।
इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में उसे सिगरेट के कारोबार से 961.41 करोड़ रुपये का मुनाफा कमा चुकी है वहीं उसके एफएमसीजी उत्पादों के जरिए इसी अवधि में 122.61 करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी है। इसके होटल, कृषि से जुड़े कारोबार, पेपरबोर्ड और पैकेजिंग के जरिए इसकी साल-दर-साल विकास दर 33 से 43 फीसदी के बीच में है।
आईटीसी अपने नए रेडिमेड कपड़ों के खुदरा कारोबार के जरिए मुनाफा कमा रही है। आईटीसी के नए कारोबारों के पनपने में, सामाजिक उत्तरदायित्व से जुड़े उसके कामों से मदद जरूर मिलेगी। आईटीसी के निर्यात से किसानों को जबरदस्त रूप से फायदा मिलने वाला है क्योंकि वही लोग आपूर्तिकर्ता की भूमिका में होंगे। ग्रामीण इलाकों में अपने एफएमसीजी उत्पादों की पहुंच बनाने के लिए कंपनी चौपाल सागर को बढ़ावा दे रही है। कंपनी को समय के बदलाव और मौजूदा विकल्प को ध्यान में रखते हुए नए रास्ते अख्तियार तो करने ही पडेंग़े।