पिछले सप्ताह आईएमएफ और विश्व बैंक की वाशिंगटन में हुई अर्ध-वार्षिक बैठक के दौरान मुश्किल से ही कुछ उल्लेखनीय हासिल किया गया, यहां तक कि बहुप्रचारित बिजनेस प्रेस की बात भी आगे नहीं बढ़ सकी।
शायद अप्रैल की शुरूआत में हुई जी-20 देशों की बैठक ने बदहवासी को काफी हद तक कम कर दिया है। सच पूछिए तो बैठक से पहले जारी की गई आईएमएफ की वैश्विक आर्थिक आउटलुक और वैश्विक वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट, लोगों का ध्यान खींचने में अपेक्षाकृत अधिक कामयाब रही।
लेकिन इसके बीच वैश्विक वित्त से जुड़े कई बड़े मुद्दे हैं, खासकर आईएमएफ के संदर्भ में, जिन पर चर्चा और बहस करने की जरूरत है। मेरे ख्याल से निम्न मुद्दे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं: आरक्षित मुद्रा के तौर पर डॉलर का दर्जा एक ऐसा मुद्दा है जिसे चीन सरकार के केन्द्रीय बैंक ने एक परिचर्चा पत्र के जरिए जोरदार ढंग से उठाया।
वैश्विक बाजार और जीडीपी में एशिया की हिस्सेदारी में तेजी से बढ़ोतरी के साथ ही आईएमएफ और विश्व बैंक (ब्रेटन वुड्स टि्वन्स) में एशिया को अधिक प्रतिनिधित्व देने की जरूरत है। यह खेदजनक है कि आईएमएफ में यूरोप के छोटे-छोटे देशों का कोटा भारत से अधिक है। (अगर पश्चिमी देश इस मुद्दे को नकार देते हैं तो एशियाई देशों को एशियाई मौद्रिक फंड के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
यह विचार सबसे पहले पूर्वी एशिया में आए भुगतान संतुलन के संकट के मद्देनजर करीब एक दशक पहले सामने आया था- लेकिन अमेरिका द्वारा इसे कुचल दिया गया।) जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान बनी सहमति के आधार पर आईएमएफ के संसाधनों में तेजी से बढ़ोतरी होने की उम्मीद है- करीब 500 अरब डॉलर उधारी के साथ ही करीब 250 अरब डॉलर के बराबर एसडीआर का ताजा आवंटन।
बैंकिंग और इक्विटी पूंजी से जुड़े अनुभवों के मद्देनजर कई उभरते हुए बाजारों को इस संसाधनों की काफी हद तक जरूरत होगी। क्या आईएमएफ की शर्तों और दशाओं में शिकागो स्कूल (मिल्टन फ्रेडमैन और अन्य) का वर्चस्व बरकरार रहेगा, जो पूरी तरह से असफल हुए हैं?
डॉलर के मूल्य को लेकर चीन की चिंताएं पहली बार खुलकर सामने आई हैं और सभी ने इसे अच्छी तरह से देखा है। पहली बात यह है कि चीन ने करीब 1500 अरब डॉलर का निवेश डॉलर परिसंपत्ति में कर रखा है। डॉलर की गिरावट पर विचार कीजिए जो दूसरी प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले 30 प्रतिशत गिरा है। चीन को इस वजह से सैकड़ों अरब डॉलर का नुकसान हुआ है।
कई पश्चिमी टिप्पणीकारों ने इसके लिए चीन द्वारा विशाल मुद्रा भंडार तैयार करने और इस कारण ब्याज दरों को कम रखने का दोषी माना है। ऐसा लगता है कि यह उसके अपने लालच का परिणाम नहीं है, जिसके तहत अमेरिकी बैंको ने अधिक प्रतिफल के लालच में अत्याधिक जोखिमपूर्ण परिसंपत्तियों में निवेश किया। यह पाखंडपूर्ण दलील है।
यह कुछ-कुछ वैसा ही है कि जैसे किसी दिवालिया बैंक का प्रबंधन भारी मात्रा में धन जमा करने के लिए जमाकर्ताओं को दोषी ठहराए, जिसके कारण बैंक को असुरक्षित कर्ज देने के लिए मजबूर होना पड़ा। विवाद यह है कि चीन की ‘अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार हड़पने की नीति’ पूरी तरह से गलत इरादों से प्रेरित थी।
कोई भी समझदार केंद्रीय बैंक भुगतान संतुलन के संकट से बचने के लिए आवश्यक स्तर से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार तैयार करने की नीति पर कभी भी अमल नहीं करेगा। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार इस स्तर से काफी अधिक है। लेकिन मैं मुद्रा भंडार तैयार करने को नीतिगत उद्देश्य के तौर पर नहीं देखता हूं।
यह दरअसल विनिमय दर को नियंत्रित करने से जुड़ा हुआ मसला था, जिसका उद्देश्य विनिर्मित निर्यात क्षेत्र में पर्याप्त संख्या में रोजगार के मौके तैयार करना था। इस कारण करोड़ों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने में मदद मिली। क्या इस उद्देश्य को लेकर कोई झगड़ा कर सकता है?
लेकिन मुझे डॉलर में और गिरावट की संभावना से जुड़े सवाल पर वापस आने दीजिए। अमेरिकी मुद्रा में हाल की तेजी के बावजूद अमेरिका के भारी राजकोषीय घाटे और फेडरल रिजर्व द्वारा अर्थव्यवस्था में विशाल मात्रा में पैसा झोकने के कारण कोई भी इस संभावना से इनकार नहीं कर सकता है। आज अमेरिका के बही-खाते काफी हद तक 1998 में ढह चुके हेज फंड लॉन्ग टर्म कैपिटल मैनेजमेंट या फिर लीमन ब्रदर्स की तरह लगते हैं।
मुद्रा मूल्य के संरक्षकों की पूंजी 46 अरब डॉलर है और बही-खातों का आकार 2,000 अरब डॉलर से अधिक है। ऐसे में ऋण इक्विटी अनुपात 45 के करीब बैठता है। (संयोग से दि इकनॉमिस्ट ने दावा किया है कि फेडरल रिजर्व ने संदिग्ध परिसंपत्ति को हासिल करने की नीति बनाई है?
इसके विपरीत आर्थिक मंदी से बचने और लाखों लोगों के रोजगार को बचाने के लिए इस नीति की तारीफ होनी चाहिए। लेकिन, निश्चित तौर से चीन द्वारा रोजगार पैदा करने के उद्देश्य से तैयार की गई विनिमय नीति अपराध थी।) साफ है कि राजकोषीय घाटे और मौद्रिक पहुंच के लिहाज से कई व्यापक आर्थिक कमजोरियां हैं, जो एक मुख्य मुद्रा के तौर पर डॉलर के दर्जे पर संदेह पैदा करती है।
ऐतिहासिक रूप से बेकार ऋण वाले देशों को एकमुश्त डिफॉल्ट, मुद्रास्फीति या रूपांतरण का मुकाबला करने के लिए बचाव अभियान की शुरूआत करनी पड़ी है। इस बार क्या होगा? हालांकि एकमुश्त डिफॉल्ट की आशंका को नकारा जा सकता है, लेकिन चीनी अधिकारियों को बैंकर समस्या का सामना तो करना होगा।
इस स्थिति को कींस ने काफी अच्छे ढंग से बयान किया है, ‘अगर आपने बैंक से हजार पाउंड कर्ज लिए हैं, तो पुनर्भुगतान करने की चिंता आपकी है। अगर आपने बैंक से 10 लाख का कर्ज लिया है तो यह बैंक की चिंता है।’
चीन ने अमेरिका को 1,000 अरब डॉलर से अधिक कर्ज दिया है और निश्चित तौर से यह उसके लिए एक बड़ी चिंता है। वैकल्पिक समाधान क्या हैं? इस बारे में अगले सप्ताह कुछ सुझाव दिए जाएंगे।
