वित्त मंत्रालय की सरकार में अहमियत क्या अब खत्म हो चुकी है? इस सवाल को पूछने की वजह पिछले 10 दिनों की दो बड़ी घटनाएं हैं।
पहली घटना तो यह है कि वित्त मंत्रालय ने दूरसंचार विभाग के 3जी सेवाओं को मुल्क में इजाजत देने और इसके बारे में दिशा-निर्देश जारी करने पर सवाल उठाए हैं। दूसरी बड़ी घटना सरकार का छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को मान लेना है।
केंद्र सरकार ने न सिर्फ वेतन को आयोग की सिफारिशों से भी ज्यादा बढ़ा दिया, बल्कि उसने इसे देरी से लागू करने के सुझाव को भी दरकिनार कर दिया। साथ ही, सरकार ने इसकी बकाया रकम को प्रोविडेंट फंड में ट्रांसफर करने की सिफारिश को भी मानने से इनकार कर दिया है।
जहां तक 3जी मोबाइल फोन सेवा लागू करने की बात है, तो वित्त मंत्रालय का ऐतराज काफी अजीबोगरीब है। वित्त मंत्रालय का आरोप है कि इन दिशानिर्देशों को बनाने और जारी करने में उससे ठीक तरीके से सलाह मशविरा नहीं किया गया। हालांकि, इस आरोप से दूरसंचार विभाग को कोई असर नहीं पड़ता है।
उसका कहना है कि इन सारे दिशानिर्देशों पर एक अंतर मंत्रालयीय समूह में चर्चा हुई थी। उस समूह की इजाजत लेने के बाद ही इस दिशानिर्देश पर सरकारी मुहर लगाई गई और इसे जारी किया गया। उस अंतर मंत्रालयीय समूह में वित्त मंत्रालय का एक वरिष्ठ अधिकारी भी बतौर सदस्य शामिल था।
दूरसंचार विभाग का सवाल बड़ा जायज है कि उस बैठक में वित्त मंत्रालय का प्रतिनिधि क्या कर रहा था? क्या दूरसंचार विभाग को वित्त मंत्रालय से भी अलग से इजाजत लेने की जरूरत है? वित्त मंत्रालय कुछ मामलों में इन दिशानिर्देशों पर सवाल खड़ा कर सकता है। लेकिन लगता यही है कि उसके विरोध को नजरअंदाज कर दिया गया है और अब 3जी लाइसेंस देने में कोई सरकारी दिक्कत नहीं आएगी।
इस पूरे ड्रामे में मजे की बात यही है कि दूरसंचार विभाग के इस फैसले से सबसे ज्यादा फायदा वित्त मंत्रालय को ही होगा। वित्त मंत्रालय को 3जी सेवाएं मुहैया कराने की ख्वाहिश रखने वाले अलग-अलग टेलीकॉम ऑपरेटरों से लाइसेंस फीस के रूप में कम से कम 40 हजार करोड़ रुपये की आमदनी होगी।
वेतन आयोग की सिफारिशों पर हुआ ड्रामा तो और भी अजीबोगरीब है। वित्त मंत्रालय ने वेतन में इजाफा करने की सिफारिशों पर गहरा असंतोष जताया था। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे सरकारी खजाने पर काफी बोझ पड़ता। उसने तो इसका भी प्रस्ताव दिया था कि वेतन में इजाफे को एक साल देरी से लागू किया जाए ताकि सरकारी खजाने पर ज्यादा बोझ न पड़े।
एक प्रस्ताव यह भी दिया गया था कि बकाये वेतन का भुगतान लोगों को सीधे न करके उनके प्रोविडेंट फंड अकाउंट में डाल दिया जाए। इस तरह से सरकारी खजाने पर तुरंत इस बोझ का असर नहीं पड़ता। लेकिन कैबिनेट ने दोनों प्रस्तावों को सिरे से खारिज कर दिया। प्रधानमंत्री के मुताबिक आम चुनाव जल्द ही होने वाले हैं, इसलिए सरकार आज की तारीख में 40 लाख केंद्रीय कर्मचारियों और करीब इतने ही पेंशन भोगियों को नाराज नहीं कर सकती है।
एक मौके पर तो वित्त मंत्रालय फिचूलखर्ची का हवाला देकर एक ऐसे कदम को रोकने की कोशिश करता है, जिससे सरकारी खजाने की ऐसी की तैसी हो सकती है। वहीं, दूसरी तरफ वह एक ऐसे जायज कदम में अडंग़ा लगाने की भी कोशिश करता है, जिससे उसे काफी फायदा हो सकता है। इसके लिए वह तर्क भी देता है कि उससे पहले क्यों नहीं पूछा गया। दोनों मामलों में उसकी बातों को नजरअंदाज कर दिया गया।
जहां तक वेतन आयोग की सिफारिशों की बात है, तो उसकी जायज बातों को सरकार की राजनीतिक मजबूरियों की वजह से अनसुना कर दिया गया। दूसरी तरफ, 3जी मोबाइल फोन लाइसेंस के लिए दिशानिर्देश जारी करने के मामले में वित्त मंत्रालय की बातों को इसलिए अनसुना कर दिया गया क्योंकि या तो उसके तर्क काफी ज्यादा कमजोर थे या फिर उसके ऐतराज में काफी दम नहीं था।
लेकिन मुद्दे की बात यहां यह है कि 1990 के दशक में आर्थिक सुधार के शुरुआती दिनों में उसके कमजोर से कमजोर तर्कों को भी काफी गंभीरता के साथ सुना जाता था। कई मामलों में तो काफी कमजोर हालत में होने बावजूद भी उसकी बातों को मान लिया जाता था। 1990 के दशक के उन सालों में नॉर्थ ब्लॉक, जहां वित्त मंत्रालय का दफ्तर मौजूद है, का सरकार में बड़ा जबरदस्त दबदबा हुआ करता था।
वह सीधे तौर पर दूसरे मंत्रालयों के बड़े फैसलों में दखल कर सकता था। उस जमाने में अलग-अलग सेक्टरों में विदेशी निवेश के दिशानिर्देशों को तय करने में वित्त मंत्रालय की भूमिका काफी जबरदस्त हुआ करती थी। इस निगाह से देखें तो मुल्क की पहली दूरसंचार नीति को 1993 में बनाने में भी उसका काफी बड़ा योगदान रहा था।
लेकिन पिछले कुछ सालों में उसके इस प्रभाव में काफी जबरदस्त तरीके से गिरावट आई है। यही तो 1990 के दशक के वित्त मंत्रालय और आज के वित्त मंत्रालय में सबसे बड़ा अंतर है।