साल 2004 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार सत्ता में आई तो शासन के शुरुआती कुछ ही महीनों में उसने नीतिगत मामलों में सुझाव देने के लिए कई आयोगों का गठन कर दिया।
इन आयोगों की अध्यक्षता का भार उन लोगों पर डाला गया जिन्हें लोग पहचानते हैं, यह अलग बात है कि कुछ मामलों में वे विवादास्पद रहे हों।
साथ ही इन आयोगों के सदस्य के तौर पर भी ऐसे लोगों को शामिल किया गया जिनकी संबंधित मामलों में पेशेवराना साख हो।
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले चार सालों के दौरान विभिन्न आयोगों के अध्यक्षों, सदस्यों और सदस्यों ने संबंधित मसलों पर रिपोर्ट तैयार करने, प्रधानमंत्री के लिए पत्र तैयार करने और सुझाव देने के लिए काफी प्रयास किए हैं और इस दिशा में काफी काम भी किया है।
अब जब सरकार अपने पंचवर्षीय कार्यकाल की समाप्ति की कगार पर खड़ी है तो उसे यह लेखा जोखा तैयार करना चाहिए कि इन आयोगों के गठन से क्या क्या नतीजा निकला है।
क्या इन आयोगों के गठन से सरकार को कोई ठोस बुनियाद मिलती है जिसके बल पर वह बुनियादी नीतिगत परिवर्तनों की ओर ध्यान दे सके।
या फिर ये महज उन्हीं सरकारी प्रयासों में शुमार होने लायक हैं जिनके लिए किया तो काफी कुछ जाता है पर उसका परिणाम कम ही निकलता है।
मीडिया में इस विषय पर जितना कुछ पेश किया गया है उससे मेरा तो मानना यही है कि इन प्रयासों का कोई खास नतीजा नहीं निकल पाया है।
इन आयोगों की ओर से जितने उपयुक्त सुझाव दिए गए हैं उनसे कहीं अधिक तो यही देखने को मिला है कि आयोग के सदस्य सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को लेकर नाखुश रहे हैं और इस वजह से उन्होंने इस्तीफा दिया है।
कई मामलों में ऐसा देखने को मिला है कि आयोग के सदस्यों को इस बात की नाराजगी रही है कि अध्यक्ष की ओर से उनके विचारों को महत्त्व नहीं दिया गया।
कुल मिलाकर कहें तो जितना ध्यान समस्याओं और उसके समाधान की ओर दिया जाना चाहिए था उससे अधिक प्रोटोकॉल और स्थापना को दिया गया।
मैं मानता हूं कि मैंने कई आयोगों की कार्यप्रणाली और उनकी रिपोर्टों का अध्ययन नहीं किया है और कुछ की ही बहुत गहनता के साथ जांच की है, पर जिन आयोगों के बारे में मैंने लिखा है या फिर उनका अध्ययन किया है, उस हिसाब से यह तो कहा ही जा सकता है कि इनमें कुछ बदलाव की आवश्यकता है।
सरकार जिन आयोगों का गठन करती है उनसे क्या हासिल होता है, इस बारे में टिप्पणी करने के लिए तीन मुद्दों को ध्यान में रखना चाहिए। पहला तो यह कि जितनी संख्या में आयोगों का गठन किया जा रहा है, वह काफी अधिक है।
दूसरी बात यह है कि इन आयोगों की ओर से जो सुझाव दिए जाते हैं वे किसी वैश्विक विचारधारा के अनुकूल नहीं होते हैं। हां इतना जरूर है कि वैश्विक विचारधारा के अनुकूल नहीं होने के कारण कम से कम इन सुझावों को राजनीतिक रूप से तटस्थ तो कहा ही जा सकता है।
तीसरी बात यह है कि ऐसे आयोगों की ओर से काफी संख्या में सुझाव तो दिए जाते हैं पर उनमें से कुछ ही ऐसे होंगे जो किसी विषय पर सामान्य विचारधारा से हटकर हों। यानी इन आयोगों की ओर से सुझाव दिए जाते हैं अक्सर वे उन्हीं विचारों से मेल खाते होते हैं जिनका विभिन्न मंचों पर जिक्र किया जाता है।
हालांकि सीधे सीधे यह कहना भी गलत होगा कि अभी मैंने जिन बातों का उल्लेख किया वे सभी आयोगों के कमजोर पक्ष को ही उजागर करते हैं इनमें से कुछ पहलू ऐसे भी हैं जो उनकी मजबूतियां हैं।
पहले हम उनकी कमजोरियों का जिक्र करेंगे। पहले और तीसरे बिंदु में हमने जिन बातों का उल्लेख किया है उनसे यह साफ हो जाता है कि आयोगों की ओर से सुझाए गए पक्षों को उतना महत्त्व क्यों नहीं दिया गया है जितना मिलना चाहिए।
अगर किसी मसले पर समाधान के लिए उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया है तो उससे कुछ ऐसे सुझावों की उम्मीद की जाती है जिनका खास महत्व हो। पर अगर ये आयोग भी उन्हीं सुझावों की ओर इशारा करें जो आए दिन अखबारों के संपादकीय पन्नों पर छपते हैं तो फिर उन्हें लेकर क्या उत्साह रह जाएगा?
हालांकि जब तीसरे बिंदु की चर्चा करें तो लगता है कि इन आयोगों का गठन पूरी तरह से व्यर्थ नहीं गया है। आयोग अगर कोई सुझाव पेश करता है तो उसके लिए सबसे उपयुक्त यही रहेगा कि वे अपने सुझावों को आम लोगों के बीच आलोचना के लिए खुला छोड़ दें।
किसी सुझाव पर अमल करने से कितना फायदा होगा और कोई सुझाव कितना व्यवहारिक है इसकी जांच के लिए जरूरी है कि विभिन्न पेशेवरों और पक्षों की ओर से इसकी जांच पड़ताल की जाए।
यह अलग प्रश्न है कि संप्रग सरकार ने जिन आयोगों का गठन किया है उन्हें जांच पड़ताल से गुजरना पड़ा है या नहीं पर इतना तो जरूर है कि किसी सुझाव की व्यवहारिकता का पता लगाने के लिए उसका कई लोगों के निगाहों से होकर गुजरना जरूरी है।
भले ही संप्रग के कार्यकाल के दौरान विभिन्न आयोगों ने जो सुझाव दिए हैं उनमें से काफी कम पर ही अमल किया गया है पर फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि आयोगों के सुझाव से हमें कई नीतिगत विकल्प मिलते हैं और अगर इनकी आलोचना की जा सकती है तो केवल इस आधार पर कि राजनीतिक रूप से व्यवहारिक नहीं हैं।
चाहे उत्पादन क्षेत्र की बात हो, या फिर शिक्षा की या फिर कामगारों की सुरक्षा का मसला हो आयोग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह आने वाली सरकार के लिए राहें आसान करे।
यानी अगली सरकार को यह पता हो कि इन समस्याओं के निपटारे के लिए उन्हें कौन कौन से कदम उठाने चाहिए।
पर यह एक ऐसा मसला है जहां हमें देश की राजनीतिक खामियों का पता चलता है। अगर ऐसा होता है कि अगली सरकार कांग्रेस और उसके गठबंधन की नहीं बनती है तो निश्चित तौर पर इन आयोगों के सुझावों को खारिज कर दिया जाएगा।
नई सरकार अपने हिसाब से आयोगों का गठन करेगी और नए आयोग भी सुझाव देने के लिए उन्हीं प्रक्रियाओं से गुजरेंगे और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि इस बार भी जो सुझाव दिए जाएंगे वह पहले की तरह ही होंगे।
ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई पार्टी अपनी विरोधी पार्टी की ओर से गठित किए गए आयोग के सुझाव को हू-ब-हू मान ले, भले ही वह कितना भी सही क्यों न हो। उन सुझावों को बस इसलिए खारिज किया जाना तय है क्योंकि वह विरोधी खेमे द्वारा गठित आयोग की ओर से आए हैं।
देश जिस आर्थिक अस्थिरता के हालात से गुजर रहा है ऐसे में फिर से एक ही समस्या को सुलझाने के लिए दोबारा से आयोग का गठन करना कहीं से भी उचित नहीं है।
और न ही इतना समय है कि इन समस्याओं को सुलझाने के लिए इतने लंबे समय तक इंतजार किया जा सके।
कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही यह अपेक्षा है कि वे इस मसले पर परिपक्वता दिखाएं। जैसी जरूरत हो उस हिसाब से कदम उठाते हुए समस्याओं के समाधान के लिए वे नीतिगत फैसले लें और इस पचड़े में न पड़ें कि दोबारा से आयोगों का गठन किया जाए।
इन पार्टियों से उम्मीद है कि वे आगामी चुनाव प्रचारों में स्पष्ट रूप से उन समस्याओं के निपटारे का जिक्र करें जिनसे देश ग्रसित है।
