क्या भारतीय बच्चों का दिमाग पूरी तरह विकसित हो पाता है? अनेक शोधकर्ता इस बारे में अपनी आशंका व्यक्त कर चुके हैं। उनकी चिंता बेवजह नहीं है।
यह एक तथ्य माना जाता है कि दो साल की उम्र के बाद दिमाग का विकास बंद हो जाता है। एक तथ्य यह भी है कि शरीर में आयरन यानी लौह तत्त्व की कमी यहां एक आम समस्या है। इसलिए कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि मां का दूध पीने वाले बच्चों को पर्याप्त आयरन नहीं मिल पाता।
कई देश इस कमी को दूर करने के लिए आयरन सप्लीमेंट यानी कि भोजन में लौह तत्त्वों के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहे हैं। श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) के साथ हाल ही में प्री-स्कूल बच्चों में आयरन की कमी दूर करने के मकसद से एक समझौता किया है।
हाल ही में अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ. एकहार्ड ई. जाइगलर नेस्ले न्यूट्रीशन फाउंडेशन की तरफ से आयरन की कमी को लेकर जागरूकता फैलाने भारत आए थे। उन्होंने कहा कि यहां के बच्चों के खून में आयरन की कमी है और अगर भारतीय बच्चों को अतिरिक्त आयरन नहीं दिया जाएगा तो छह महीने की उम्र में उनके दिमाग के विकास करने की संभावना बहुत कम हो जाएगी।
उन्होंने कहा कि स्तनपान के जरिए बच्चों तक पहुंचने वाले दूध में भी पर्याप्त आयरन नहीं होता है। जो आयरन उन्हें मिल रहा है, वह जन्म के छह महीने बाद समाप्त हो जाता है। इसके बाद बच्चों को विभिन्न माध्यमों से आयरन दिए जाने की जरूरत होती है।
शरीर में आयरन की मात्रा को लेकर एक अध्ययन से भारतीयों को सांत्वना मिल सकती है। इस अध्ययन को दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज और नैशनल इंस्टीटयूट ऑफ इम्युनोलॉजी के शशि राज, एम.एम.ए. फरीदी और उषा रशिया ने अंजाम दिया है। यह पिछले साल प्रकाशित हुआ था।
इस टीम ने 2003-04 में नवजात बच्चों के कॉर्ड ब्लड में छह महीने तक आयरन की उपलब्धता का कई मानकों पर अध्ययन किया था। इसमें वैसे बच्चों को भी शामिल किया गया जिनकी मां में खून की कमी थी। इस अध्ययन में जन्म के समय, 14 सप्ताह बाद और 6 महीने बाद बच्चों में आयरन की उपलब्धता सामान्य पाई गई।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि उन महिलाओं के बच्चों में भी आयरन की पर्याप्त उपलब्धता है, जो रक्तहीनता की शिकार हैं। शोधकर्ताओं ने ये स्थापित किया कि बच्चों में आयरन की उपलब्धता और मां के दूध में आयरन की उपलब्धता के बीच कोई संबंध नहीं है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन तब किया गया जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जन्म के 4 महीने बाद बच्चों में आयरन की उपलब्धता को लेकर संदेह जताया।
इसी तरह का भय जाइगलर ने भी प्रकट किया है। वह ”स्प्रिंकलर्स” के प्रयोग को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं। इसके जरिए बच्चों तक आसानी से दलिया या अनाज के साथ आयरन पहुंचाया जा सकता है। नैशनल इंस्टीटयूट ऑफ न्यूट्रीशन (एनआईएन) के मुताबिक 87 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। जबकि राजस्थान में यह आंकड़ा 98 फीसदी है।
दिल्ली की शहरी झुग्गियों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 41 फीसदी बच्चों में आयरन की कमी है। नैशनल इंस्टीटयूट ऑफ न्यूट्रीशन द्वारा हैदराबाद में किया गया एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां के 68 फीसदी प्री-स्कूल बच्चों में आयरन की कमी है। ये आंकड़े सुधार की दिशा में उठाए जाने वाले कदमों की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं। इनमें पहला तो माताओं को शिक्षित करना ही है।
भारत सरकार का राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन महिलाओं को आयरन टैबलेट तो मुहैया कराता है लेकिन आयरन ड्रॉप्स और आयरन सप्लीमेंट वितरण की शुरुआत अभी नहीं हुई है। एनआईएन आयरन की कमी को दूर करने के मकसद से दीर्घकालिक रणनीति के तौर पर साधारण नमक में सुधार की प्रौद्योगिकी तैयार कर चुका है।
अध्ययन में पाया गया है कि यह नमक हीमोग्लोबीन का स्तर सुधारने में सहायक है। जाइगलर के मुताबिक आयरन ड्रॉप्स वैसे मलेरिया वाले इलाकों में नकारात्मक असर डाल सकते हैं। उनका कहना है कि ऐसे हालात में फोर्टिफिकेशन बहुत काम आएगा। वह श्रीलंकाई बच्चों के लिए यूनीसेफ द्वारा बनाए गए स्प्रिंकलर्स का उदाहरण देते हैं।
वह कहते हैं कि इस पर भारत सरकार को भी विचार करना चाहिए। हालांकि, अभी और वैज्ञानिक शोध इस जरूरत की बाबत होना चाहिए। इस मामले में कंपनियों के निहित स्वार्थ पर भी नजर रखी जानी चाहिए। उनके नुमाइंदों द्वारा कही जा रही बात पर यकीन करके नीतियां लागू करना ठीक नहीं है।
