दोहा दौर की वार्ता को बचाने की पिछली कोशिशों की तरह ही इस बार भी जिनेवा में डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक नाकाम रही।
डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक पास्कल लेमी की तमाम कोशिशों के बाद भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहली बार है कि कारोबार को बढ़ाने के कुछ कारगर कदमों पर आम सहमति बनाने के पहले ही यह वार्ता खत्म हो गई। इसके सफल नहीं रहने की वजह भी साफ है: जिन देशों ने इस बैठक में भाग लिया था, उनमें से किसी को भी इस बैठक से कोई खास फायदा होता नहीं दिखा।
उनसे जिन रियायतों की मांग की जा रही थी, उन्हें नागवार गुजर रहा था। हालांकि इस बैठक को सफल बनाने के लिए जो कदम उठाए गए वे होने भी चाहिए थे क्योंकि अगर यह सोचें कि इस बैठक का कोई विकल्प द्विपक्षीय व्यापार समझौता हो सकता है, तो शायद यह सही नहीं होगा। पर जो मौजूदा हालात हैं उनसे तो यही पता चलता है कि फिलहाल अमेरिका अपनी ओर से किसी तरीके की रियायतों के पक्ष में नहीं है और अगर ऐसा होता है तो निश्चित तौर पर विकासशील देशों को अमीर देशों पर गुस्सा आएगा ही।
ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं है जिन्हें यह लगता है कि लेमी को जिनेवा में इन मंत्रियों की बैठक इस समय बुलानी ही नहीं चाहिए थी जबकि इस बैठक के लिए आधारशिला नहीं रखी गई थी। साथ ही बैठक में मौजूद विभिन्न देशों के मंत्रियों के बीच जो मतभेद थे उन्हें सुलझाने के लिए 6 दिन का समय काफी कम था और इस बारे में लोगों को पहले से एहसास भी था। पर लेमी ने अपनी ओर से किसी समझौते के लिए पूरी कोशिश की क्योंकि उन्हें पता था कि अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो अमेरिका में नए राष्ट्रपति के पास इस मुद्दे को उछालने का एक अच्छा अवसर होगा।
हालांकि दोहा दौर के असफल होने के बाद से ही विभिन्न देश बैठक की असफलता का आरोप दूसरे देशों पर लगाने लगे हैं। इस कड़ी में अमेरिका ने आरोप मढ़ने के लिए भारत को सबसे पहले चुना। हालांकि यह भी सच्चाई है कि कृषि के मसले पर भारत ने भी इस बार कड़ा रुख अपनाकर रखा था क्योंकि यह मसला देश के लाखों किसानों की जीविका से जुड़ा हुआ था। यह भी याद रहे कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस मामले में लचीलापन दिखाने को कहा था पर सिंह ने इसके बाद भी राष्ट्रहित को ही प्राथमिकता दी।
साथ ही एक दूसरी समस्या यह भी थी कि विकासशील देशों से यह मांग की जा रही थी कि वे औद्योगिक शुल्कों में भारी कटौती लाएं जबकि अमीर देशों से इतनी अधिक कटौती की अपेक्षा नहीं थी। कई मामलों में अमीर देश पहले ही इन शुल्कों में भारी कटौती कर चुके हैं, फिर भी तमाम अमीर देशों के साथ ऐसा नहीं है। वहीं विकासशील देशों की मांग थी कि शुल्क कटौती की मांग में कुछ उदारता बरती जाए। यहां यह समझना भी जरूरी है कि दोहा दौर की शुरुआत किन हालात में हुई थी।
इसकी शुरुआत गरीब देशों को अमीर देशों के बाजारों में प्रवेश दिलाने का मकसद लेकर की गई थी। पर शायद जिस समय में दोहा वार्ता का दौर अपने आखिरी चरणों में पहुंचा है वही सही नहीं है। ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्थाएं बेहतर दौर से गुजर रही हों विभिन्न देशों से रियायतों की मांग करना शायद ज्यादा आसान होता, पर इस वैश्विक मंदी के दौर में यह इतना आसान नहीं होता शायद।