विकास के संकट (ग्रोथ पर्गेटरी) की अवधारणा सामान्यत: व्यक्तिगत कंपनियों या स्टॉक के मामले में लागू होती है।
ऐसा तब होता है जब किसी कंपनी का कारोबार और उसकी स्टॉक ट्रेडिंग उच्च पीई मल्टिपल में होती है क्योंकि कंपनी का इतिहास अधिक कमाई करने वाला और विकास का स्तर उच्च होता है तथा विकास को ध्यान में रखकर निवेश करने वाले इसे पसंद करते हैं लेकिन वह कंपनी इस विकास को बरकरार रखने में असफल हो जाती है।
जैसे ही इसके विकास की दर धीमी पड़ती है, विकास को ध्यान में रखकर निवेश करने वाले निवेशक इसमें से पैसा खींचने लगते हैं और इसका अवमूल्यन शुरू हो जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती है, जब तक स्टॉक का मूल्य निर्धारण इतना ज्यादा आकर्षक नहीं हो जाता है कि वह खरीदारों को आकर्षित कर सके।
यह पीई डीरेटिंग 12 से 24 महीने तक की होती है, जो उन निवेशकों के लिए बहुत पीड़ादायक होता है जिन्होंने विकास के दौरान कंपनी में निवेश किया है। मेरा मानना है कि ऐसा ही कुछ वर्तमान में भारत के विकास के मामले में भी हो रहा है। अगर हम इस साल के शुरुआती दिनों पर गौर करें तो भारत बढ़ता हुआ बाजार था, जहां पीई मल्टिपल 20 से ज्यादा था।
भारत के जीडीपी की विकास दर पिछले चार साल से 9 प्रतिशत से ज्यादा थी और जोरदार कमाई होने से उत्साह का माहौल था। निवेशकों को लग रहा था कि भारत पर ऋण संकट का कोई असर नहीं होगा और वह बहुत मजबूती से जीडीपी के क्षेत्र में विकास कर सकता है और यहां कमाई हो सकती है। बाजार में जमकर खरीदारी हुई और ग्रोथ स्टॉक की तरह काम हुआ।
निवेशक केवल विकास की ओर ध्यान रखकर काम करते रहे। जब केवल विकास को देखकर कारोबार हो रहा हो और आप आशाओं से अधिक हासिल कर रहे हों तो यह बढ़त बरकरार रखनी मुश्किल होती है। जब तेल की कीमतें बढ़ने लगी तो इसका असर भारत की वृहद कमजोरियां खुलकर सामने आ गई तथा पहली बार जीडीपी और कमाई की बढ़त दरों में कमी आने लगी और आत्मविश्वास डगमगा गया।
निवेशक इस पर सवाल उठाने लगे कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था वास्तव में एक दशक तक 8 प्रतिशत से अधिक की दर से विकास करेगी? इस तरह के वृहद तनावों पर कमजोर नीतिगत फैसलों का असर भी रहा, जिससे तरह-तरह के भ्रम उत्पन्न हुए। क्या 8 प्रतिशत की विकास दर बरकरार रह सकेगी? क्या कार्पोरेट कमाई ज्यादा रहेगी और लाभांश कम होगा?
अगर हम सुधारों को लागू नहीं करते तो किस तरह से विकास बरकरार रहेगा? किसी भी गठजोड़ में किस तरह से निजी लाभों को दूर किया जा सकेगा? इस तरह की कमजोर वित्तीय स्थिति में आधारभूत ढांचे में विकास कैसे हो पाएगा? इस तरह के तमाम सवाल हैं, जो इस समय निवेशकों के दिमाग में बार-बार आ रहे हैं।
ग्रोथ स्टॉक की तरह ही जैसे कि उस पर एक बार संदेह उत्पन्न हो जाता है तो उसका अवमूल्यन शुरू हो जाता है, उसी तरह से भारत भी डी-रेटिंग की प्रक्रिया से गुजर रहा है। निवेशकों को नहीं लगता है कि जीडीपी की विकास दर 9 प्रतिशत बनी रहेगी और कमाई में बढ़ोतरी 25 प्रतिशत की रहेगी। इसमें वैश्विक हलचलों का भी योगदान रहा, जिसने निवेशकों को एक बार फिर से स्थिति का आकलन करने के लिए मजबूर किया।
भारत के सामने अब समस्या यह है कि विकास दर को देखते हुए पीई मल्टीपल 18-20 प्रतिशत रहने की संभावना नहीं है। अब ऐसी स्थिति में तीन बातें उभरकर सामने आती हैं, जिसमें से एक होने की संभावना है- पहला, बाजार में 15-20 प्रतिशत की एक और गिरावट आ सकती है, इस स्थिति में हो सकता है कि मजबूत खरीदार ज्यादा रुचि लें। भारत की गुणवत्ता वाली कंपनियां, तमाम खरीदारों को आकर्षित करेंगी।
मेरी जानकारी में भारत में ऐतिहासिक रूप से 10.5-11 बार सस्ती खरीदारी हुई है, जिनमें से 10 साल के बॉन्ड यील्ड्स दोहरे अंकों को पार कर गए हैं। ऐसे में कोई भी तर्क कर सकता है कि इसमें सस्ता क्या है। मेरे विचार से घरेलू बाजार में मनी मैनेजर्स के बढ़ते आकार को देखते हुए बाजार के इससे ज्यादा नीचे आने की संभावना कम लगती है।
इसके साथ ही निजी इक्विटी के कारोबारियों और एफडीआई की रुचि भी देश में बनी रहेगी। पांच साल पहले की तुलना में भारत इस समय मुख्यधारा में हैं। इसका आकार इतना बड़ा है कि यहां उस तरह के संकटों को नजरंदाज किया जा सकता है, जैसा कि थाईलैंड और फिलीपींस में हुए। भारत में विकास करने की क्षमता बहुत ज्यादा है और कंपनियां इसे भुनाने में सक्षम भी हैं।
अगर संकट बहुत ज्यादा हो तो भी भारत लंबे समय तक 7 प्रतिशत विकास दर बरकरार रख सकता है और कमाई 15-18 प्रतिशत के बीच बनी रहेगी। दूसरा दृश्य कुछ इस तरह का बन रहा है कि बाजार में मंदी बनी रहेगी और कीमतों का वर्तमान स्तर अभी 6-12 महीने तक बरकरार रहेगा। इससे मूल्यांकन स्तर 12.5 प्रतिशत कम होगा, लेकिन इस स्तर पर कमाई का स्तर बनाने में समय लगेगा और स्टॉक कीमतें तेजी से नहीं गिरेंगी।
इस मायने में यह कष्टप्रद होगा कि खरीदारी की मात्रा में गिरावट आएगी, उतार-चढ़ाव में कमी आएगी। इस स्थिति में बहुत से निवेशक बिकवाली के लिए बेहतर अवसर पाएंगे। तीसरा विकल्प यह होगा कि भारत फिर से विकास की रफ्तार हासिल कर लेगा। यह तभी हो सकता है जब सरकार की ओर से सकारात्मक संकेत आएं। हमें जरूरत है कि दूसरे चरण के सुधार की शुरुआत हो।
इसमें आधारभूत ढांचा, शिक्षा, वित्तीय प्रणाली, सब्सिडी को लक्ष्य बनाना आदि शामिल हो सकता है। वर्तमान सरकार के पास इस तरह के कदम उठाने के अवसर भी मौजूद हैं। अगर निवेशकों को यह महसूस होना शुरू हो जाता है कि भारत एक बार फिर सुधार के रास्तों पर कदम रख चुका है, तो एक बार फिर रास्ते खुल जाएंगे। वे वर्तमान मंदी के चक्र को खत्म होता हुआ महसूस करने लगेंगे।
इस समय पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है और अगर निवेशकों को यह विश्वास हो जाए कि भारत में एक बार फिर 8 प्रतिशत की विकास दर का दौर शुरू हो जाएगा, तो वे भारतीय बाजार में पैसा झोंक देंगे। वर्तमान सरकार के सामने संभावनाओं के द्वार खुल गए हैं क्योंकि अंतिम रूप से उन्हें वामदलों की लगाम से छुटकारा मिल गया है।
आगामी छह महीने कुछ ऐसे हो सकते हैं, जिसमें सुधार की नीति को गति दी जा सकती है। चार साल के लंबे अंतराल के बाद अगर सुधारों को गति दे दी जाए तो पूरी संभावना है कि 8 प्रतिशत की विकास दर को बरकरार रखा जा सकता है। ज्यादा उम्मीद है कि विभिन्न बाजार आपको आगामी महीनों में इस तरह के अवसर प्रदान करें।
अगर हम देखें तो वर्ष 2009 बहुत ही दिलचस्प होगा, क्योंकि इस साल नई गठबंधन सरकार सत्ता संभालेगी। सरकार को पहले ही साल सुधारों की सख्त जरूरत पड़ेगी, क्योंकि कई तरह के वित्तीय संकट उसके सामने होंगे। महंगाई की दर भी तुलनात्मक रूप से कम रहने की उम्मीद है और हम मौद्रिक नीति में वर्तमान नीति के विपरीत परिवर्तन देख सकते हैं।
कार्पोरेट जगत भी हो सकता है कि एक बार फिर कमर कसकर खड़ा हो जाए, क्योंकि साल की दूसरी छमाही में कमाई का दौर शुरू हो सकता है। ऐसी परिस्थितियों में निवेशक छोटी-छोटी कमियों को नजरंदाज करते हुए एक बार फिर भारत का रुख कर सकते हैं और भारत के विकास की क्षमता के प्रति उनका विश्वास लौट सकता है।