राष्ट्र राज्यों के मौजूदा विश्व में ऐसी कोई भी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था जो अंतरराज्यीय संबंधों का नियमन करना चाहे, उनके बीच शक्ति संतुलन को ही प्रदर्शित करती है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नियमों और मानकों तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के संचालन से बनती है। संस्थानों से अपेक्षा की जाती है कि वे उनकी निगरानी सुनिश्चित करेंगे। परंतु यह नियम बनाने वालों की निर्णायक शक्ति है जो प्रवर्तन की परिधि निर्धारित करती है।
बहरहाल, किसी भी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पीछे जहां शक्ति ही आधारभूत स्वीकृति होती है, वहीं वैधता इसका एक अन्य अपरिहार्य गुण होती है। कोई व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय इसलिए होती है क्योंकि उसमें भागीदारी करने वाले राज्य उसकी वैधता को स्वीकार करते हैं और उसके साथ जुड़े रहने में कुछ लाभ महसूस करते हैं। खासतौर पर वैश्विक सार्वजनिक बेहतरी के क्रम में जो अधिक शक्तिशाली राष्ट्रों की ओर से अन्य राष्ट्रों को मिलती है। उदाहरण के लिए सक्षम कारोबारी और वित्तीय व्यवस्था कायम रखना, उनके आर्थिक विकास के लिए सहयोग करना, प्राकृतिक आपदाओं के दौर में मदद और सैन्य चुनौतियों को लेकर सुरक्षा मुहैया कराना तथा विवाद की स्थितियों का प्रबंधन करना और मध्यस्थता करना।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे ताकतवर देश के रूप में उभरे अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी शेष विश्व के जीडीपी के 50 फीसदी से अधिक है। यह सर्वाधिक शक्तिशाली सैन्य राष्ट्र है और अपने समय के इकलौती परमाणु हथियार संपन्न देश के रूप में उसने एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम की जो बीते 75 वर्षों से कमोबेश कायम है। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि अमेरिका अपने आर्थिक और सैन्य शक्ति पराभव के बावजूद मोटे तौर पर दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बना रहा है। अब तक जिस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर उसका दबदबा था उसे दो अहम बातों ने हिला दिया है। पहली, अमेरिका स्वयं भी प्रतिबद्धताओं को धता बताकर या संस्थानों से बाहर रहकर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के अहम घटकों को सीमित करने के लिए कुछ हद तक स्वयं उत्तरदायी है। जो बाइडन इसमें सुधार का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यह एकदम आरंभिक चरण में है और पता नहीं इसका परिणाम क्या होगा। दूसरी बात, सात दशकों में पहली बार अब एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति है जो शक्ति के सभी मानकों यानी आर्थिक, सैन्य और तकनीकी क्षेत्र में अमेरिका को चुनौती दे रही है। शक्ति संतुलन बदल गया है और वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भी नजर आना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अपनी जगह को लेकर चीन का क्या नजरिया है? क्या उसे लगता है कि मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह पलट कर एक नई व्यवस्था कायम करना उसके हित में है? यदि वह ऐसा सोचता है तो क्या उसके ऐसा कर पाने की संभावना है?
हमें ध्यान देना चाहिए कि हाल के महीनों में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अपनी जगह को लेकर चीन की बातों में बदलाव आया है। सन 2018 में विदेश संबंध परिषद को संबोधन में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा था, ‘चीन जिस स्थिति में है उसमें वह मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत ही आया है। हम उस व्यवस्था को चुनौती क्यों देना चाहेंगे जो हमारे हित में है या हम दोबारा शुरुआत क्यों करना चाहेंगे?’ उसी भाषण में वांग यी ने यह भी कहा कि उन्हेंनहीं लगता कि चीन अमेरिका बनेगा और चीन अमेरिका को चुनौती नहीं देगा। न ही वह अमेरिका का स्थान लेगा।
हाल के दिनों में इस बयान का बाद वाला हिस्सा नदारद दिखा जिसमें अमेरिका का स्थान न लेने की बात कही गई थी। इसके बजाय इस वर्ष चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 100 वीं वर्षगांठ और 2049 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना की 100 वीं वर्षगांठ को देखते हुए यह लक्ष्य तय किया गया कि चीन व्यापक राष्ट्रीय शक्ति और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के क्षेत्र में वैश्विक नेता बने। यह भी कहा गया कि चीन वैश्विक शासन व्यवस्था में सुधारों का नेतृत्त्व करेगा।
चीन ने अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था को अमेरिका और पश्चिमी देशों की हिमायत वाला बताना शुरू कर दिया है और उसने उसके तथा यूएन चार्टर के तहत आने वाले वैश्विक शासन तंत्र में अंतर की बात करनी आरंभ कर दी है। इसने अमेरिकी हिमायत वाली व्यवस्था को खारिज करते हुए यूएन चार्टर वाली व्यवस्था की हिमायत की। नियम आधारित व्यवस्था के बारे में प्रश्न दागा गया कि कौन से नियम और उन्हें कौन बनाता है?
चीन भले ही मौजूदा व्यवस्था को पलटे न लेकिन यकीनन वह अपने कुछ नियम लागू करना या उसके हितों के प्रतिकूल कुछ मौजूदा नियमों को बदलना अवश्य चाहेगा। उसने स्वयं को वैश्विक मुक्त व्यापार व्यवस्था के अगुआ के रूप में पेश किया है। जलवायु परिवर्तन पर वह नेतृत्वकारी भूमिका चाहता है। वह अपने वित्तीय बाजारों को विश्व के साथ जोडऩा चाहता है। वह पश्चिम के नेतृत्व में बने मानकों और नियामकीय सिद्धांतों को अपनाने को तैयार है। साइबर, अंतरिक्ष और कृत्रिम मेधा जैसे नए क्षेत्रों में वह नियम निर्माण में सक्रिय भागीदारी के साथ अपने कद का इस्तेमाल करेगा। इन क्षेत्रों को लेकर उसकी बातचीत में चीन केे हितों की रक्षा का लक्ष्य स्पष्ट रहेगा। वह उन क्षेत्रों में जरूर उदार मूल्यों को पलटकर संप्रभुता की बात सामने रखना चाहेगा जो एकदलीय राज्य के रूप में उसकी पहचान से टकराते हैं। शिनच्यांग और हॉन्गकॉन्ग मेंं दमनकारी नीतियों की आलोचना को खारिज करने में इसे देखा जा सकता है। अमेरिका के साथ उसके भूराजनीतिक विरोध में एक वैचारिक घटक भी है।
चीन के एक बड़ी ताकत के रूप में उभार केे बावजूद अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य वैसा नहीं है जैसा दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात था। बीते 500 वर्षों में शक्ति संतुलन में परिवर्तन पश्चिमी तंत्र के दायरे में रहा है। ऐसे में गैर पश्चिमी देश की ओर स्थानांतरण अधिक जटिल और अधूरा रह सकता है। इतना ही नहीं आज किसी एक देश के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह निर्णायक नियम तैयार करे और अन्य देश उसका अनुपालन करें। खुद एशिया के भूराजनीतिक क्षेत्र में भारी भीड़भाड़ है। इसके बावजूद चीन शक्ति को लेकर वर्गीकृत दृष्टि रखता है। वह अपने क्षेत्र के देशों पर वीटो अधिकार चाहता है और उसके हितों को नुकसान पहुंचाने वालों पर जुर्माना लगाना चाहता है। यही वजह है कि चीन के प्रभुत्व वाली व्यवस्था को लेकर चिंता बढ़ी है। भारत आज ऐसी स्थिति में है जहां ध्रुवीकृत घरेलू राजनीति और महामारी केे दौरान लगे झटकों ने उसकी संभावनाओं पर असर डाला है। परंतु भूराजनीतिक परिदृश्य निरंतर बदल रहा है। ऐसे में भारत के पास वापसी का अवसर हो सकता है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
