इस वर्ष अप्रैल-जून तिमाही में समेकित निजी खपत में इस कदर गिरावट आई है कि यह अप्रैल-जून 2017-18 के स्तर तक जा गिरी। यदि इसे अलग-अलग करके देखा जाए तो यह मानने की पर्याप्त वजह है कि बीते कुछ वर्षों में गरीबों और मध्य वर्ग की खपत स्थिर ही नहीं रही है बल्कि उसमें कमी भी आई है।
आम धारणा है कि कम खपत इसलिए है कि कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के सामने तमाम तरह की कठिनाइयां आई हैं। बल्कि हम यह भी कह सकते हैं कि कोविड-19 के आगमन के बहुत पहले वृद्धि प्रक्रिया में धीमापन आने के कारण खपत में कमी आ गई थी। बहरहाल इसकी एक और महत्त्वपूर्ण वजह है कर नीति। हमारे देश में तेल पर भारी भरकम कर लगता है और भारी भरकम मुद्रास्फीति कर इससे अलग है।
तेल पर लगने वाले भारी-भरकम कर के बारे में सभी जानते हैं। कुछ अरसे से पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले कर की कुल दर 75 से 125 फीसदी के बीच है। इसका सीधे तौर पर जनता पर बहुत अधिक असर भले न पड़ता हो लेकिन इसका अप्रत्यक्ष और समग्र प्रभाव बहुत ज्यादा होता है।
तेल पर लगने वाला कर आय कर की तरह नहीं है। आय कर प्रगतिशील कर है और वह आय के साथ बढ़ता है। तेल पर लगने वाला कर समान रहता है फिर चाहे तेल को अमीर खरीदे, मध्यवर्ग का व्यक्ति खरीदे या गरीब खरीदे। ऐसे में गरीबों और मध्य वर्ग के लोगों की आय या खपत की तुलना में कर अधिक होता है जबकि अमीरों के लिए यह उतना अधिक नहीं होता।
मुद्रास्फीति कर
तेल पर लगने वाले कर के अलावा हमारे देश में एक और कर है जिसे अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति कर कहते हैं। इसकी दर भी बहुत अधिक है। मुद्रास्फीति कर वह कर है जो लोग तब चुकाते हैं जब मुद्रास्फीति के कारण उनकी नकदी का वास्तविक मूल्य कम होता जाता है। अक्सर नॉमिनल ब्याज दर मुद्रास्फीति के साथ तालमेल वाली नहीं रहती।
यदि इसे अलग-अलग करके देखा जाए तो मुद्रास्फीति कर कम जानकार और अपेक्षाकृत वंचित वर्ग के लोगों पर भारी पड़ता है। प्रभावशाली और जानकार नागरिक इससे कम प्रभावित होते हैं क्योंकि वे नकदी कम रखते हैं और वे ब्याज भी कम दरों पर हासिल करते हैं। ऐसी स्थिति में मुद्रास्फीति कर भी तेल पर लगने वाले कर की तरह प्रतिगामी साबित होता है।
तेल कर और मुद्रास्फीति कर पर एक साथ विचार करने की वजह एकदम सामान्य है। तेल पर लगने वाले कर के ऊंचा रहने के कारण मुद्रास्फीति की प्रक्रिया तेज हुई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीतिक प्रक्रिया इसलिए जारी रखी है कि कहीं अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदी की प्रक्रिया तेज न हो जाए। यह स्पष्ट लेकिन दिलचस्प बात है कि केवल उच्च तेल कर के कारण मुद्रास्फीति ऊंची रखने के कारण उसे अतिरिक्त नकदी जारी करनी पड़ रही है। यह बात मायने रखती है। क्यों?
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आरबीआई के लिए मुद्रा जारी करने की लागत बहुत अधिक नहीं है। जारी की गई मुद्रा की मदद से उन निवेशों का वित्त पोषण किया जा सकता है जिनसे आरबीआई की अच्छीखासी आय होती है। ऐसे में उसका मुनाफा या अधिशेष बहुत अधिक होता है और वह तथाकथित लाभांश आय को भारत सरकार को स्थानांतरित करता है।
परंतु दरअसल यही मुद्रास्फीति कर है क्योंकि छापी जाने वाली अतिरिक्त नकदी अगर मुद्रास्फीति को जन्म नहीं देती तो भी कम से कम उसे बरकरार रखने का काम तो करती ही है। हाल के समय में यह भारी भरकम तेल कर से संबद्ध है। तेल कर और मुद्रास्फीति कर दोनों साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं लेकिन दोनों एक नहीं हैं। मुद्रास्फीति कर तेल कर से ऊपर और उससे ज्यादा है।
तेल कर
सन 2020-21 में सरकार ने तेल पर 3.4 लाख करोड़ रुपये का कर लगाया। आरबीआई से होने वाली तथाकथित लाभांश आय वार्षिक आधार पर करीब 1.33 लाख करोड़ रुपये रही। संशोधित अनुमानों के अनुसार आय पर कर करीब 4.59 लाख करोड़ रुपये रहा। ऐसे में भारत सरकार द्वारा तेल कर और तथाकथित लाभांश आय दोनों मिलाकर कुल आय कर संग्रह से अधिक रहे। जनता से इतना अधिक प्रतिगामी कर वसूलने के बाद खपत का प्रभावित होना बहुत नहीं चौंकाता।
भारत सरकार इतना अधिक कर क्यों वसूलती है? कोविड-19 से जुड़ी वजहों, कुछ कल्याण योजनाएं, अतीत के तेल बॉन्ड आदि के अलावा कॉर्पोरेट कर दर में कमी के कारण राजस्व में नुकसान तथा उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं के कारण व्यय में इजाफा भी इसकी वजह है।
ये नीतियां तथाकथित असंगठित क्षेत्र से दूरी को बढ़ावा दे सकती हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वे ऐसे समय में आर्थिक वृद्धि को गति देंगी जबकि खपत में इजाफा नहीं हो रहा है। हालांकि खपत में इजाफा न होने की एक वजह मुद्रास्फीति कर और तेल कर भी है। हम एक ओर वृद्धि को बढ़ावा दे रहे हैं और दूसरी ओर इसे हतोत्साहित कर रहे हैं। वृद्धि को बढ़ावा वंचितों की कीमत पर दिया जा रहा है। अब वक्त आ गया है कि इस प्रक्रिया में बदलाव लाया जाए।
(लेखक स्वतंत्र अर्थशास्त्री एवं भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)