अब हम चुनाव के बीचों बीच पहुंच चुके हैं और सरकार का जीवन कुछ ही हफ्तों का है। ऐसे कई फैसले लिए जा रहे हैं, जिनके बारे में उचित तो यही होता कि उन फैसलों को अगली सरकार पर छोड़ दिया जाता।
उदाहरण के तौर पर भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) के प्रमुख के लिए दूरसंचार विवाद निपटारा एवं अपील प्राधिकरण (टीडीसैट) के सदस्य जे. एस. शर्मा की उम्मीदवारी को दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने हरी झंडी दिखा दी है।
दूरसंचार कंपनियों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम का मुफ्त आवंटन, दोहरी तकनीक की खातिर रिलायंस कम्युनिकेशन, टाटा टेलिसर्विसेज आदि कंपनियों की लाइसेंस अवधि में बढ़ोतरी और विलय व अधिग्रहण के नियमों में परिवर्तन पर भी फैसले ले लिए गए हैं। अगर उपयुक्तता की बात छोड़ दें तब भी ये मामले विवादास्पद हैं और इन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसी सरकार ने ये फैसले लिए हैं जिनके पांव कब्र में लटके हुए हैं।
डॉ. शर्मा की उम्मीदवारी को ही लीजिए। पहला, यह अद्भुत है कि ऐसे व्यक्ति को ट्राई का मुखिया बना दिया गया है जो ट्राई पर फैसला देते आ रहे हैं। इनमें से कुछ फैसले खामियों से भरे पड़े हैं और ये मुखर रूप से सरकार समर्थक लगते हैं। ट्राई इन फैसलों का विरोध करना चाहेगा, ऐसे में यह कैसे मुमकिन होगा जब ट्राई के प्रमुख का पद पाने वाले व्यक्ति ने ही ये फैसले दिए हैं?
विलय और अधिग्रहण के नियम का मामला भी समान रूप से अनोखा है। साल 2007 में जब सरकार ने फैसला किया कि वह दूरसंचार लाइसेंस उसी कीमत पर देगी जैसा कि साल 2001 में नीलामी के दौरान दिया गया था।
आलोचकों का कहना है कि सरकार ने इस वजह से करीब 10 अरब डॉलर गंवाए हैं। यह उन कीमतों पर आधारित है जो कुछ लाभान्वित फर्मों को अपनी आंशिक हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचने से मिली है।
उस समय दूरसंचार मंत्री ए. राजा और उनके मातहत नौकरशाहों की फौज ने विलय और अधिग्रहण के नए नियम लाकर इस कदम का विरोध किया था और उनका दावा था कि इन नियमों से कंपनियां नेटवर्क स्थापित किए बिना ऐसा नहीं कर पाएंगी यानी उनकी गतिविधियों पर लगाम लग जाएगा।
इसका मतलब यह हुआ कि यूनिटेक ने टेलीनोर और स्वॉन के साथ एतिसालात के साथ जो सौदेबाजी की थी, उसमें उन्होंने इन्हीं खामियों का फायदा उठाया था। यही लोग तर्क दे रहे थे कि दूरसंचार कंपनियों के पास पर्याप्त स्पेक्ट्रम था और कीमत के कार्टेंलाइजेशन को रोकने के लिए नई फर्मों को लाया जाना चाहिए और अब यही लोग एक साल बाद इसके विपरीत तर्क देने को उतारू दिख रहे हैं।
एक कमिटी इस बात की सिफारिश कर सकती है कि विलय व अधिग्रहण के नियमों में बदलाव लाया जाना चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में व्यवहार्य के मुकाबले कई और नए खिलाड़ी आ रहे हैं।
हालांकि नए खिलाड़ियों ने बहुत कम स्पेक्ट्रम पाया है और अच्छे आकार वाले नेटवर्क के लिहाज से यह कम है, विलय व अधिग्रहण के नियमों में बदलाव से बड़ी दूरसंचार कंपनियां अपनी स्पेक्ट्रम की जरूरत पूरी कर सकेगी। लेकिन स्पेक्ट्रम की कमी का तर्क नए खिलाड़ियों के विरोध में दिया गया था। ऐसे में एक साल के अंदर ऐसा क्या बदला जिसका पहले आकलन नहीं किया जा सका था?
या 4.4 मेगाहट्र्ज से ज्यादा के स्पेक्ट्रम की कीमत पर नाटकबाजी को ही ले लीजिए जो कि शुरुआती दौर में लाइसेंस के साथ दिए गए थे – शुरुआत में दिए जाने वाली इस रकम के बाद वर्तमान नीति कहती है कि किसी कंपनी को ताजा स्पेक्ट्रम का आवंटन उसके ग्राहकों की संख्या के आधार पर होगा।
इस बाबत बनाई गई कमिटी का मत है कि ग्राहकों की संख्या वाला आधार त्याग दिया जाना चाहिए, उनका कहना है कि शुरुआती स्पेक्ट्रम के बाद वाले सभी स्पेक्ट्रम की नीलामी होनी चाहिए। मुमकिन है कि सरकार इसे स्वीकार कर लेगी। भारती-एयरटेल और वोडाफोन जैसी कंपनियां, जिन्हें अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मिला है, को ऐसे अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए बाजार आधारित कीमत चुकाने को कहा जाएगा।
चूंकि टीडीसैट ने कहा है कि वर्तमान ऑपरेटर मसलन भारती-एयरटेल को 6.2 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम लेने का अधिकार स्वत: नहीं है, ऐसे में नए लाइसेंसधारक मसलन रिलायंस, टाटा, स्वॉन आदि को 4.4 मेगाहट्र्ज से ज्यादा मिले स्पेक्ट्रम की कीमत क्या बाजार दर के हिसाब से ली जाएगी? या फिर वे 6.2 मेगाहट्र्ज तक मुफ्त में पाएंगे और इसके बाद मिलने वाले स्पेक्ट्रम की कीमत बाजार दर पर चुकाएंगे?
एक स्तर पर उत्तर स्पष्ट है – अगर भारती-एयरटेल ने 6.2 मेगाहट्र्ज तक स्पेक्ट्रम पाया है, ऐसे में रिलायंस, टाटा, स्वॉन आदि को यह मिलना चाहिए। लेकिन अब स्पेक्ट्रम आवंटन प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने का विचार है, न कि पहले की गड़बड़ी को स्थिर रखना है। साथ ही ग्राहकों की संख्या से जुड़ा हुआ मानदंड आज 4.4 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम पर लागू होता है।
चूंकि मामला विवादास्पद है, लिहाजा आप सोच रहे हैं कि इस बाबत फैसला सावधानीपूर्वक लिया जाना चाहिए। लेकिन सॉलिसिटर जनरल ने इस मसले पर अपनी राय पेश की है और जल्दी ही इस पर फैसला ले लिया जाएगा।
एक अन्य सवाल मंत्रालय को परेशान कर रहा है कि क्या रिलायंस, टाटा जैसी फर्मों को, जिसने 2003 में यूएएसएल लाइसेंस पाया था, विस्तार दिया जाना चाहिए। नए खिलाड़ी मसलन यूनिटेक, लूप और स्वॉन को 20 साल के लिए लाइसेंस मिला है, रिलायंस, टाटा का लाइसेंस हालांकि 2023 में समाप्त होगा यानी अगले 14 साल बाद।
तार्किक रूप से आप सोच रहे होंगे कि उन्हें विस्तार मिलना चाहिए क्योंकि उन्हें साल 2007 में जीएसएम सेवा शुरू करने की अनुमति मिली है। लेकिन यहां समस्या है, सरकार ने रिलायंस, टाटा को जीएसएम सेवा शुरू करने की अनुमति उनके मौजूदा यूएएसएल लाइसेंस के तहत ही दी है। वास्तव में यही तर्क डॉ. शर्मा और टीडीसैट में उनके सहयोगियों ने भी पेश किया था, जब उन्होंने इसे सही ठहराया था।
ऐसे में अगर यह मौजूदा लाइसेंस का हिस्सा है तो इसे कैसे विस्तारित किया जा सकता है। जीएसएस की अनुमति मिलने के वक्त कहा गया था कि मौजूदा यूएएस लाइसेंस की प्रभावी तारीख और अन्य सेवा शर्तें अपरिवर्तित रहेंगी। सरकार इस पर क्या कर रही है? सॉलिसिटर जनरल की राय केलिए इस मामले को उनके पास भेजे जाने का प्रस्ताव है!
चूंकि क्वात्रोकी के मामले में कानूनी अधिकारियों द्वारा पेश की गई राय सरकार के गले की फांस बन गई थी, ऐसे में आप सोच रहे होंगे कि सरकार ने इससे सबक लिया होगा। लेकिन कैसे, सरकार बनाने की प्रक्रिया के तहत यह मंत्रालय डीएमके की संपत्ति पर तैयार किया गया, ऐसे में शायद यह उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही होगा कि डॉ. मनमोहन सिंह इस पर रोक लगा पाएंगे।
