महामारी के दौरान देश की बीमा कंपनियों ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के ग्राहकों की तादाद में इजाफा हुआ और साथ ही सामान्य बीमा पॉलिसी में भी। इसके साथ ही वाहनों की बीमा योजनाओं के भुगतान में कमी आई क्योंकि लंबे समय तक कड़ा लॉकडाउन लागू था। गत वित्त वर्ष के दौरान गैर जीवन बीमाकर्ताओं का सकल प्रत्यक्ष प्रीमियम 5.19 फीसदी बढ़ा जबकि सकल प्रत्यक्ष प्रीमियम आय (जीडीपीआई) 1.98 लाख करोड़ रुपये रही।
जीवन बीमा कंपनियों का प्रदर्शन भी अच्छा रहा। गत वर्ष के दौरान उन्हें 2.78 लाख करोड़ रुपये का नया प्रीमियम हासिल हुआ और उन्होंने सालाना आधार पर 7.49 फीसदी की वृद्धि की। इस क्षेत्र में निजी बीमा कंपनियों का प्रदर्शन और अच्छा रहा और उन्होंने 16.29 फीसदी की वृद्धि हासिल की। जीवन बीमा क्षेत्र का कुल प्रीमियम 5.73 लाख करोड़ रुपये रहा जिसमें निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब एक तिहाई रही। गैर जीवन बीमा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब आधी हो चुकी है। इससे ज्यादा वृद्धि की आशा के बावजूद इसमें संदेह नहीं कि बीमा क्षेत्र का प्रदर्शन कमजोर है। देश में जीडीपी की तुलना में चुकता बीमा प्रीमियम का अनुपात 3.76 फीसदी है। इसमें गैर जीवन बीमा की हिस्सेदारी एक फीसदी है। यह प्रीमियम वैश्विक औसत से काफी कम है। कम आय वर्ग, महिलाओं और छोटे कस्बों में भी बीमा की पहुंच अपेक्षित ढंग से नहीं बढ़ी है। स्वास्थ्य बीमा क्षेत्र में खास दिक्कत है जो महामारी के दौरान खासतौर पर रेखांकित हुई। बीमा नियामक द्वारा अनुशंसित मानक बीमा योजनाएं जनता के लिए मददगार साबित नहीं हुईं।
बीमा कंपनियां इन योजनाओं को प्रचारित नहीं करतीं बल्कि वे उन योजनाओं को वरीयता देती हैं जिनके प्रावधान अस्पष्ट होते हैं और जिसके चलते दावों में विवाद उत्पन्न होता है। बीमा कंपनियां उच्च स्तरीय, स्वस्थ व्यक्तियों को लक्ष्य बनाते हैं और उन्हें ऐसे प्रीमियम पर योजनाएं बेचती हैं जो नियामक की मानक योजनाओं से भी कम मूल्य की हो सकती हैं। इससे मानकीकरण की बात पूरी तरह सीमित हो जाती है।
जीवन बीमा की समस्या और जटिल होती है। दुनिया में हर जगह बीमा को बीमा की तरह बेचा जाता है, न कि निवेश की तरह। दुख की बात है कि भारत में इसका उलट सच है। आक्रामक एजेंट और बैंकों के ‘रिलेशनशिप मैनेजर’ बीमा योजनाओं को निवेश योजना बताकर गलत तरीके से बेचते हैं। जीवन बीमाकर्ता और स्वयं सरकार भी इस गलत बिक्री में शामिल हैं। जहां तक सरकार की बात है, भारतीय जीवन बीमा निगम एक दुधारू गाय है और इसलिए उसके पास जीवन बीमा को निवेश के रूप में बेचने की बात पर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। कर व्यवस्था भी इसे बढ़ावा देती है क्योंकि जीवन बीमा प्रीमियम और यूनिट लिंक्ड बीमा योजनाओं को आयकर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत कर बचत निवेश में शामिल किया गया है। कुलमिलाकर स्थिति यह है कि ग्राहकों के अलावा सबका भला हो रहा है। बीमाकर्ता लाभकारी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और न तो नियामक और न ही सरकार हालात को बदलना चाहती है।
आशा है तकनीक, विनिवेश और विदेशी निवेश के नए नियम इस स्थिति को बदलने में मदद करेंगे। सरकार ने आखिरकार बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने के कदम उठा लिए हैं और वादा किया है कि वह भारतीय जीवन बीमा निगम में अपनी हिस्सेदारी कम करेगी। इस बीच बीमा एग्रीगेटर धीरे-धीरे एजेंटों के हिस्सेदारी में सेंध लगा रहे हैं। प्रीमियम के अनुसार तो उनकी हिस्सेदारी केवल 1.3 फीसदी है लेकिन वे तेजी से जगह बना रहे हैं। कुछ पारंपरिक बीमा कंपनियां एग्रीगेटरों की पारदर्शिता से नाखुश हैं और वे उनसे दूरी बना रही हैं। बहरहाल, डिजिटल पारदर्शिता ही एकमात्र रास्ता है जो इस अहम क्षेत्र में नियामकीय परित्याग से उपजी कमी को दूर कर सकता है।