दुनिया इस तरह बदली है जिसकी खासकर उन लोगों नेकल्पना तक न की होगी कि लोगों के एक दूसरे के साथ जंग छेडऩे के लिए उनमें धर्म, संस्कृति या सभ्यता का अंतर होना जरूरी है।
शीत युद्ध के अंत के बाद वैश्विक राजनीति विज्ञान एवं रणनीतिक समुदायों में कई नये विचार उभरे। इनमें एक प्रमुख विचार था सन 1993 में आया सैम्यूल हटिंगटन का सभ्यताओं के संघर्ष का विचार। यह विचार उनके ही उत्कृष्ट शिष्य फ्रांसिस फूकूयामा के द एंड ऑफ हिस्ट्री (ऐंड द लास्ट मैन) की प्रतिक्रिया स्वरूप या उसके उत्तर में उभरा। फूकूयामा ने अपना मत हटिंगटन से एक वर्ष पहले सामने रखा था। अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगी कि उक्त दोनों विचार बूचा, मारियूपोल और खारकीव के मलबों में दफन हो चुके हैं। परंतु इन दिनों इतना कुछ घट रहा है जो शीतयुद्ध के बाद की बहसों और सिद्धांतों को दोबारा खोलने के लिए पर्याप्त है।
इस समय क्या हो रहा है? स्लाव नस्ल के लोग स्लाव से ही लड़ रहे हैं यानी गोरी दुनिया में आपसी टकराव छिड़ा हुआ है। रूढि़वादी ईसाई (जिन्हें हटिंगटन ने एक सभ्यता बताया था) रूढि़वादियों से ही लड़ रहे हैं। यानी कहा जा सकता है कि धर्म या धार्मिक व्यवस्था इस समीकरण से बाहर है। यही कारण है कि पश्चिमी ताकतें यूरोप में एक बार फिर आपस में उलझ गई हैं। उनका सामना जिस बड़े ताकवर सैन्य शक्ति संपन्न यानी रूस से है उसे एशिया में चीन के रूप में करीबी सहयोगी हासिल है। इस तरह एक नया शीत युद्ध शुरू हो चुका है।
फिलहाल तो जरूरी यही है कि जो नयी विडंबनाएं और विरोधाभास आदि उभर रहे हैं, हम उन्हें इस स्तंभ की तय शब्द सीमा में समेट लें। आखिर सोवियत युग के टी-72 टैंक वारसा संधि के पूर्व सदस्य चेक गणराज्य से ट्रेन के जरिये ढोए जा रहे हैं। एस-300 मिसाइलें स्लोवाकिया से पहुंचाई जा रही हैं और यह सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका और नाटो की ओर से प्रायोजित रूप से हो रहा है। यूरोपीय देश जिस समय रूस के खिलाफ यूक्रेन को हथियारबंद कर रहे थे उसी समय वे रूस से 38 अरब डॉलर मूल्य का ईंधन भी खरीद रहे थे। बहरहाल, इस सप्ताह हम इस विषय पर चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि हमें हर बार एक जटिल विषय की तलाश रहती है।
यह बात हमें इस्लामिक दुनिया के समक्ष ला खड़ा करती है। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि बेचारे मुसलमानों का इन सब चीजों से क्या वास्ता? उन्हें तो कच्चे तेल की कीमतों में इजाफे का दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। असल मुद्दा यही है।
हटिंगटन ने अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट में दिए अपने भाषण, फॉरेन अफेयर्स में लिखे अपने लेख तथा आखिर में अपनी किताब में अनेक संभावनाओं पर विचार किया लेकिन दुनिया भर ने उसी संभावना को तवज्जो दी जिसमें पश्चिमी (ईसाई) और इस्लामिक सभ्यताओं के बीच टकराव की बात कही गई थी।
यह अल कायदा के उभार से बहुत पहले और 9/11 के हमलों से भी करीब एक दशक पहले की बात थी। उस वक्त आर्थिक या राजनीतिक शक्ति के मामले में कोई इस्लामिक देश इतना ताकवर नहीं था कि वह पश्चिमी ईसाई ताकतों के लिए खतरा बन सके। पाकिस्तान के पास परमाणु बम था लेकिन कद नहीं था। अब उसके पास और अधिक बम हैं और कद और भी कमतर। उस वक्त तक कोई देश इतना भयाक्रांत करने वाला नहीं था, चीन भी नहीं। ऐसे में सामरिक विचारकों का मानना था कि कोई एक शक्ति हो सकती है जो कई देशों को एकजुट कर सके। ऐसा केवल इस्लाम कर सकता था, खासतौर पर उम्मा की अपनी अवधारणा के चलते।
इन सिद्धांतों के तीन दशक बाद और 9/11 के दो दशक बाद यह बहुत विश्वसनीय दिखती थी लेकिन आज कोई इसकी बात नहीं करता। एक सभ्यता की दूसरी के साथ लड़ाई के बजाय एक ही सभ्यता, नस्ल और भौगोलिक क्षेत्र में युद्ध शुरू हो गया है। सन 1990 के दशक के आरंभ में जब एक नये विवाद की कल्पना की जा रही थी तब इस्लामिक दुनिया स्वाभाविक रूप से संदेहास्पद नजर आ रही थी। हटिंगटन ने मोटे तौर अपनी पश्चिमी बनाम इस्लामिक की अवधारणा के लिए तीन वजह दीं: दोनों धर्मशास्त्र पर आधारित मिशनरी आधारित हैं जो दूसरों का धर्मांतरण करना चाहते हैं। दोनों अद्वैत हैं और एक ही ईश्वर के उपासक हैं। उस तक पहुंचने का उनका तरीका भी एक है। इन बातों के बावजूद टकराव क्यों नहीं हुआ?
मुस्लिम दुनिया वैश्विक अखबारों की सुर्खियों में नजर नहीं आती। तब भी नहीं जब सऊदी अरब यमन में साथी मुसलमानों और अरबों पर हमला करता है या जब इजरायल फिलीस्तीनियों पर तीव्र हमले करता है। तब भी नहीं जब दुनिया के इकलौते परमाणु हथियार संपन्न मुस्लिम गणराज्य में राजनीतिक तमाशा चलता है, रोहिंग्या मुसलमानों की प्रताडऩा और हत्याएं जारी रहती हैं और जब चीन शिनच्यांग के उइगर मुस्लिमों के खिलाफ भीषणतम अत्याचार करता है।
अब तक मुस्लिम दुनिया से अपेक्षा थी कि वह एकजुट होकर इस सभ्यतागत खतरे के खिलाफ खड़ी हो जाएगी। आज वहां जो भी लड़ाइयां हैं वे आंतरिक हैं। ईरान बनाम सऊदी अरब और खाड़ी के अमीर देशों के बीच बड़े झगड़े हैं। यमन, लेबनान और सीरिया इसी छद्म युद्ध के शिकार हैं। तुर्की में रेचेप तैयब एर्दोआन (ईरान के उलट तुर्की में ज्यादातर सुन्नी मुस्लिम हैं) भी इसी होड़ में शामिल हैं। यूक्रेन प्रकरण ने इसे भी अस्तव्यस्त कर दिया है।
एर्दोआन हड़बड़ी में सुधार करते हुए इजरायली राष्ट्रपति का असाधारण स्वागत कर रहे हैं। इसके अलावा सऊदी अरब (जिससे वह अब तक नफरत करते थे) को खुश करने के लिए वॉशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जमाल खशोगी की हत्या की जांच को दबा रहे हैं।
अति पवित्र ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज (ओआईसी) ने इस्लामाबाद में अपनी ताजा बैठक में उइगर मुस्लिमों का जिक्र तक नहीं किया बल्कि चीनी विदेश मंत्री वांग यी को सबसे सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। पाकिस्तान ने भी पश्चिम के साथ अपने संबंधों की दिशा परिवर्तित की है। मुस्लिम दुनिया की अगुआई का सपना देखने वाले इमरान खान अब पदमुक्त हो चुके हैं। खान ने यह सपना इसलिए देखा क्योंकि उन्हें लगता है कि वह संयुक्त राष्ट्र को इस्लामोफोबिया के विरुद्ध वर्षगांठ मनाने के लिए राजी कर सके। बहरहाल अब वह अपने ही देश में सत्ता से बेदखल हो चुके हैं। ईसाइयत और इस्लाम के बीच लड़ाई की आशंका इसलिए थी क्योंकि दोनों एकेश्वरवादी हैं और उनका चरित्र मिशनरी है। यहूदी भी इससे अलग नहीं हैं। वही ईश्वर, वही आधार, वही पवित्र व्यक्तित्व आदि। उनमें और मुस्लिम दुनिया में टकराव काफी पुराना है। दक्षिणपंथी हिंदुत्व की बहस में इसे अब्राहमिक धर्मों की दुनिया कहा जाता है। आज, पश्चिम एशिया में तीनों एक साथ हैं।
यदि ईसाई, मुस्लिम और यहूदी आपस में शांति स्थापित कर रहे हैं, यदि मुस्लिम यहां-वहां मुस्लिमों से ही लड़ रहे हैं, यदि हटिंगटन ने हिंदू सभ्यता के लिए जिन तीन देशों भारत, नेपाल और भूटान का नाम लिया था उनमें से पहले दो क्षेत्रीय दावों को लेकर उलझे हुए हैं, भारत में दक्षिणपंथी हिंदू जहां मुस्लिमों के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं और मुस्लिम जगत से उन्हें इकलौती सहानुभूति अल कायदा के अयमान अल जवाहिरी से मिल रही है जो वे बिल्कुल नहीं चाहते, जब सभी प्रमुख इस्लामिक देश नरेंद्र मोदी को अपने शीर्ष सम्मान से नवाज रहे हैं, जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक शांति को सबसे बड़ा खतरा यूरोप के बीचों बीच और ईसाई सभ्यता में उभरा है तो जाहिर है यह दुनिया कुछ इस तरह बदली है जैसा किसी ने सोचा भी न होगा। निश्चित तौर पर उन लोगों ने तो बिल्कुल नहीं जिन्होंने कल्पना की होगी कि लोग धर्म, संस्कृति और सभ्यतागत अंतर की वजह से अवश्य बंटेंगे और एक दूसरे के साथ जंग पर उतारू हो जाएंगे। विभिन्न देशों के आपसी जंग में उलझने की वजहें आज भी वही पुरानी हैं: लालच, शक्ति, अहंकार और नफरत।