राजनेताओं के लिए चुनाव के समय अतिरंजित वादे करना कोई नई बात नहीं है। परंतु राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव जो बिहार विधानसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व भी कर रहे हैं, वह इसे ऐसे स्तर पर ले गए हैं जिसे पूरी तरह गैर जिम्मेदाराना कहा जा सकता है। यादव ने प्रदेश में 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया है जो बिहार में सरकारी कर्मचारियों की मौजूदा तादाद के तीन गुने से अधिक है। इस समय प्रदेश में 3,10,000 सरकारी कर्मचारी हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने पहले इसका मखौल उड़ाया और बाद में 19 लाख नौकरियों का वादा कर दिया। हालांकि उसने इन सभी नौकरियों के सरकारी होने की बात नहीं कही। यह सच है कि कुछ राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में अत्यंत कम आबादी के बावजूद सरकारी कर्मचारी बहुत अधिक हैं। मिसाल के तौर पर जम्मू कश्मीर की आबादी बिहार की आबादी के आठवें हिस्से के बराबर है लेकिन वहां 4.80 लाख सरकारी कर्मचारी हैं।
यह बात ध्यान देने वाली है कि लोकलुभावन वादों में कर्ज माफी के वादे भी बड़ी तादाद में सरकारी नौकरी देने के वादे से बेहतर हैं क्योंकि कर्ज माफी एक बार करनी होती है जबकि सरकारी नौकरी में इजाफा प्रदेश के राजकोष पर हर वर्ष बोझ डालेगा जबकि उसके पास स्वयं सीमित संसाधन हैं।
राजद ने किसानों की कर्ज माफी का वादा भी किया है। बिहार इस स्थिति में नहीं है कि वह ऐसे लोकप्रिय कदमों का बोझ उठा सके। राज्य के पास आंतरिक संसाधन बहुत कम हैं और वह केंद्र से होने वाले हस्तांतरण पर बहुत हद तक निर्भर करता है। हाल के वर्षों में राज्य के कुल व्यय में केंद्र से होने वाले हस्तांतरण की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत तक रही है। इसके करीब केवल महाराष्ट्र है जहां यह हिस्सेदारी करीब 20 प्रतिशत थी।
बहरहाल, ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते प्रदेश में रोजगार देने के वादे की अलग अपील है। बिहार में बेरोजगारी का औसत राष्ट्रीय औसत की तुलना में खराब है और श्रम शक्ति भागीदारी दर देश में सबसे कम है। श्रम शक्ति भागीदारी में कमी बताती है कि लोगों को राज्य में रोजगार मिलने की आशा नहीं है। इसके अलावा कोविड-19 महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के चलते भी बड़ी तादाद में प्रवासी श्रमिक प्रदेश में लौट आए। इस बात ने भी इस विषय को महत्त्वपूर्ण बना दिया।
इसमें दो राय नहीं कि बिहार को अपनी बढ़ती आबादी के लिए रोजगार सृजित करने की आवश्यकता है। क्योंकि इस श्रम शक्ति को मजबूरन देश के अन्य हिस्सों में पलायन करना पड़ता है। यह पलायन कई बार बुनियादी शारीरिक श्रम के कामों के लिए होता है। परंतु सरकारी नौकरी (जिन्हें सरकार वहन करने की हालत में नहीं) से बेरोजगारी की समस्या दूर नहीं होगी। बिहार के शासन और बुनियादी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है। इससे निजी निवेश जुटाने और रोजगार के अवसर तैयार करने में मदद मिलेगी।
लोकलुभावन नीतियां संसाधनों को स्थायी रूप से उत्पादकता व्यय से दूर कर सकती हैं। ऐसे में राज्य में विकास और कठिन हो जाएगा। सन 2018-19 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का बमुश्किल 33 प्रतिशत थी। बहरहाल रोजगार का वादा लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने की कवायद भर है क्योंकि विभिन्न सर्वेक्षणों के आधार पर यादव जानते हैं कि उनके जीतने और सरकार बनाने की संभावना बहुत कम है। उन्हें पता है कि उन्हें यह वादा पूरा करना ही नहीं पड़ेगा। हां, इससे उनकी वोट हिस्सेदारी और सीटों की तादाद अवश्य सुधर सकती है। शायद वह इसी सीमित लक्ष्य के साथ काम कर रहे हों। परंतु राजग ने चुनावी समय में गैर जिम्मेदाराना वादों के मानक को और ऊंचा कर दिया है।
