लंबे समय से प्रकाशक मुझ पर पुस्तक लिखने का दबाव बनाते रहे हैं और मैं यही बहाना बनाता हूं कि संपादक पद पर रहते हुए किताब लिखते हैं। सभी संपादकों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह बात राजनेताओं पर भी लागू होती है, वे भी सत्ता में रहते हुए या उससे बाहर होने के बाद भी किताब लिखते हैं। कांग्रेस के सलमान खुर्शीद ने ऐसा ही किया और मीडिया को चर्चा का मसाला मुहैया कराया।
लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष में रहते हुए अपने संस्मरण लिखे। कांग्रेस के कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, मनीष तिवारी, प्रणव मुखर्जी (हालांकि उन्होंने कुछ खंड राष्ट्रपति भवन में रहते हुए लिखे) तथा कई अन्य लोगों ने अपनी किताबें लिखीं। शशि थरूर और जयराम रमेश का लेखन इतना अधिक है कि गिन पाना भी मुश्किल है।
बहरहाल, सलमान खुर्शीद सुर्खियों में हैं। आपको उनकी किताब पढऩे की जरूरत भी नहीं, न ही उसका नाम (सनराइज ओवर अयोध्या) याद रखने की। अब इस पर बहस होगी, इसे इतिहास में याद रखा जाएगा और शायद उस एक पंक्ति के कारण लोग उसे खरीदेंगे जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना आईएसआईएस या इस्लामिक स्टेट से की है। इस बीच राहुल गांधी ने आग में घी डाल दिया। उन्होंने हिंदू धर्म और हिंदुत्व के फर्क को रेखांकित किया। क्या ङ्क्षहदू धर्म आपको अखलाक जैसे किसी व्यक्ति को मारना सिखाता है? क्या हिंदू धर्म अल्पसंख्यकों से घृणा करना सिखाता है? अच्छे प्रश्न हैं। उत्तर वही होगा जो वह सुनना चाहते हैं: यह नहीं सिखाता। उनका कहना है हिंदुत्व ऐसा करना सिखाता है। नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस जोर देते हैं कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में कोई फर्क नहीं, दोनों एक हैं।
हिंदू धर्म और हिंदुत्व एक हैं या अलग-अलग? क्या हिंदू धर्म केवल आस्था पर विश्वास करना है और हिंदुत्व उसका राजनीतिक विचारधारा वाला स्वरूप। यदि ऐसा है तो क्या हिंदू धर्म भी इस्लाम या प्राचीन ईसाइयत की तरह राजनीतिक आस्था है? क्या यह सिख धर्म जैसा है जिसमें अमृतसर का अकाल तख्त सर्वोच्च आध्यात्मिक और लौकिक सत्ता का केंद्र है?
क्या हिंदुओं की भी ऐसी एक पार्टी है? क्या वह पार्टी भाजपा है? या फिर वैचारिक और दार्शनिक मातृ संगठन जहां से वह निकली है यानी आरएसएस? यह रोचक और अहम बहस है लेकिन क्या इससे वह आईएसआईएस जैसा हो जाता है? हमें इस पर ज्यादा विचार करना होगा।
तमाम सामाजिक शक्तियों में बहुत कुछ ऐसा है जिसके चलते धर्म और राजनीति का घालमेल हो जाता है। इसका दायरा इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से अब्बास सिद्दीकी तक, कोलकाता के निकट फुरफुरा शरीफ के मौलवी सेलेकर पुरानी केरल कांग्रेस तक, अकाली दल और अब भाजपा तक है। कोई राजनीतिक ताकत के लिए धर्म का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हटता। न ही दूसरों की आस्थाओं पर प्रतिकूल टिप्पणी करने में हिचकिचाते हैं। इसके बावजूद क्या आप उनकी तुलना आईएसआईएस से करेंगे?
क्या वे दूसरे धर्म में आस्था रखने वालों को दास बनाते हैं, प्रताडि़त करते हैं और उनकी जान लेते हैं? आईएसआईएस ने यजीदियों पर बहुत जुल्म किए: नरसंहार, प्रताडऩा, दास बनाना, बलात्कार, यौन दासता, सर कलम करना आदि कृत्य किए लेकिन इस संगठन ने अपने साथी मुस्लिमों को ज्यादा नुकसान पहुंचाया। आईएसआईएस को इस्लामिक धर्म तंत्र के अधिकांश शासनों से नफरत क्यों करता है? क्योंकि वह इस्लाम के आधार पर सार्वदेशिक एकता कायम करना चाहता है, वह भी अपनी शैली का। आश्चर्य नहीं कि उससे जूझ रहे देशों में से अधिकांश इस्लामिक, गणतंत्र, सल्तनत या अमीरात वाले हैं। क्या उनमें से कोई चाहता है कि राज्य के भीतर एक और राज्य बने? अगर नहीं तो क्या दर्जनों वैध देशों से चुराकर एक नया राज्य बनाया जाएगा?
खुर्शीद कहेंगे कि उनका तात्पर्य ऐसा नहीं था। वह सही होंगे लेकिन एक सार्वजनिक व्यक्ति जिसकी बातों को उसके दोस्त और दुश्मन गंभीरता से लेते हैं, उसे ऐसी तुलना के बारे में दोबारा सोचना चाहिए। खासतौर पर तब जबकि वह कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य और सक्रिय राजनेता हैं।
इस पर उनकी पार्टी में भी मतभेद है। गुलाम नबी आजाद ने तत्काल उन पर सवाल उठाए। और अब राहुल गांधी ने अपनी ओर से जोर दिया है, ऐसे में कांग्रेस में एक नयापन दिख रहा है और वह है वैचारिक मसले पर सार्वजनिक असहमति और बहस।
अब यह उन्हें तय करना है कि क्या इस मोड़ पर यह मुद्दा उठाना उचित था या क्या उन्हें इस वैचारिक मसले को पहले हल करना था? परंतु फिलहाल तो उन्होंने मोदी सरकार से मोहभंग की स्थिति में चल रहे ढेर सारे हिंदू मतों को वापस भाजपा और आरएसएस के पास भेज दिया है। दुनिया में किसी धर्म या मान्यता के लोग आईएसआईएस से तुलना पसंद नहीं करेंगे।
हम समझते हैं कि खुर्शीद, राहुल और उनके समर्थकों के तर्क का स्रोत क्या है? उनका कहना है कि भाजपा आरएसएस का राजनीतिक चेहरा भर है और उसे केवल हिंदू वोटों से मतलब है। उसका एक सामान्य सिद्धांत है कि अगर करीब 50 फीसदी हिंदू उन्हें वोट दें तो वे भारत पर शासन करते रह सकते हैं। भले ही यह हासिल करने के लिए उन्हें अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों का गलत चित्रण करना पड़े।
उसकी सरकारें मुस्लिमों के विरुद्ध या उनके द्वारा किए गए अपराधों के मामलों में अलग रुख अपनाती हैं। उन्होंने भारतीय मुस्लिमों को व्यवस्थित रूप से सत्ता के ढांचे, राजनीति, शीर्ष अफसरशाही, सुरक्षा और न्यायिक पदों से बाहर रखा है। वह अक्सर मुस्लिमों को बुरा लगने वाली बातें भी बोलते हैं लेकिन क्या इससे आरएसएस को आईएसआईएस जैसा कहा जा सकता है?
बहस कितनी भी विभाजनकारी हो वह सार्थक हो सकती है। लेकिन ऐसे आलस्य के आरोप लगाना बात को बेअसर करता है। लोग चाहे जिस दल को पसंद करते हों लेकिन वे आईएसआईएस के साथ तुलना पसंद नहीं करेंगे। क्या ऐसी बातें करने से मोदी को वोट देने वालों का मन बदलेगा? मोदी को हिटलर और आरएसएस को नाजी कहने वालों से अधिक तादाद ऐसे लोगों की है जो मोदी को दैवीय अवतार समझते हैं और मानते हैं कि भारतवर्ष का इतिहास आक्रांताओं के अधीन 1200 वर्ष के बाद 2014 में शुरू हुआ।
आपको यह ब्योरा पसंद नहीं आया? मैं भी अपने सामान्य भाषण या लेखन में इसका प्रयोग नहीं करूंगा। मैं केवल यह कहने का प्रयास कर रहा हूं कि गाली देना या आरोप लगाना आसान है। इससे आपको फौरी संतुष्टि मिल सकती है, आपका गुस्सा निकल सकता है या फिर भड़ास कह लें। लेकिन इससे किसी की राजनीतिक तकदीर पर फर्क नहीं पड़ता। सबसे बुरी बात यह है कि इससे आपका बौद्धिक आलस्य सामने आता है। सन 1984 में दिल्ली तथा अन्य जगह हुई हत्याएं, सन 2002 में गुजरात और उससे पहले भिवंडी, भागलपुर, हाशिमपुरा, मुरादाबाद आदि में भीषण हत्याकांड हुए। पहले दो को तो हम दंगे भी नहीं कहते। ये राजनीति समर्थित हत्याएं थीं जिनमें हमारे दोनों प्रमुख दल बारी-बारी से शामिल थे। लेकिन क्या इन्हें होलोकॉस्ट (यहूदी नरसंहार) कहा जा सकता है? होलोकॉस्ट में 60 लाख यहूदियों को मारा गया था। यूरोप की छोटी सी आबादी में उनका अनुपात क्या था? क्या सन 1984 या 2002 में हुई हजारों हत्याएं बुरी नहीं थीं? यकीनन थीं। लेकिन उन्हें होलोकॉस्ट कहना यहूदियों और उनकी दर्दनाक विरासत के लिए बहुत खराब होगा।
ऐसे लेबल लगाने में दिक्कत यह नहीं है कि इससे बहस पैदा होती है बल्कि इससे किसी भी बहस या उसके उत्तर के रास्ते बंद होते हैं। भाजपा-आरएसएस द्वारा किसी को देशद्रोही, पाकिस्तानी या चीनी एजेंट, रोम से आदेश लेने वाले आदि कहने पर विचार कीजिए। यह कितना दुख पहुंचाने वाला होता है। लेकिन भाजपा या उनके समर्थकों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
खुर्शीद ऐसे बौद्धिक आलस के शिकार होने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। सन 2015 में प्रोफेसर इरफान हबीब जैसे शीर्ष वाम इतिहासकार भी ऐसी ही तुलना कर चुके हैं। उस वक्त भी मैंने एक आलेख लिखकर प्रतिवाद किया था। ऐसे विषय उठाने के पहले कांग्रेस नेताओं को आईएसआईएस के बारे में और पढऩा चाहिए। तथा चुनावी राजनीति को भी नए सिरे से समझना चाहिए।
