कुछ दिन पहले केंद्र सरकार ने अरविंद जाधव को नैशनल एविएशन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड (नैसिल) का नया चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त किया।
नैसिल के संचालन के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा के कर्नाटक कैडर के अधिकारी जाधव को तीन साल का समय दिया गया है। कंपनी के मुखिया में बदलाव का काम अचानक हुआ है।
एक अप्रैल 2008 से नैसिल के प्रमुख का कार्यभार संभाल रहे रघु मेनन ने पिछले महीने छुट्टी पर जाने का फैसला किया। खबरें ये भी हैं कि नागरिक विमानन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के साथ रघु मेनन के गंभीर मतभेद रहे हैं। जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, मेनन छुट्टी से नहीं लौटे। दीगर बात है कि उनका दो साल का कार्यकाल अभी बाकी था।
इस बीच, नागरिक विमानन मंत्रालय ने बैठकें आयोजित कीं और रघु मेनन के उत्तराधिकारी के तौर पर अरविंद जाधव की नियुक्ति का फैसला लिया। यह साफ नहीं था कि मंत्रालय की इच्छा पर कैबिनेट की नियुक्ति समिति मुहर लगाएगी या नहीं।
और अगर कैबिनेट की नियुक्ति समिति इसे हरी झंडी दिखा देती तो भी संदेह था कि आम चुनाव के दौरान लागू आचार संहिता का हवाला देकर चुनाव आयोग इस कदम का विरोध करेगा। अंतत: अरविंद जाधव की नियुक्ति की राह में इस तरह की कोई अड़चन सामने नहीं आई।
कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने इस प्रस्ताव को मंजूर कर लिया और चुनाव आयोग की तरफ से भी किसी तरह का निर्देश नहीं आया यानी न तो इस फैसले को टाल देने को कहा गया और न ही इस फैसले को लागू करने का निर्देश दिया गया। इस प्रक्रिया में सार्वजनिक क्षेत्र के एक उपक्रम के मुख्य कार्याधिकारी को तीन साल के लिए नियुक्त कर दिया गया।
इससे कई सवाल पैदा हुए हैं। क्या मनमोहन सिंह की सरकार ने पांच साल के कार्यकाल के आखिरी दिनों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में से एक का प्रमुख बदलने और नए प्रमुख की नियुक्ति की अनुमति दी?
ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या चुनाव आयोग ने ऐसे घटनाक्रम को नजरअंदाज किया और नागरिक विमानन मंत्री और मंत्रालय में तैनात उन अधिकारियों को नहीं लताड़ा जिन्होंने नैसिल में ऐसे बदलाव में मंत्री को सहयोग दिया था? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मिलना जरूरी है।
इससे भी बड़ी समस्या यह है कि चुनाव आयोग की आचार संहिता के प्रभावी रहने के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार फैसले लेने के सवाल पर असंगत रही है। उदाहरण के तौर पर कुछ मंत्री ज्यादा ही सतर्क रहे हैं और इस दौरान किसी बैठक में मुख्य अतिथि का आमंत्रण भी स्वीकार करने से परहेज करते रहे हैं।
मनमोहन सिंह ने भी मीडिया संपादकों के साथ बैठक का आयोजन अपने सरकारी आवास के बजाय सार्वजनिक सभागार में किया था। सरकार ने भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के नए चेयरमैन की नियुक्ति संबंधी प्रस्ताव पर कोई फैसला नहीं लिया है।
यहां तक कि मार्च महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़े जारी नहीं किए गए क्योंकि चुनाव आयोग ने इस सूचना को सार्वजनिक किए जाने के सरकारी प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं दिखाई। ऐसे में हम यह यह तर्क दे सकते हैं कि चुनाव आयोग को रूटीन वाले आंकड़े को जारी करने पर रोक नहीं लगानी चाहिए क्योंकि सामान्य परिस्थिति में ही ये आंकड़े सार्वजनिक किए जाते हैं।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पूरे मुद्दों पर पहुंच के मामले में चुनाव आयोग असंगत रहा है। अगर आचार संहिता की वजह से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को सार्वजनिक करने को टाल दिया गया तो फिर पीएसयू के नए प्रमुख की नियुक्ति के मामले में भी आपत्ति होनी चाहिए थी।
यह पता नहीं चल पाया है कि क्या सरकार ने अरविंद जाधव की नियुक्ति के मामले में चुनाव आयोग से अनापत्ति मांगी थी या नहीं। जहां तक इस चुनाव का संबंध है, चुनाव आयोग को इस मामले में अंधेरे में नहीं रखा गया होगा।
अगर ऐसा था तो फिर समस्या और भी गंभीर हो जाती है। सामान्य परिस्थिति में इस देश में हर पांच साल पर आम चुनाव होते हैं। हमारे पास ऐसी प्रणाली क्यों नहीं होनी चाहिए जिसमें यह सुनिश्चित हो सके कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद लिए जाने वाले सभी सरकारी फैसले बिना किसी अपवाद के चुनाव आयोग से पास हो सकें?
बेहतर विकल्प यह हो सकता है कि सरकार के अंदर ही एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जो चुनाव की घोषणा के बाद मंत्रियों द्वारा पेश प्रस्ताव की समीक्षा करे। 1991 में कैबिनेट सचिव के कार्यालय ने चुनाव की घोषणा होने के बाद चंद्रशेखर सरकार द्वारा पेश सभी प्रस्तावों की समीक्षा में बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इसने ऐसे विवादास्पद प्रस्तावों को रोक दिया था जिसमें कुछ कंपनियों को अनुबंध देने की बात कही गई थी। उसी समय इसने विदेशी बैंक में सोना गिरवी रखे जाने के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई थी ताकि अंतरराष्ट्रीय भुगतान दायित्व के मामले में भारत सरकार डिफॉल्टर न हो सके।
यह अच्छा विचार हो सकता है कि चुनाव आयोग भी इसी तरह की व्यवस्था बनाए जो कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद लागू हो। तब सरकार भी ज्यादा चौकस हो जाएगी क्योंकि नया निकाय इसके सभी फैसलों की समीक्षा करेगा। ऐसे में विवादास्पद फैसलों को तब तक टाला जा सकेगा जब तक कि चुनाव के बाद नई सरकार सत्ता न संभाल ले।
