सरकार ने उर्वरक के क्षेत्र में हाल ही में जो नीतिगत पहल की थी, उसके बारे में लग रहा था कि इस पर काफी सोच विचार किया गया लेकिन इसके बावजूद यह क्षेत्र अब भी कई समस्याओं से जूझ रहा है।
यह उर्वरक ही नहीं बल्कि समूचे कृषि क्षेत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। जहां उर्वरक का घरेलू उत्पादन या तो स्थिर हो गया है या फिर गिरा है, वहीं मांग में बढ़ोतरी हो रही है। इस वजह से उर्वरक की उपलब्धता और मांग के बीच की खाई चौड़ी हो रही है तथा रिकॉर्ड आयात की जरूरत बढ़ गई है।
एक दशक से उर्वरक क्षेत्र में कोई नया निवेश देखने को नहीं मिला है और इस वजह से स्थापित उत्पादन क्षमता कुल मिलाकर स्थिर है। स्वास्थ्य और जमीन की उर्वरता को बरकरार रखने के लिए विटामिन व खनिज तत्व मिश्रित उर्वरक की जरूरत अब भी पूरी नहीं हो पा रही है।
उर्वरक पर सब्सिडी बढ़कर लागत के 80 फीसदी तक पहुंच गई है क्योंकि फरवरी 2002 से अब तक खुदरा कीमतों में बदलाव नहीं आया है। सब्सिडी भुगतान में सरकार के असफल होने (जिसमें बकाया भी शामिल है) की वजह से उर्वरक बनाने वाली इकाइयों में नकदी की कमी हो गई है।
इन मुद्दों को सुलझाने की खातिर नीति बनाने के स्तर पर किया गया हस्तक्षेप अब तक कोई रंग नहीं ला पाया है, जो खराब स्थिति को रेखांकित करता है।
घरेलू इकाइयों द्वारा उत्पादित उर्वरक के लिए सब्सिडी तय करने की खातिर आयात कीमत पर आधारित व्यवस्था बनाने का हाल का फैसला मुख्य रूप से उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए ताजा निवेश को आकर्षित करने के लिए लिया गया था।
उर्वरक उद्योग के लिए यह प्रणाली वास्तव में काफी फायदेमंद लगती है क्योंकि घरेलू उत्पादन लागत के मुकाबले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उर्वरक की कीमत ऊंची है और यह सक्षम उत्पादकों के लिए अच्छा प्रतिफल सुनिश्चित करती है।
लेकिन कच्चे तेल की गिरती कीमत की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरक की कीमत में नरमी आ गई है और इस वजह से यह फायदा कुछ हद तक कम हो गया है।
वास्तव में, इस साल सब्सिडी के तौर पर सरकार पर एक लाख करोड़ रुपये का भार हो गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमतें गिरी हैं और इसके परिणामस्वरूप आयातित उर्वरक पर कम सब्सिडी के भार के बाद भी सब्सिडी केकुल भार में कमी आने की सरकारी उम्मीद अभी पूरी नहीं हो पाई है।
आंशिक रूप से ही सही रुपये बनाम डॉलर में गिरावट का मसला समाप्त हो चुका है, इससे मिलने वाला फायदा भी जाता रहा है।
हाल ही में लागू की गई समान भाड़ा नीति (जिसके तहत वास्तविक किराए का भुगतान किया जाता है ताकि छोटे से छोटे जगह पर भी उर्वरक की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके) भी इस प्रयोजन को पूरा नहीं कर पाई है।
माल भाड़े के आंकड़ों को अद्यतन करने का काम काफी लंबा है यानी इसमें काफी समय लग रहा है, लिहाजा केवल रेल किराया ही वास्तव में इंडस्ट्री को भुगतान किया जा रहा है।
रेलवे वैगन से लेकर डीलर के गोदाम तक पहुंचाए जाने में लगने वाले माल भाड़े का भी भुगतान नहीं किया जा रहा है। हाल ही में जमीन की सेहत बनाए रखने के लिए संतुलित खाद के इस्तेमाल की बाबत कुछ कदम उठाए गए हैं।
इसमें शामिल है तत्वों पर आधारित सब्सिडी। इसके तहत उर्वरकों में जिंक, सल्फर, आयरन, मैगनीज और इन जैसे दूसरे तत्वों की मिलावट और इस बाबत होने वाले अतिरिक्त खर्च शामिल हैं।
हालांकि ऐसे कदम नकदी की किल्लत और उर्वरक सेक्टर में निवेश लायक स्थिति में सुधार न होने की वजह से उत्साहजनक नहीं रहे हैं।
इस साल रेकॉर्ड 70 हजार करोड़ रुपये के आवंटन के बावजूद उर्वरक सब्सिडी के तौर पर बकाए का भुगतान अभी तक नहीं हो पाया है, जो समस्या के मूल में है। (इसमें बजट में रेखांकित 30986 करोड़ रुपये की सब्सिडी और पूरक मांग के तहत 36863 करोड़ रुपये शामिल है)।
अंतरराष्ट्रीय कीमत में गिरावट के बावजूद वास्तविक सब्सिडी भुगतान एक लाख करोड़ रुपये को पार करने की संभावना है और ऐसे में बकाया राशि अगले वित्त वर्ष में ले जायी जा सकती है।
इन चीजों के परिणामस्वरूप फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया का अनुमान है कि साल 2007-08 में देश में यूरिया का उत्पादन 5.4 फीसदी और फास्फेट का उत्पादन 16.3 फीसदी गिरा है। दूसरी तरफ इस दौरान उर्वरक के उपभोग में 4.2 फीसदी का उछाल आया है।
इसी तरह यूरिया का आयात साल 2007-08 में रिकॉर्ड 69.3 लाख टन पर पहुंच गया है जबकि फास्फेट 23 लाख टन पर। साल 2004-05 में इन दोनों उर्वरकों का आयात महज 6 लाख टन के स्तर पर था। पोटाश के मामले में पहले की तरह अभी भी हम पूरी तरह आयात पर निर्भर हैं।
इस साल उर्वरकों का कुल इस्तेमाल 7 फीसदी के स्तर पर पहुंच जाने का अनुमान है। घरेलू मोर्चे पर यूरिया के उत्पादन में 2 फीसदी की मामूली बढ़ोतरी जबकि फास्फेट उर्वरक के उत्पादन में 12.5 फीसदी की गिरावट देखी गई है।
ऐसे में समय आ गया है जब सरकार को इन सच्चाइयों को सामने रखकर अपनी नीतियों में बदलाव करना चाहिए। सही तरीका यही हो सकता है कि इस क्षेत्र को पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए और सब्सिडी सीधे किसानों की दी जाए।