अर्थव्यवस्थाएं समय के साथ ढांचागत रूप से बदलती हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में बदलाव की गति यकीनन ज्यादा होती है। ऐसे में समय पर जरूरी नीतिगत हस्तक्षेप में सक्षम होने के लिए यह आवश्यक है कि नीति निर्माता बदलाव की प्रकृति और गति को समझें। यही कारण है कि आंकड़े जुटाने से संबंधित सरकारी विभाग आर्थिक गतिविधियों एवं मूल्यों के आकलन के तरीकों में लगातार सुधार करते रहते हैं। इस संदर्भ में जैसा कि इस समाचार पत्र ने गत सप्ताह प्रकाशित किया था, सरकार थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष बदलकर 2017-18 करने की प्रक्रिया में है। मौजूदा आधार वर्ष 2011-12 है। प्रस्तावित बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे थोक मूल्य बदलावों को समझने में भी मदद मिलेगी।
आधार वर्ष में बदलाव के अलावा सरकार का इरादा डेटा संग्रह का दायरा और आकार बढ़ाने का भी है। माना जा रहा है कि सूचकांक में शामिल जिंसों में करीब 50 फीसदी का इजाफा होगा और विनिर्माण समूह का काफी विस्तार होगा। सूचकांक में हर जिंस से संबंधित रिपोर्टिंग प्रतिष्ठानों की तादाद भी काफी बढऩे की संभावना है। उक्त बदलाव सूचकांक की गुणवत्ता सुधारने में मदद करेगा। इससे वृद्धि का वास्तविक तथा अधिक सटीक आकलन करने में भी सहायता मिलेगी। बहरहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर सरकार ने आधार वर्ष में बदलाव के लिए और अद्यतन वर्षों का चयन क्यों नहीं किया। इसके अलावा व्यापक स्तर पर देखें तो विभिन्न स्तरों पर मूल्यों में बदलाव का सटीक आकलन करने के लिए काफी कुछ किया जाना आवश्यक है।
थोक मूल्य सूचकांक से सीमित उद्देेश्य ही पूरे होते हैं। यह कहा गया कि भारत को अधिक प्रतिनिधित्व वाले उत्पादक मूल्य सूचकांक का रुख करना चाहिए जो कारोबारों को मूल्यों में बदलाव का सटीक आकलन करने में मदद करेगा। यह ऐसा सूचकांक होता है जो किसी वस्तु या सेवा के मूल्य में बदलाव का आकलन उस समय करता है जब उत्पादन की जगह में प्रवेश करते हैं या उससे बाहर निकलते हैं। वहीं दूसरी ओर थोक मूल्य सूचकांक कीमत का आकलन थोक लेनदेन के स्तर पर करता है। इसमें कर एवं परिवहन लागत भी शामिल हो सकती है जबकि उत्पादक मूल्य सूचकांक दरअसल उस मूल्य को दर्ज करता है जो उत्पादक हासिल करता है। कच्चे माल और अंतिम उत्पादन के लिए ऐसे अलग-अलग सूचकांक स्थापित किए जा सकते हैं। इसके अलावा थोक मूल्य सूचकांक में सेवाएं शामिल नहीं होतीं जबकि देश के उत्पादन में उनकी अहम हिस्सेदारी है। उत्पादक मूल्य सूचकांक में उन्हें शामिल किया जा सकता है। ऐसे में उत्पादन स्तर पर मूल्य में परिवर्तन का आकलन करने के लिए उत्पादक मूल्य सूचकांक का रुख करना सही प्रतीत होता है। बीते दशकों में कई देशों ने थोक मूल्य सूचकांक के स्थान पर उत्पादक मूल्य सूचकांक की व्यवस्था अपना ली है। ऐसे में भारत सरकार को भी ऐसी पहल करनी चाहिए।
इस संदर्भ में यह उल्लेेख करना जरूरी है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में संशोधन भी काफी समय से लंबित है। सन 2017-18 के उपभोक्ता व्यय सर्वे को लेकर सरकार के पूर्वग्रह के कारण भी यह टलता रहा। सर्वे का अगला चरण महामारी के कारण प्रभावित हुआ। अब जबकि देश लगभग खुल चुका है तो सरकार को इस प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा करना चाहिए। यह दलील भी दी गई है कि मौजूदा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वास्तविक खपत को नहीं दर्शाता है। चूंकि खुदरा मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति मौद्रिक नीति का सांकेतिक आश्रय है इसलिए यह अहम है कि सूचकांक उपभोक्ता कीमतों की वास्तविक स्थिति दर्शाए। सामान्य रूप से यह बेहतर है कि सरकार थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष बदले लेकिन विभिन्न स्तरों पर मुद्रास्फीति के समुचित आकलन के लिए काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
