बतौर अगले अमेरिकी राष्ट्रपति,क्या लोग बराक ओबामा से जरूरत से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे हैं? कई लोगों के मुताबिक वही इकलौते शख्स हैं, जो मुसीबत की इस घड़ी में अमेरिका का बेड़ा पार लगा सकते हैं।
लोगों की उम्मीदों पर सवाल उठाने से पहले बता दूं कि मैं मैकेन पर ओबामा की जीत को कम करके कतई नहीं आंक रहा हूं। उन्होंने सही मुद्दों को उठाया, बेहतर तरीके से अपना प्रचार अभियान चलाया और अपनी काबिलियत और लोगों के साथ के बूते पर चुनाव जीता।
इसलिए हो सकता है कि आने वाला कल उन्हें पहले अफ्रीकी अमेरिकी राष्ट्रपति से कहीं ज्यादा अहम बातों के लिए याद करेगा। फिर भी हमें इस बारे में तो सोचना ही होगा कि एक शख्स एक मुल्क को कितना बदल सकता है।
आज अमेरिका की सूरत बिगड़ चुकी है। माना कि इस दशक में अमेरिका ने हर साल करीब तीन फीसदी की रफ्तार से तरक्की की, जो इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी बात है। लेकिन इस रफ्तार को हासिल करने की खातिर उसने अपने राष्ट्रीय और व्यक्तिगत कर्जों को उस स्तर तक बढ़ा दिया, जहां उसे संभालना भी मुश्किल हो गया (सब प्राइम तो याद ही होगा)।
एक आंकड़े की मानें तो अगर कर्ज का बाजार इतना नहीं बढ़ा होगा, तो उसकी विकास की रफ्तार सिर्फ 1.3 फीसदी पर सिमट जाती। साथ ही, अब तक तो अमेरिका की सभी कंपनियों के कुल मुनाफे का 40 फीसदी हिस्सा तो केवल वित्त सेक्टर से आता था, लेकिन अब यह सेक्टर भी डूब गया है। वॉल स्ट्रीट में आई इस गिरावट का असर तो आम बाजार में होने वाली खरीदारी पर पड़ेगा ही।
दूसरी तरफ, आज एक आम अमेरिकी के हिस्से में आने वाला ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, एक जापानी के मुकाबले दोगुना और एक यूरोपीय की तुलना में डेढ़ गुना है। अगर ओबामा ने उत्सर्जन को मिसाल के तौर पर जर्मनी के बराबर भी लाने की कवायद पर मुहर लगा दी, तो इससे अमेरिकी उपभोग के तरीके जबरदस्त बदलाव आना तय है।
इससे वहां तेल के इस्तेमाल में भी जबरदस्त बदलाव आएगा। साथ ही, अमेरिकी स्वास्थ्य सेवाओं पर भी काफी खर्च करते हैं। अमेरिकी जीडीपी के छठे हिस्से के बराबर वहां के लोग स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं।
यूरोप से तुलना करें तो एक आम अमेरिकी, एक यूरोपीय के मुकाबले करीब दोगुना ज्यादा खर्च करता है, जबकि यूरोपीय मुल्कों में औसत आयु अमेरिका से काफी ज्यादा है। इस पैटर्न को बदलना काफी मुश्किल साबित होगा।
ऊपर से आज अमेरिकी बुनियादी ढांचे की हालत ज्यादातर विकसित मुल्कों के मुकाबले काफी बुरी है। इसलिए इसमें भी भारी निवेश की जरूरत होगी। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए लग तो यही रहा है कि आज वहां व्यवस्था को तुरंत सुधार की जरूरत है।
सुधार का मतलब यह है कि अब लोगों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी ज्यादा पैसे बचाने होंगे और अपने खर्चों पर लगाम कसनी होगी, ताकि उन्हें विदेशों से कर्ज न लेना पड़े। वैसे, अब उसके लिए कर्ज भी लेना आसान नहीं होगा।
दरअसल, अब अमेरिकी सरकार के निवेश दस्तावेजों को खरीदने चीन की दिलचस्पी कम से कम होगी क्योंकि वह आजकल अपने स्थानीय उपभोग में इजाफा करने और बचत कम करने में जुटा हुआ है। ओबामा ने स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, गैर उत्पादक सरकारी खर्चों में कटौती, जलवायु परिवर्तन और तेल पर निर्भरता कम करने जैसे बड़े मुद्दों को तरजीह दी है।
इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन इस वजह से अमेरिकियों को अपनी जीवनशैली को बदलना होगा। साथ ही, ऐसा करना उन्हें उनके देश के लिए अपनी उम्मीदों को भी कम करने के बराबर होगा। अगर ऐसा हुआ तो अंत में हमारे सामने एक स्वस्थ व्यवस्था खड़ी होगी, लेकिन इस बदलाव से लोगों को दर्द भी होगा।
जोखिम यह है कि कहीं इस वजह से ओबामा को मिल रहा लोगों का साथ ही खत्म न हो जाए। आपको तो याद ही होगा कि 1979 में आयातित तेल पर मुल्क की निर्भरता कम करके ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश की जिमी कार्टर की बात ने अगले चुनाव में उनसे राष्ट्रपति की कुर्सी छीन ली थी।
माना कि ओबामा शब्दों का इस्तेमाल कार्टर से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से करते हैं, लेकिन अमेरिकियों को ज्ञान बांचना अच्छा नहीं लगता है। इसलिए ओबामा की असली परीक्षा तभी होगी, जब वह अपने बदलाव के वादों को पूरा करने के लिए कदम उठाएंगे।