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  लेख  भारतीय नौसेना को सही मायनों में विमान वाहक पोत की जरूरत
लेख

भारतीय नौसेना को सही मायनों में विमान वाहक पोत की जरूरत

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 19, 2021 11:34 PM IST
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विमान वाहक पोत हाल के दिनों में चर्चा में रहे हैं। जुलाई में ब्रिटिश युद्धपोतों का एक बेड़ा जिसका नेतृत्व रॉयल नेवी का प्रमुख विमान वाहक पोत हर मैजेस्टीज शिप क्वीन इलिजाबेथ (एचएमएस क्यूई) दक्षिण चीन सागर जाते हुए हिंद महासागर से गुजरा। यह क्यूई का इस क्षेत्र में पहला दौरा था और इसका इरादा ब्रिटिश सुरक्षा नीति में हिंद-प्रशांत झुकाव को प्रदर्शित करना था। अक्टूबर के आरंभ में क्यूई ने दो अमेरिकी विमान वाहक पोतों- यूनाइटेड स्टेट्स शिप (यूएसएस) रोनाल्ड रीगन और यूएसएस कार्ल विंसन तथा एक जापानी हेलीकॉप्टर वाहक पोत जापानी पोत शिप ईसे के साथ मिलकर ताइवान के आसपास के सागर की गश्त शुरू की जहां करीब 100 चीनी सैन्य विमानों ने ताइवान के दावे वाले हवाई क्षेत्र में घुसपैठ की। यह सैन्य शक्ति और विमान वाहक पोत की ताकत का नमूना था। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने कहा था, ‘एक विमान वाहक पोत 100,000 टन कूटनीति के बराबर होता है।’
अक्टूबर में ब्रिटेन वापस जाते समय क्यूई के नेतृत्व वाले बेड़े ने अरब सागर में भारतीय नौसेना के साथ तीन सेनाओं वाली कवायद कोंकण शक्ति में प्रशिक्षण कार्यक्रम किया। भारतीय नौसेना ने अपने इकलौते विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य को संयुक्तअभ्यास में नहीं लगाया। भारतीय पोत निर्माण के लिए 4 अगस्त एक ऐतिहासिक दिन था जब देश के पहले स्वदेशी विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत ने कोचीन शिपयार्ड से पहली परीक्षण यात्रा शुरू की। इस समय समुद्र में उसका दूसरे दौर का परीक्षण चल रहा है। देश के शीर्ष शासकीय अंकेक्षक के मुताबिक विक्रांत का विनिर्माण 12 वर्ष की देरी से चल रहा है और इसकी अंतिम लागत मूल से 13 गुना अधिक होगी। इसके बावजूद यह संकेत देने के काम आएगा। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने अपनी विदेश नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘नरमी से बात कीजिए और एक बड़ी सी छड़ी पास रखिए: आप दूर तक जाएंगे।’ अमेरिकी नौसेना के बड़े विमान वाहक पोत यूएसएस थियोडोर रूजवेल्ट को द बिग स्टिक के नाम से भी जाना जाता है।
अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में भारतीय, अमेरिकी, जापानी और ऑॅस्ट्रेलियाई नौसेनाओं ने मलाबार 2021 में एक साथ अभ्यास किया। हिस्सा लेने वालों में यूएसएस कार्ल विंसन तथा जे एस कागा जैसे पोत प्रमुख थे। इससे पहले 15 सितंबर को अमेरिका ने ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन का मुकाबला करने के लिए त्रिपक्षीय सुरक्षा साझेदारी की जिसे ऑकस (ऑस्ट्रेलिया-यूके-अमेरिका) नाम दिया गया। पहली घोषणा में कहा गया कि यूके और अमेरिका ऑस्ट्रेलिया को आठ परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बी बनाने के लिए तकनीक और धन देंगे। अमेरिकी विमान वाहक पोत ऑकस की रीढ़ होंगे।
हालांकि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहस अभी भी यही है कि क्या नौसेना को तीसरे विमान वाहक पोत की जरूरत है। मौजूदा नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह और उनके तमाम पूर्ववर्ती भी सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि ऐसे तीन पोत आवश्यक हैं। इससे हमारी पूर्वी और पश्चिमी समुद्री मोर्चों पर हमारी तीनों सेनाओं की क्षमता बढ़ेगी जबकि तीसरा पोत आरक्षित रखा जा सकता है। विमान वाहक पोत विविध भूमिकाएं निभाने में सक्षम होते हैं और ये हमारी क्षमता बहुत अधिक बढ़ा देते हैं।
तीसरे विमान वाहक पोत का विरोध वायु सेना से हो रहा है जिसका दावा है कि वह नौसेना तथा कैरियर बैटल ग्रुप (सीबीजी) को तटवर्ती हवाई अड्डों से सहयोग कर सकती है। वह अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को एक ऐसा विमान वाहक पोत बताती है जो डूब नहीं सकता। तीनों सेनाओं के प्रमुख जनरल विपिन रावत इस नजरिये का समर्थन करते हैं। वह कह चुके हैं कि ऐसे पोत बहुत महंगे होते हैं और शत्रु इन पर आसानी से हमला कर सकता है। वह इसके बजाय पनडुब्बियों की खरीद बढ़ाने के हिमायती हैं। तथ्य यह है कि सीबीजी तट से जितनी दूर होगा, तटवर्ती हवाई सहयोग उतना ही सीमित होगा।
आईएनएस विक्रांत के निर्माण के बावजूद उपयुक्तशक्तिशाली तथा सक्षम स्वदेशी विमान वाहक पोत विकसित करने के लिए भारत को अमेरिकी, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश नौसेनाओं से सीख लेनी चाहिए। इसलिए क्योंकि भारत ने केवल 44,000 टन या कम क्षमता के छोटे विमान वाहक संचालित किए हैं। इसमें आकार का महत्त्व है क्योंकि इसी से तय होता है कि पोत पर कितने विमान आ सकते हैं। आमतौर पर एक पोत 1,000 टन क्षमता पर एक विमान संचालित कर सकता है। 44,000 टन के आईएनएस विक्रांत पर 36 विमान रह सकते हैं जिनमें 30 मिग 29 के लड़ाकू विमान और छह कामोव हेलीकॉप्टर शामिल हैं। तटवर्ती हवाई समर्थन से दूर संचालित ऐसे पोत को कम से कम 50-60 विमानों का समर्थन चाहिए, साथ ही लड़ाकू क्षमता का भी ध्यान रखना होता है। यानी करीब 65,000 टन क्षमता वाले पोत जो भारत ने कभी नहीं बनाए।
पोत पर तैनात सभी विमान लड़ाकू नहीं होते। उनमें से कुुछ के लिए लंबे रनवे की जरूरत होती है जो विक्रमादित्य या विक्रांत जैसे पोत पर उपलब्ध नहीं। अमेरिका ने इसके लिए 100,000 टन क्षमता के सुपरकैरियर पोत बनाए और विमानों को भी 2-3 सेकंड में लॉन्च करने वाली तकनीक विकसित की। नया इलेक्ट्रोमैग्नेटिक एयरक्राफ्ट लॉन्च सिस्टम तो विमान को सीधे टेक ऑफ की गति प्रदान करता है। बहरहाल भारतीय नौसेना का विचार है कि क्यूई का इंटीग्रेटेड ऑल इलेक्ट्रिकल प्रॉपल्सन सिस्टम उसके काम का हो सकता है। विमान वाहक पोत की युद्धक क्षमता उन विमानों पर निर्भर होती है जो उस पर होते हैं। रूसी मिग-29के/केयूबी को आईएसी-1 से उड़ान भरने के लिए डिजाइन किया गया था लेकिन वह निराशाजनक साबित हुआ है। नौसेना को वैश्विक बाजारों से 57 कैरियर आधारित मल्टी रोल लड़ाकू विमानों की खरीद या डीआरडीओ द्वारा विकसित किए जा रहे दो इंजन वाले डेक आधारित लड़ाकू विमान निर्माण की प्रक्रिया तेज करनी होगी। तब जाकर आईएएसी-2 चीनी नौसेना का मुकाबला करने में सक्षम हो सकेगा।

एचएमएस क्यूईकरमबीर सिंहभारतीय नौसेनायुद्धपोतविमान वाहक पोतहेलीकॉप्टर
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