वैश्विक वित्तीय संकट से ‘ब्रांड इंडिया’ को जोरदार झटका लगा है। जैसा कि पहले माना जा रहा था उससे भी बढ़कर भारत में वित्तीय एकता देखने को मिली है और यही वजह है कि इस वित्तीय संक्रमण का देश पर असर उम्मीद से भी अधिक दिख रहा है।
देश पर इस वित्तीय संकट का खतरा इसलिए भी अधिक लग रहा है क्योंकि अगर एक भी नीतिगत फैसला गलत जाता है तो यह बीमारी और खतरनाक शक्ल अख्तियार कर सकती है।वैश्विक संकट के इस दौर में विभिन्न देशों को यह सबक मिल रहा है कि नीति निर्माताओं को बाजार को भरोसा दिलाने के लिए पहल करने की जरूरत है, उन्हें पहले खुद में विश्वास पैदा करने की जरूरत है।
सरकारों को अब यह पता चल गया है कि लचर नीतिगत फैसलों से बाजार में विश्वास पैदा नहीं किया जा सकता और न ही वित्तीय संकट के झटकों से देश को उबारा जा सकता है। अगर बाजारों में फिर से विश्वास पैदा करना है और अर्थव्यवस्था में स्थिरता लानी है तो इसके लिए जरूरी है कि कड़े नीतिगत फैसले लिए जाएं, सख्त मौद्रिक नीतियां तैयार की जाएं।
पश्चिमी वित्तीय बाजारों में धीरे धीरे भरोसा लौटने लगा है और इसकी वजह रही है एक एक कर महत्त्वाकांक्षी कदम उठाना। इसकी शुरुआत ब्रिटेन में देखने को मिली थी और उसके बाद यूरोप और फिर अमेरिका भी इस दौड़ में शामिल हो लिए।
गत सोमवार को भारतीय नीति निर्माताओं ने भी ब्याज दरों में कटौती कर वित्तीय प्रणाली में जान फूंकने की शुरुआत कर दी। इस कदम के बाद यह कहा जा सकता है कि भारत ने भी इस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस ली है और अब वह भी सख्त कदम उठाने से नहीं चूकेगा।
पर सवाल यह है कि क्या इतने भर से काम चल जाएगा? संकट से निपटने के लिए भारत को और कौन कौन से कदम उठाने होंगे? अगर सरकार मौद्रिक नीतियों के मोर्चे पर बहुत सख्त कदम उठाना नहीं चाहती तो फिर इसका एक ही तरीका है कि वित्तीय क्षेत्र में कुछ अधिक कदम उठाने पड़ेंगे।
इसे दूसरे शब्दों में समझने की कोशिश करते हैं, अगर वित्तीय प्रणाली में विश्वास मजबूत नहीं है तो मौद्रिक नीतियों में जरा सी भी ढील न केवल वित्तीय संकट से उबारने में विफल रहेंगी बल्कि अर्थव्यवस्था को जोखिम में भी डाल सकती हैं।सबसे पहले जरूरी है कि हरेक वित्तीय संस्थान की समस्याओं को सुलझाया जाए।
कोशिश यह होनी चाहिए कि किसी भी भारतीय बैंक का क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप (सीडीएस) 300 आधार अंकों से ज्यादा न होने पाए। सीडीएस के बढ़ने से यह अपने आप ही साफ हो जाता है कि विदेशी निवेश को लेकर संकट उत्पन्न हो चुका है।
इस वजह से आरबीआई के रिजर्व में से विदेशी मुद्रा संसाधन पैदा करना वरीयता सूची में शामिल होगा। आरबीआई ने बाजार में रुपये की कमी को दूर करने के लिए कदम उठाए हैं पर अब उसे यह कोशिश भी करनी पड़ेगी कि विदेशी मुद्रा की उपलब्धता भी बढ़े।
इसका एक तरीका है कि घरेलू वित्तीय संस्थानों के लिए विदेशी मुद्रा की नीलामी की जाए ताकि वे या तो खुद की जरूरतें पूरी कर सकें या फिर अपने ग्राहकों की मदद कर सकें जिन्हें विदेशी मुद्रा फंडिंग का दबाव झेलना पड़ रहा है। जब यूरोप में डॉली की कमी आई तो अमेरिकी फेडरल रिजर्व और यूरोपीय केंद्रीय बैंक ने इसके लिए कदम उठाए और बड़े पैमाने पर स्वैप योजनाएं शुरू की जिससे यूरोपीय बाजारों में डॉलर की कमी खत्म हो गई।
आरबीआई को भी जल्द ही कुछ ऐसा ही कदम उठाना चाहिए ताकि नकदी की कमी न होने दी जाए। आरबीआई ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को मुश्किल के दिनों के लिए बचा कर रखा था और शायद इससे ज्यादा मुश्किल हालात पैदा नहीं हो सकते, कहने का मतलब है कि अब उस भंडार का इस्तेमाल का वक्त आ गया है।
अगर ये कदम भी पर्याप्त नहीं जान पड़ते तो सरकार को घरेलू वित्त संस्थानों के विदेशी मुद्रा ऋण की गारंटी लेनी पड़ सकती है। भारत इस समय में वित्तीय संस्थानों के नुकसान के तले दबे होने का खतरा नहीं उठा सकता है।
हर वित्तीय संस्थान को संकट से उबारने के बाद और बाजार में विश्वास पैदा करने के बाद बैंकों के लिए यह जरूरी होगा कि वे जल्द ही अपने पूंजी पर्याप्तता अनुपात को बढ़ाकर 15 से 18 फीसदी तक ले जाएं। अगर इस अनुपात को इस सीमा तक पहुंचाने के लिए सरकार को अतिरिक्त पूंजी की व्यवस्था करनी पड़े तो उस पर भी शीघ्र ही गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
जब इस संकट से निपट लिया जाता है तो सरकार को इस पूंजी को विभिन्न तरीकों से वापस करने की कोशिशें की जा सकती हैं। अर्थव्यवस्था के कमजोर होने की स्थिति में तय है कि बैंकों की गैर निष्पादित संपत्ति भी बढ़ेगी और इस वजह से जरूरी है कि बाजार में विश्वास पैदा करने के अलावा पूंजी पर्याप्तता अनुपात बढ़ाया जाना भी जरूरी है।
अगला कदम यह होना चाहिए कि सभी प्रमुख बैंक निवेशकों और लोगों को भरोसा दिलाने के लिए पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करें। एक तो बाजार का विश्वास पहले से ही कमजोर हो चुका है और ऐसे में अगर अनिश्चितता भी बनी रहती है तो इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता।
बैंकों को चाहिए कि जिन विषयों को लेकर सबसे अधिक फिक्रमंदी है वे उनके बारे में आम लोगों को जानकारियां उपलब्ध कराएं जैसे विदेशी मुद्रा की स्थिति, बैंक की जिम्मेदारियां, होलसेल फंडिंग की स्थितियां आदि। आरबीआई के निरीक्षण में अगर इन विषयों पर बैंक पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करें तो ऐसे संकट की घड़ी में यह बहुत फायदेमंद हो सकता है।
और आखिर में विनिमय दर और मौद्रिक नीतियों का जिक्र करते हैं। आरबीआई को विनिमय दरों में किसी तरह की छेड़छाड़ से परहेज करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से बड़ी तेजी से बाजार में नकदी की कमी पैदा हो सकती है।
और वह भी ऐसे समय में जब आरबीआई अर्थव्यवस्था में नकदी की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए हर संभव कोशिशें कर रही है। बेहतर तो यही होगा कि ऐसे समय में आरबीआई विदेशी मुद्रा भंडार के इस्तेमाल का रास्ता अपनाए न की रुपये को संभालने की कोशिश करे।
मौद्रिक नीतियों की बात करें तो आरबीआई ने ब्याज दरें कम की हैं और बाजार में नकदी बढ़ाने (रुपये के संदंर्भ में) की कोशिशें की जा रही हैं। कोशिश यह भी है कि देश में पूंजी निवेश को बढ़ाया जाए और देश से पूंजी की निकासी कम से कम हो। इसके लिए विदेशी मुद्रा के जमा खातों पर ब्याज दरों को भी बढ़ाया गया है।
हालांकि मौजूदा समय में डॉलर के मुकाबले रुपया भी रिकार्ड गिरावट से जूझ रहा है जो कि चिंता का विषय है, पर फिलहाल इस विषय में कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं है। वित्तीय संस्थानों और वित्तीय प्रणालियों में विश्वास लौटाना वरीयता सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए।