एक साल पहले (दिसंबर, 2007) अपने लेख में मैंने कहा था कि मौजूदा ऋण संकट दूसरी महामंदी बन कर नहीं उभरेगा।
पर उसके बाद से ही कई ऐसे नीतिगत फैसले लिए गए जो गलत साबित हुए और उनका जिक्र मैं अपने पिछले लेख में कर चुका हूं। साथ ही वैश्विक ऋण बाजार में भी सब कुछ ठंडा ठंडा सा है।
जिस तरीके से वैश्विक उत्पादन भी घटता जा रहा है, उसे देखते हुए अब इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि शायद यह आर्थिक संकट भी महामंदी यानी ग्रेट डिप्रेशन की तरह ही भयावह साबित हो।
1920 के दशक में जैसे हालात और समीकरण थे, कुछ कुछ वैसे ही अब भी नजर आ रहे हैं। हाल ही में बनार्ड मडोफ का अरबों का घोटाला सामने आया है जिसमें उसने पढ़े लिखे और समझदार निवेशकों से पैसे हड़पे थे। कुछ ऐसे ही घोटाले का पर्दाफाश 1920 के दशक के दौरान भी हुआ था जिसकी केंद्रीय भूमिका में चार्ल्स पोंजी थे।
पर शायद मडोफ के इस घोटाले के आगे पोंजी का कद भी छोटा नजर आएगा। मुद्राअवस्फीति का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है और वहीं फेडरल नकदी की किल्लत को दूर करने के लिए नोट छापने में लगे हुए हैं।
जिंबाब्वे के राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे ने कुछ ऐसा ही अपने देश में भी किया था और इसी वजह से वहां महंगाई की आग बेकाबू हो गई। ये सारे संकेत तो इसी ओर इशारा करते हैं कि अगर संरक्षणवाद को सीमित नहीं रखा जाता है तो दुनिया एक दूसरा ग्रेट डिप्रेशन देखेगी।
पिछले दिनों जो कुछ घटा है, उनसे भी कोई अच्छे संकेत नहीं मिल रहे हैं। जी 20 समूह के देशों द्वारा लगातार आश्वासन देने के बाद भी दोहा वार्ता विफल रही।
चीन और संभवत: भारत को नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का वह बयान चिंतित कर सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि चीनी मुद्रा में हस्तक्षेप किया जा सकता है। इस तरह अमेरिकी प्रशासन संरक्षणवाद के रास्ते पर चल सकता है।
मैंने अपने पिछले लेख में बताया था कि मौजूदा वैश्विक संकट की शुरुआत कहां से हुई है। 1970 के दशक के दौरान तीसरी दुनिया के देश जिस कारण से ऋण संकट में फंसे थे, इस बार भी वजह कुछ ऐसी है। दरअसल, अगर वित्तीय व्यवस्था की बात करें तो विभिन्न देशों के बीच कोई संतुलन है ही नहीं।
कुछ देशों में जरूरत से ज्यादा बचत हो रही है तो कुछ कर्ज के बोझ तले दबे हैं। अब इस असंतुलन को अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग प्रणाली के जरिए दूर करने की कोशिश की जा रही है।
1970 के दशक की ही तरह इस बार भी तेल उत्पादक देश लगातार घट रही कच्चे तेल की कीमतों को लेकर परेशान हैं और खतरा महसूस कर रहे हैं।
जापान में बचत की प्रवृत्ति बहुत अधिक है, पर इसकी क्या जरूरत है या फिर इसके पीछे क्या रणनीति है, इस बारे में किसी ने स्पष्ट जानकारी देने की जहमत नहीं उठाई है।
चीन और जर्मनी की परेशानी व्यापार आधिक्य (सरप्लस) की है। पिछले साल चीन का व्यापार आधिक्य 279 अरब डॉलर और जर्मनी का 283 अरब डॉलर का था।
इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि जो दो तरह की मुद्रा विनिमय प्रणालियां हैं- वास्तविक और अर्द्धस्थिर, ये दोनों देश उन प्रणालियों के केंद्र में हैं।
जिन देशों में स्थिर मुद्रा विनिमय दर पाई जाती है, उनके साथ एक समस्या यह होती है कि अगर व्यापार आधिक्य वाले देश में मांग नहीं बढ़ती है तो दूसरा देश जिसके साथ कारोबार किया जा रहा है, वहां मुद्राअवस्फीति के हालात पैदा होने लगते हैं।
1930 में सरप्लस वाले देश जैसे अमेरिका और फ्रांस ने सोने के मानक नियमों को मानने से इनकार कर दिया था, जिससे समायोजन का सारा बोझ कारोबार नुकसान उठाने वाले देशों के ऊपर आ गया था।
इस वजह से ऐसे देशों में मुद्राअवस्फीति के हालात और गंभीर हो गए और दुनिया को ग्रेट डिप्रेशन के भंवर जाल में फंसना पड़ा।
यही वजह है कि सोने के लिए विनिमय प्रणाली तैयार करने वाले कीन्स इस बात पर अड़े थे कि नई विनिमय दर प्रणाली में ऐसी व्यवस्था हो कि सरप्लस और डेफिसिट वाले देशों को समायोजन का बराबर-बराबर भार उठाना पड़े।
हैरी वाइट की आड़ में पहले तो अमेरिका ने आईएमएफ के आखिरी आर्टिकल्स ऑफ एग्रीमेंट के अनुच्छेद 7 में ब्रिटेन को जगह देने से इनकार कर दिया, पर बाद में ‘दुर्लभ मुद्रा क्लॉज’ को स्वीकार करते हुए उसे इसमें शामिल कर लिया। इस उपबंध के तहत जो देश कर्ज के बोझ तले दबे थे उन्हें अपने यहां आयात को प्रतिबंधित करने की अनुमति दी गई थी।
पर यह छूट उन्हीं देशों को दी गई थी जिनकी मुद्रा को फंड ने ‘दुर्लभ’ करार दिया था। पर इन देशों को दूसरे देशों में साथ अबाधित कारोबार करने की छूट थी। हालांकि दुर्लभ मुद्रा उपबंध को लागू करने में कोई उत्साह नहीं दिखाया गया क्योंकि ऐसा होने पर डॉलर पर ही खतरा बन आता।
विश्व युद्ध के तुरंत बाद डॉलर की कमी हो गई थी और अगर इस उपबंध को लागू किया जाता तो बड़ी आसानी से यूरोपीय देशा डॉलर को ही दुर्लभ मुद्रा घोषित करा लेते। ऐसे में अमेरिका की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में जान फूंकने की चाहत धरी की धरी रह जाती।
इधर, 1960 में अमेरिका की साख ऋण दाता के रूप में बन चुकी थी और वह नहीं चाहता था कि जिन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बनाने में उसने मदद की थी और जो देश शीत युद्ध के दौरान उसके सहयोगी रहे थे, उन पर वह जुर्माना लगाए।
पर हो सकता है कि बुश प्रशासन इस उपबंध को दोबारा से जीवित कर दे, खासतौर पर चीन के खिलाफ इस्तेमाल करने में उसे सहूलियत होगी।
हालांकि यूरो क्षेत्र में ऐसे कोई प्रावधान नहीं हैं और जर्मनी ने हाल में जो रुख अपनाया है उससे कम से कम इतना तो साफ होता है कि वह बड़े पैमाने पर वित्तीय पैकेज के पक्ष में नहीं है।
जर्मनी और चीन दोनों ही देशों ने निर्यात आधारित विकास को बढ़ावा देने के लिए अपनी स्पष्ट और अस्पष्ट मुद्रा विनिमय दरों का इस्तेमाल किया है।
इन देशों के व्यापार आधिक्य का इस्तेमाल उपभोग बढ़ाने और क्लब मेड के डेफिसिट देशों और अमेरिकी देशों में आवास क्षेत्र की तेजी को भुनाने के लिए किया जा रहा है।
पर वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती और नकदी के संकट की वजह से इस मॉडल की कारगरता पर प्रश्न खड़ा हो चुका है। चीन ने संकेत दे दिए हैं कि वह बुनियादी संरचनाओं के लिए वित्तीय पैकेज की घोषणा कर, घरेलू मांग को बढ़ाने की कोशिश करेगा। जर्मनी अब भी इस बारे में स्पष्ट रुख तैयार नहीं कर सका है।
अमेरिका की संरक्षणवादी नीति का लक्ष्य चीन हो सकता है। अगर दुर्लभ मुद्रा उपबंध को फिर से लागू किया जाता है तो इससे अमेरिका को चीनी उत्पादों के साथ भेदभाव करने का आसान सा रास्ता मिल जाएगा और इसके लिए अमेरिका को कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता भी तैयार नहीं करना होगा।
कुछ इसी तरह अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के मामले में भी संरक्षणवाद का रास्ता अपना सकता है, जैसा कि ओबामा ने वादा किया है कि वह दुनिया को सुरक्षित रखने के लिए हर संभव कदम उठाएंगे।
अगर ऐसा होता है तो जो खतरे नजर आ रहे हैं उनसे चीन और भारत कैसे बचेंगे? एक सीधा सरल रास्ता यह हो सकता है कि पूंजी खाते को खोल दिया जाए और मुद्रा का प्रवाह होने दिया जाए।