पश्चिमी मीडिया ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद भारत में और भारत से होने वाली उच्चस्तरीय यात्राओं का समाचार जमकर प्रसारित किया। इनमें गत 14 मई को द इकनॉमिस्ट में प्रकाशित एक असामान्य रूप से अनुकूल रिपोर्ट शामिल थी। तात्पर्य यह है कि रूस और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के बीच जर्मनी में लड़े जा रहे अघोषित युद्ध ने भारत के लिए अवसरों की भरमार कर दी है। भारत अब पश्चिम के साथ अपने सामरिक और आर्थिक हितों में अधिक समायोजन चाह सकता है क्योंकि पश्चिमी धड़े की भारत जैसे देश को अपने पक्ष में करने की चाह होगी। इस आलेख में इसी विचार की पड़ताल की गई है।
क्राइमिया को कैथरीन द ग्रेट ने 18वीं सदी के अंत में रूसी साम्राज्य में शामिल किया था और वह सोवियत संघ का हिस्सा था। ऐसे में व्लादीमिर पुतिन के पास 2014 में क्राइमिया को वापस लेने की उचित ऐतिहासिक, सामरिक और आर्थिक वजहें थीं। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के पीछे आर्थिक या सैन्य दृष्टिकोण से पर्याप्त तर्क नहीं हैं। यहां तक कि यूक्रेन के मारियूपोल बंदरगाह पर 18 मार्च को किया गया कब्जा भी अति थी।
18 मई को फिनलैंड और स्वीडन ने औपचारिक रूप से नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन किया। तुर्की की आपत्ति के बावजूद लगता है कि ये दोनों देश नाटो के सदस्य बन ही जाएंगे। इसके दो दिन पूर्व 16 मई को पुतिन ने रूस के नेतृत्व वाले सुरक्षा संधि संगठन में खामोश प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने बस यह कहा कि रूस नहीं चाहता कि इन दोनों देशों में नाटो का कोई सैन्य बुनियादी ढांचा स्थापित हो।
देखा जाए तो रूस एक क्षमता संपन्न सैन्य और परमाणु हथियार वाला देश है और यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से उसकी क्षेत्रीय अखंडता और सुरक्षा को कोई खतरा नहीं हो सकता। पूर्व सोवियत संघ किसी बाहरी सशस्त्र हस्तक्षेप से नहीं टूटा। यकीनन अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने सोवियत साम्राज्य को क्षति पहुंचाने का हरसंभव प्रयास किया। सोवियत संघ के विभाजन की दो प्रमुख वजहों में से एक तो यह थी कि समाजवादी गणराज्य रूस से आजादी और बेहतर जीवन चाहते थे। यूक्रेन पर रूस के इस हमले के कई कारणों में से एक पुतिन और उनके इर्दगिर्द के लोगों को उन लोगों के संभावित खतरे से बचाना भी हो सकता है जो इस बात से असंतुष्ट हैं कि उनके देश की प्रति व्यक्ति आय यूरोपीय संघ के देशों के समान नहीं है।
जी 7 और नाटो देशों के साथ चीन की आर्थिक और आपूर्ति शृंखला संबंधी संबद्धता रूस की तुलना में बहुत गहरी है। हालांकि चीन ने काफी आर्थिक प्रगति की है लेकिन एकदलीय चीन का नेतृत्व पश्चिम को लेकर रूस की चिंताओं का साझेदार हो सकता है। उदाहरण के लिए अमेरिका-यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम चीन में बहुदलीय लोकतंत्र का उभार चाहेंगे जो पश्चिम की आर्थिक और सामरिक प्राथमिकताओं के अनुरूप हो। इस संदर्भ में पश्चिम का राजनीतिक-सैन्य प्रतिष्ठान शायद रूस और चीन को एक साथ रखने के बजाय त्रिकोणीय स्थिति में रखना चाहता है।
यूक्रेन में अघोषित युद्ध ने यूरोप की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं जर्मनी, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम तथा नीदरलैंड को रूस के विरुद्ध एकजुट किया। यूरोपीय संघ के लिए चीन रूस की तुलना में अधिक अहम कारोबारी और निवेश साझेदार है। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपीय संघ की व्यापक अर्थव्यवस्थाएं चीन के साथ समग्र संंबंध को लेकर पुनर्विचार कर रही हैं। इस बदलाव का एक लक्षण यह है कि दिसंबर 2020 का यूरोपीय संघ-चीन निवेश समझौता अब तक यूरोपीय संसद में अटका हुआ है।
भारत के आर्थिक पहलुओं की बात करें तो अभी भी कई कारक हमारे अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए युवा बढ़ती तादाद में सूचना प्रौद्योगिकी ऐप्लीकेशन का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत चीनी वस्तुओं पर उच्च अमेरिकी शुल्कों का फायदा उठा सकता है और निर्यात को बढ़ावा दे सकता है जैसा कि वियतनाम ने किया और नाभिकीय ऊर्जा समेत नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन बढ़ा सकता है। पश्चिम शायद अब अपने निजी क्षेत्र को वे तकनीक साझा करने को कह सके जो अब तक पहुंच से बाहर थीं। इसके अलावा भारत समग्र अर्थव्यवस्था में औपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ा सकता है और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में तेजी से इजाफा किया जा सकता है। भारत को जो सबसे कठिन बदलाव करने होंगे उनमें भारतीय राजनीतिक दलों द्वारा बिजली और खाद्य सब्सिडी तथा रोजगार-शिक्षा कोटा व्यवस्था शामिल हैं।
भारत के लिए ये आर्थिक चुनौतियां नयी नहीं हैं। लेकिन भारत के पक्ष में हालिया रणनीतिक बदलाव के कारण बाहरी माहौल में जो सुधार आया है वह एक बड़ा अंतर है। भारत को पश्चिम के साथ अपेक्षाकृत अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहिए। यह लाभ व्यापार, निवेश और खासतौर पर तकनीक संबंधित समझौतों में लिया जा सकता है। भारत को रूस के मामले में भी अमेरिका, यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम के साथ संबंधों को संभालना चाहिए, वह भी बिना किसी पक्ष को नाराज किए।
भारत को लेकर चीन की शत्रुता निरंतर जारी है। मई1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के समय भी यह प्रत्यक्ष नजर आई थी और अक्टूबर 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के संदर्भ में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के भीतर भी यह नजर आई। चीन के साथ गहन आर्थिक संबंधों के बावजूद अमेरिका अब उसे पश्चिम के लिए गंभीर चुनौती की तरह देखता है। इस संदर्भ में टोक्यो में 23-24 मई को अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया (क्वाड) के प्रमुखों की बैठक में इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी (आईपीईएफ) के गठन की घोषणा हुई जिसमें सभी प्रमुख आसियान देश, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल होंगे। कुछ दिन पहले अमेरिका ने चीन की अपेक्षित नाराजगी को दरकिनार कर दिया था जब अमेरिकी उप मंत्री और तिब्बती मामलों की विशेष समन्वयक उजरा जेया ने 19 मई को धर्मशाला में दलाई लामा से मुलाकात की थी।
गर्म तपते रेतीले इलाकों में यात्रा कर रहे लोगों को अक्सर कुछ दूरी पर पानी के होने का आभास होता है जो दरअसल कुछ और नहीं बल्कि मृग मरीचिका होती है। ऐसी मरीचिकाओं के उलट भारत अगर सही कदम उठाता है तो वह टिकाऊ उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल कर सकता है और चीन के बरअक्स अपने क्षेत्रीय तथा अन्य जोखिमों को कम कर सकता है।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
