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  लेख  क्या करदाताओं के पैसे से किसी कंपनी को उबारना सही है?
लेख

क्या करदाताओं के पैसे से किसी कंपनी को उबारना सही है?

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —January 21, 2009 10:43 PM IST0
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देशहित में दे सकते हैं राहत


डी. के. जोशी
प्रमुख अर्थशास्त्री, क्रिसिल

सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि बेलआउट पैकेज कब दिया जाता है? आप देख रहे होंगे कि अमेरिका में कई उद्योगों को बेलआउट या राहत पैकेज दिया गया। दरअसल जब वित्तीय संकट इतना गहरा जाता है कि अर्थ तंत्र के विफल होने की संभावना बढ़ जाती है और तब जाकर सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है।

बेलआउट पैकेज देने का सरकार का उद्देश्य यह होता है कि आर्थिक व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके और उन विशिष्ट क्षेत्र को मदद पहुंचाई जाए, तो संकट की घड़ी में बुरे दौर से गुजरने लगती है। जहां तक निजी क्षेत्र की कंपनियों को बेलआउट देने की बात है, तो उस संदर्भ में कई मानकों पर गौर करना जरूरी है।

मिसाल के तौर पर सत्यम को ही लें, तो इस कंपनी की आज जो भी हालत है, वह गलत कारोबारी निर्णयों और व्यक्तिगत लालच की वजह से हुआ है। सत्यम धोखाधड़ी गलत बातों को छुपाने का नतीजा है, जिसके बारे में संस्थापक यह सोचते रहे कि समय बदलेगा और झूठ भी सच में तब्दील हो जाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सत्यम का पूरा का पूरा सच पूरी दुनिया के सामने है। इस तरह की घटना को अर्थव्यवस्था में क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन का नाम दिया जाता है। ऐसी हालत में उस कंपनी को चाहिए कि वे अपनी पुरर्संरचना और फंड उगाही के जरिये अपने आप को बाजार में फिर से स्थापित करे।

वैसे भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का यह सिद्धांत रहा है कि अगर बाजार में कोई कंपनी अपने को स्थापित नहीं कर पाती है, तो उसका अस्तित्व ही मिट जाता है। अगर किसी कंपनी या संस्था को बाजार में कायम रहना है, तो उसे ज्यादा दक्ष और ताकतवर होना होगा।

मौजूदा वित्तीय संकट के मद्देनजर आपने सुना होगा कि अमेरिका में कई उद्योगों को बेलआउट पैकेज दिया गया। इसकी वजह यह थी कि उन उद्योगों के असफल हो जाने की वजह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी होने लगी थी। इन हालात में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है।

अब अगर भारतीय परिदृश्य को देखें, तो यहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के सह-अस्तित्व वाली अर्थव्यवस्था है। यहां छोटे और मझोले उपक्रम भी सरकार से सहायता की गुहार लगाते हैं।

दूसरी तरफ सत्यम धोखाधड़ी ने यह चर्चा गर्म कर दी कि ईमानदार करदाताओं का जो पैसा सरकारी खजाने में है, क्या उसका इस्तेमाल एक ऐसी कंपनी को बचाने के लिए किया जाए, जिसकी बुनियाद ही झूठ पर टिकी हुई थी।

अलबत्ता सरकार ने कंपनी के निदेशक मंडल को भंग कर अपने लोगों को निदेशक मंडल में जगह दी है। नए निदेशक मंडल को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह पूरे मामले की छानबीन करे और उन स्थितियों का पता लगाएं, जिससे कंपनी को संकट से उबारा जा सके।

दरअसल इस कदम के पीछे सरकार का उद्देश्य सत्यम में काम कर रहे कर्मचारियों और छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा करना है।

लेकिन फिर एक बात सामने आती है कि सत्यम के हजारों कर्मचारियों को बचाने की कोशिश क्यों की जाए, जब देशभर में लाखों रोजगार जा रहे हैं। उन छोटे निवेशकों की रक्षा क्यों की जाए, जिन्होंने अपने जोखिम पर निवेश करना शुरू किया था।

ये सारे प्रश्न एक विवाद का विषय है। इस पर लोगों की अपनी राय हो सकती है। अगर किसी उद्योग के साथ अनियमितता हुई है या उसे स्थितियों की वजह से नुकसान हुआ है, तब जाकर सरकार को पूरे हालात की समीक्षा करनी चाहिए और तब जाकर बेलआउट पैकेज की घोषणा करनी चाहिए।

बातचीत: कुमार नरोत्तम


कंपनी डूबे… कोई फर्क नहीं

भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री

करदाताओं के पैसे से किसी कंपनी को उबारना सही है या नहीं, इसके दो पक्ष हैं। पहला यह कि मूल रूप से यह नीति ही गलत है कि जनता के पैसे से किसी विशेष वर्ग या व्यक्ति को राहत दी जाए क्योंकि लोगों द्वारा दिए गए कर से वह वर्ग विशेष लाभान्वित होगा।

लेकिन दूसरा पक्ष यह है कि यदि वह विशेष वर्ग कोई ऐसा विशेष कार्य कर रहा है जो देश के लिए बेहद महत्त्व का है तो फिर बात दूसरी है।

मान लीजिए कि कोई युध्द सामग्री बनाने वाली प्राइवेट इंडस्ट्री है जिसे ब्रह्मोस मिसाइल बनाने का काम सौंपा गया है और अगर वह डूब जाती है तो ब्रह्मोस मिसाइल बननी बंद हो जाएगी और ऐसे में देश की संप्रभुता को कठिनाई हो सकती है।

वैसी स्थिति में सरकार को बेलआउट देने के बजाए उस इंडस्ट्री का अधिग्रहण कर लेना चाहिए। लेकिन इस संदर्भ में भी सरकार यदि राहत राशि दे, तो वह जनहित में ही होना चाहिए।

उदाहरण के लिए अमेरिकी सरकार ने अपने यहां की ऑटो कंपनियों को बचाने के लिए 17 अरब डॉलर के बेलआउट पैकेज की घोषणा की और उस ऋण का बोझ पड़ा आम जनता पर।

मसलन, अगर हमारे देश के लिए भी कोई कंपनी राष्ट्रीय महत्त्व की है तो ही उसे बचाने के लिए कदम उठाया जाना चाहिए अन्यथा नहीं। मेरा स्पष्ट मानना है कि सत्यम कोई राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा नहीं है। अगर वह डूब जाती है तो उसे कोई दूसरी कंपनी खरीद लेगी।

उसके डूबने से देश को कोई नुकसान नहीं होने वाला है। निजी क्षेत्र के कंपनियां तो डूबती रहती हैं और बनती रहती हैं। उदाहरण के लिए किसी बीपीओ कंपनी को ही ले लीजिए, जब यह नहीं चल पाती है तो उसका अनुबंध किसी और को मिल जाता है।

सत्यम अगर डूब गई तो डूब गई, उसके डूबने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि यह कोई राष्ट्रीय महत्त्व का तो मामला है ही नहीं।

सत्यम की जगह कोई अन्य सॉफ्टवेयर प्रदाता कंपनी देश की जरूरत को पूरा करेगी। अभी सत्यम के 53 हजार कर्मचारियों के भविष्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि सरकार को बीच का कोई रास्ता निकालना चाहिए।

लेकिन मेरा मानना है कि सरकार को बीच का रास्ता निकालने की जरूरत ही क्या है। अगर कोई कंपनी डूबती है तो उसमें कुछ कर्मचारियों का भी योगदान होता है।

ऐसा हो ही नहीं सकता है कि सत्यम के खाते में कोई गड़बड़ी हो और कनिष्ठ कर्मचारियों को उसके बारे में कोई खबर ही न हो कि उनकी कंपनी में क्या कुछ हो रहा है।

निस्संदेह इस घोटाले में कर्मचारियों का पूरा समूह भी जिम्मेदार है और कर्मचारियों को भी खामियाजा भुगतना चाहिए। मेरा मानना है कि सत्यम को कोई बेलआउट पैकेज नहीं दिया जाना चाहिए।

इस तरह के घोटालों पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए सबसे अहम कदम यह हो सकता है कि जो ऑडिटर, बैंक अधिकारी, सेबी के अधिकारी और शेयर बाजार के कर्मचारी इन घोटालों में संलिप्त पाए जाते हैं उनमें से दो-चार को मृत्युदंड दे दिया जाए तो फिर मामला अपने-आप निपट जाएगा और पूरा देश ठीक हो जाएगा।

इसके बाद किसी कंपनी की हिम्मत नहीं होगी कि वे इस तरह के घोटाले कर सकें। रामलिंग राजू ने तो अपने स्वार्थ के लिए ये घोटाले किए हैं लेकिन सरकार अपने अधिकारियों के खिलाफ, जिन्हें मालूम है कि इस तरह के घोटाले हो रहे हैं, कुछ नहीं कर रही है।


बातचीत: पवन कुमार सिन्हा

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