प्रधानमंत्री ने हाल में कहा था कि लोकसभा एवं राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के विषय पर चर्चा शुरू करने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री के अनुसार अलग-अलग समय पर चुनाव होने से देश में हमेशा मतदान जैसा माहौल बना रहता है, जिससे प्रशासनिक असुविधाओं के साथ ही आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में भी बाधा पहुंचती है।
बात यहां तक तो ठीक है, लेकिन एक ठोस सवाल यह है कि लगभग दो अरब लोग साथ-साथ मतदान करेंगे तो इसके लिए पुख्ता व्यवस्था कैसे हो पाएगी। यह भी मान लें एक निश्चित अवधि में, मसलन 12 हफ्तों के दौरान, मतदान की प्रक्रिया चलती है तो भी क्या इसका प्रबंधन करना आसान होगा? क्या इसमें प्रशासनिक एवं मतों की गिनती आदि में आने वाली दिक्कतों का अंदाजा लगाया जा सकता है? चुनाव आयोग इन विषयों पर विस्तार से सब कुछ बतानें की स्थिति में होगा। दूसरी तरफ एक विकल्प से दूसरे विकल्प की तरफ से बढऩे पर होने वाले कुछ नुकसान से जुड़ा पहलू भी उठाया जा सकता है। आर्थिक सुधार तेज गति से नहीं होने से अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचता है? अर्थशास्त्री इस पर विस्तार से बता पाने की स्थिति में होंगे।
निष्क्रियता का बहाना
तो क्या यह व्यावहारिक क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों बनाम उत्पादन नुकसान से जुड़ा विषय है, जो बाद में आर्थिक गतिविधियों में ठहराव का कारण बनता है? क्या यह स्थिति ठीक है? अगर ऐसा नहीं है तो स्पष्ट नजर आने वाली एक मुश्किल परिस्थिति का दूसरा विकल्प क्या है? पिछले दो दशकों से मैं लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव साथ कराने की वकालत करता रहा है। मेरे कई सुझाव प्रशासनिक, राजनीतिक एवं संवैधानिक आधारों पर खारिज किए जा चुके हैं। मैं इन आपत्तियों की समीक्षा करना चाहूंगा।
पहली बात तो सभी प्रशासनिक पहलू से जुड़ीआपत्ति संसाधनों की उपलब्धता से जुड़ी होती हैं। धन, मानव संसाधन और तकनीक की मदद से इनका समाधान किया जा सकता है। आधार परियोजना की तरह पांच वर्षों का इसी तरह का अभियान प्रशासनिक चुनौतियों से निजात दिला सकता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि राजनीतिक आपत्ति मतदाताओं के विरोध की सीमा से जुड़ा है। राजनीतिक दलों का मानना है कि मतदाता सत्तासीन दलों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित होंगे, खासकर तब जब उनमें कोई केंद्र में सत्तारूढ़ होगा। हालांकि पहली आपत्ति के संबंध में साक्ष्य पूरी तरह निष्कर्ष पर पहुंचाने वाले नहीं हैं। इसके बजाय यह दूसरी चिंताओं की तरफ इशारा करता है। मतदाता को नासमझ नहीं माना जा सकता। वे निवर्तमान सरकारों को सबक सिखाने के साथ ही लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव के बीच अंतर और महत्त्व को भली-भांति समझते हैं। तीसरी आपत्ति सांविधानिक है, जो अधिक गंभीर है। इनके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी, जो कतई आसान काम नहीं होता है। अंत में मामला इस प्रश्न पर आकर टिकेगा कि साथ-साथ चुनाव कराने से संविधान के मूलभूत ढांचे में बदलाव आएगा या नहीं? मुझे ऐसा नहीं लगता, लेकिन कई दूसरे लोगों को ऐसा लगता है। केवल उच्चतम न्यायालय ही इसका निर्णय ले सकता है।
अलग हो सोच
तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद हमें एक अच्छा एवं अनोखा समाधान चाहिए नहीं तो अनुच्छेद 370 की तरह ही हम इस विषय पर भी बहस करते रह जाएंगे। अगर ऐसा कोई समाधान निकलता है तो इसके तीन हिस्से हो सकते हैं। सबसे पहले चुनाव आयोग के पास ऐसी तकनीक उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे वह एक साथ, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कार्य संपन्न कर सके। इसके साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल मौजूदा 60 महीनों से बढ़ाकर 66 महीने किया जाना चाहिए। यह अतिरिक्त छह महीने चुनावों- दो महीने लोकसभा और चार महीने विधानसभा- के लिए होना चाहिए।
तीसरे उपाय के रूप में एक क्षेत्रीय संसद की व्यवस्था होनी चाहिए, जो लोकसभा के सदस्यों का चुनाव कर सके। मैं इसके लिए भी पिछले दो दशकों से जोर देता रहा हूं। क्षेत्रीय संसद का चुनाव राज्य विधानसभाओं का एक समूह करेगा। इस क्षेत्रीय संसद में शुद्ध स्थानीय हितों को जगह मिलेगी क्योंकि लोकसभा सांसद अपनी भूमिका बिल्कुल अलग रूप में देखेंगे। ऐसी व्यवस्था तैयार करने के लिए यूरोपीय संसद से सीख ली जा सकती है। अंत में, गहरे राजनीतिक सुधार को परेटो सिद्धांत के चश्मे से देखना उपयुक्त नहीं माना जा सकता है और कम से कम इसे परेटो सिद्धांत के चश्मे से देखना तो और गलत बात होगी। 19वीं शताब्दी में इटली के अर्थशास्त्री विलफ्रेडो परेटो ने कहा था कि एक जगह विकल्प से दूसरे विकल्प की तरफ बढऩा तभी सही माना जा सकता है जब इस प्रक्रिया में किसी भी व्यक्ति को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता है।
एक छोटी आबादी को छोड़कर दूसरे समूहों के लिए इस सिद्धांत का लक्ष्य हासिल करना लगभग असंभव है। दुर्भाग्य से सभी गैर-सुधारवादी इसी मानदंड का पालने करने की तरफ झुकाव रखते हैं। यह निष्क्रियता एवं पूर्ण बरबादी के लिए तैयार नुस्खे जैसा ही है।
