उद्योग जगत को बाजार पूंजीकरण के प्रति मोह छोड़कर बाजार के सामान्य मूल सिध्दांतों की ओर जाना चाहिए और अधिसंख्य लोगों की क्रय शक्ति को ध्यान में रखते हुए उत्पाद बनाने चाहिए। बता रहे हैं अरविंद सिंघल
इस समय हमारे चारों ओर आर्थिक अशांति में कमी के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। शुक्र है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और कुछ प्रमुख आर्थिक मंत्रालयों को आखिर महसूस हो ही गया कि भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह वैश्विक अर्थव्यवस्था की हलचलों से अछूता रह जाए।
इसी वजह से उन्होंने मान ही लिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदी से बचाने के लिए गंभीर कदम तो उठाने ही पड़ेंगे लेकिन भारत के कार्पोरेट जगत की मौजूदा स्थिति के प्रति जो प्रतिक्रिया रही है, वह हैरानी में डाल देने वाली है।
अमेरिका, आर्थिक मंदी से उबरने के उपाय के रूप में बेलआउट प्लान लेकर आया। उसके बाद वहां और सरकारी बेलआउट की मांग जोर पकड़ने लगी। ऐसा लगता है कि अमेरिका से प्रेरणा लेकर भारतीय निजी क्षेत्र के कुछ तबकों की ओर से भी इस तरह के बेलआउट प्लान के लिए आवाजें उठने लगीं।
इनमें से जो सरकार से सब्सिडी और संरक्षणवाद के माध्यम से मदद के लिए आवाज उठा रहे हैं, उनमें रियल्टी सेक्टर जो मामला रख रहा है, वह सबसे ज्यादा चिंताजनक है। जब हाल ही में 2003 में अर्थव्यवस्था में उछाल शुरू हुआ, दिल्ली के विभिन्न इलाकों में जमीन की कीमतें 40,000 रुपये से 60,000 रुपये प्रति वर्ग गज थीं।
गुड़गांव में बिल्डर मध्य आय वर्ग के लिए फ्लैट की बुकिंग 2200-2,500 रुपये प्रति वर्ग फीट पर करने का ऑफर दे रहे थे। वहीं दक्षिण मुंबई के प्रीमियम आवासीय इलाकों में कीमतें 4,000 रुपये प्रति वर्ग फीट थीं। गुड़गांव में आफिस के लिए किराया 30-35 रुपये प्रति वर्ग फीट प्रति माह था वहीं मुंबई में किराया 100 रुपये प्रति वर्ग फुट और इससे भी ज्यादा था।
अप्रैल 2008 में ये कीमतें बढ़कर क्रमश: 4,00,000 रुपये प्रति वर्ग गज, 6000 रुपये और 28,000 रुपये प्रति वर्ग फीट और 120 से 400 रुपये प्रति वर्गफीट प्रति माह हो गईं। यह बढ़ोतरी 300 प्रतिशत से लेकर 1000 प्रतिशत तक रही, जिसके चलते तमाम भारतीय डेवलपर्स फोर्ब्स पत्रिका के बिलियनर्स यानी 1 अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति वाले धनाढयों की सूची में शामिल हो गए।
इसका परिणाम यह हुआ कि प्राथमिक खरीदारों द्वारा आवासीय और व्यावसायिक संपत्ति की मांग कम हो गई, जो वास्तव में उसका प्रयोग करते। जब कीमतें बढ़ने से रियल एस्टेट पहुंच से बाहर होता गया तो केवल बाजार के सटोरिये ही इसकी खरीदारी करने लगे।
इस स्थिति में, रियल एस्टेट सेक्टर यह मांग करने लगा कि सरकार को आवास ऋण पर ब्याज की दरें कम करनी चाहिए। वे इस हकीकत से इनकार कर रहे है कि जब तक कि 2003 के या 2005 के स्तर पर कीमतें नहीं आ जातीं, जिससे कि वे वास्तविक रूप से इस्तेमाल करने वालों के खरीदने के लायक या वाणिज्यिक लिहाज से ठीक हो जाएं, तब तक रियल्टी सेक्टर में फिर से उछाल नहीं आएगा, चाहे कर्ज पर ऋण कितना ही क्यों न हो जाए।
इसी तरह के कुछ आंकड़े अन्य तमाम सेक्टरों से भी दिये जा सकते हैं। 2003 से 2008 के बीच स्टील और सीमेंट जैसी जिंसों के दामों में 100 प्रतिशत से 300 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। नागरिक विमानन क्षेत्र में खुद की गलतियों और खामियों के चलते मुसीबत आई।
घाटे को पूरा करने के लिए किराये में बढ़ोतरी की गई, जबकि ज्यादातर स्थापित व्यवसायों ने कार्पोरेट यात्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया। यह सेक्टर पिछले कुछ सालों से अपने घाटे की भरपाई नहीं कर पा रहा है, क्योंकि किराये में बढ़ोतरी के चलते यात्रियों की संख्या में कमी आ गई।
2006 तक बिजनेस ट्रैवेलर, इकनॉमी और बिजनेस क्लास के लिए 5000 रुपये और 8000 रुपये में कार्पोरेट कूपन बुकलेट खरीद सकते थे। इस दौरान विमान के ईंधन की कीमतों में बेशक 100 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई।
हालांकि कुल संचालन खर्च में विमान ईंधन का खर्च करीब 30 प्रतिशत आता है, ऐसे में यह बात समझ से परे है कि इस दौरान किरायों में 100 से 150 प्रतिशत की बढ़ोतरी क्यों हो गई। इस क्षेत्र में होटल भी कम गुनहगार नहीं हैं, जिन्होंने इतने कम समय में बेतहाशा बढ़ोतरी की।
इस दौरान साल भर में 25 से 50 प्रतिशत किराया दो बार बढ़ाया गया। यह साल दर साल 5 वर्षों तक चलता रहा। और आखिर में नए दौर के तेजी से बढ़ने वाले आईटी, आईटीईएस, रिटेल, बैंकिंग, वित्त और बीमा सेक्टरों में अपनी भी तमाम दिक्कतें आईं, जिससे उनके संचालन खर्च में बढ़ोतरी हुई।
इसमें महंगाई के चलते बेतहाशा बढ़ते वेतन और तमाम अन्य संचालन मूल्यों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी की भी अहम भूमिका रही।
भारत का कार्पोरेट जगत और शेष भारत जिस तरह की चुनौतियों का सामना आज कर रहा है, उसका समाधान बहुत जटिल नहीं है। इसकी मूल वजह यह है कि हमने मूल आर्थिक सिध्दांतों को खत्म नहीं किया है, जैसा कि अमेरिका और अन्य देशों में देखने को मिल रहा है।
भारतीय उद्योग जगत को बाजार पूंजीकरण के प्रति सम्मोहन को छोड़कर बाजार के सामान्य मूल सिध्दांतों की ओर जाना चाहिए, जिसमें बेहतर गुणवत्ता वाले और लोगों की पहुंच को देखते हुए उत्पाद बनाने चाहिए, जो भारत के अधिसंख्य लोगों की क्रयशक्ति के भीतर हो।
इसी तरह से किसी भी कीमत पर विकास के प्रति सम्मोहन को छोड़कर कारोबार के मूल सिध्दांतों पर आधारित विकास की ओर ध्यान दिए जाने की जरूरत है, जहां सभी इनपुट कीमतें सही-सही लगाई जाएं।
और आखिर में सब्सिडी और बेलआउट पैकेज की मांग को छोड़कर भारत के कार्पोरेट जगत के लोगों को सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि वह नीतिगत बदलाव करे, जिससे इनपुट कीमतें कम हों और पूंजी जुटाना आसान हो।
उदाहरण के लिए रियल एस्टेट सेक्टर में सुधार से, जिसमें मूल रूप से उच्च एफएसआई शामिल हो, उपभोक्ताओं और डेवलपर्स दोनों के लिए जीत की स्थिति होगी। नागरिक विमानन, रिटेल और वित्तीय सेवा क्षेत्र में ज्यादा उदार एफडीआई नीति से बेहतर विकास की संभावनाएं बनेंगी।
यह स्थिति ब्याज दरों के कम करने से भी बेहतर होगी। तमाम अधिशुल्क और लाभांश वितरण कर को खत्म करके प्रभावी तरीके से कार्पोरेट टैक्स दरों में कमी कर उद्योग जगत को सहारा दिया जा सकता है।
इसलिए कार्पोरेट इंडिया और सरकार को एक दूसरे से रियायतें मांगकर या आश्वासन मांगने के बजाय मिल जुलकर विकास को तेज करने वाले अर्थव्यवस्था के मूल सिध्दांतों पर काम करना चाहिए ताकि वे अर्थव्यव्यवस्था को गति प्रदान कर सकें।