गुजरात में मुस्लिमों की पिटाई के मामले पर राष्ट्रीय दलों और नेताओं की खामोशी दिखाती है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ ताकतें कितनी डर गई हैं और यही वजह है कि कट्टर मुस्लिम उस खाली जगह को भर रहे हैं।
इस समय भारतीय मुस्लिमों के लिए कौन आवाज उठाता है? मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद जो शून्य उत्पन्न हुआ है उसे कौन भर सकता है या भरने की कोशिश कर रहा है? इसका जवाब है-कोई नहीं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रतिद्वंद्वी मुस्लिमों के वोट चाहते हैं लेकिन वे उनके नेता के रूप में दिखने से बचते हैं।
मैं साफ कर दूं कि इस सप्ताह का स्तंभ दिवंगत मुलायम सिंह यादव के लिए लिखी जा रही विभिन्न श्रद्धांजलियों या आलोचनाओं में से एक और नहीं है। बात यह है कि सन 1990 के बाद से वह भारतीय मुस्लिमों के सबसे मुखर प्रवक्ता के रूप में उभरे। भाजपा ने उनका मखौल उड़ाते हुए उन्हें ‘मौलाना मुलायम’ का नाम तक दिया। उनका निधन इस बात को परखने के लिए एक महत्त्वपूर्ण अवसर देता है कि मुस्लिम नेतृत्व को लेकर उत्पन्न शून्य की पड़ताल की जाए और यह भी परखा जाए कि विभाजन के बाद से ही भारतीय मुसलमानों के नेता अक्सर हिंदू क्यों हुए हैं।
ऐसे सप्ताह में यह बात खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है जब सर्वोच्च न्यायालय ने हिजाब प्रकरण को ऐसी दिशा दे दी है जो न्यायिक से अधिक राजनीतिक है। गुजरात में चुनाव होने हैं और राज्य के खेड़ा जिले में तालिबान या इस्लामिक स्टेट की शैली में मुस्लिम युवाओं की पिटाई को लेकर भी उन लोगों ने कोई टिप्पणी नहीं की जो नरेंद्र मोदी को पराजित करने की मंशा रखते हैं। जहां यह घटना हुई वहां हिंदुओं की भीड़ मौजूद थी जो पिटाई का समर्थन कर रही थी। उनका कथित अपराध यह था कि उन्होंने स्थानीय गरबा समारोह में पथराव किया था।
अगर वे दोषी थे भी तो देश का संविधान किसी को इस प्रकार दंडित करने की इजाजत नहीं देता। सार्वजनिक पिटाई कभी हिंदू परंपरा का हिस्सा नहीं रही। कम से कम हमारी स्मृति में तो ऐसा नहीं हुआ है। यह अत्याचार हमारे राजनीतिक विकास को दिशा देने वाली घटना हो सकता है। इसकी तस्वीरें उसी तरह हमारी स्मृति में बस सकती हैं जैसे जिया उल हक के कार्यकाल में लोगों को कोड़े मारने की घटनाएं हमें याद दिलाती हैं कि धार्मिक चरमपंथ कितना अजीब हो सकता है।
युवा विद्वान आसिम अली ने ‘द प्रिंट’ में एक आलेख में एक सवाल किया: हम कोड़े मारने की इस घटना को तालिबान शैली का क्यों कह रहे हैं? हम इसे हिंदुत्व शैली क्यों नहीं कह रहे हैं? इस बात को समझा जा सकता है और कई हिंदू यह सवाल कर सकते हैं कि आखिर कोई हिंदुओं की तुलना पूर्व मध्ययुगीन, हिंसक और अराजक इस्लामिक ताकतों से कैसे कर सकता है?
परंतु पाकिस्तान में जब अहमदिया संप्रदाय के लोगों को पुलिस कोड़े मार रही थी और तहरीक ए लब्बैक शैली में भीड़ उत्साहवर्धन कर रही थी तब हमने न तो इस पर सवाल किए और न चिंतन-मनन किया। हम उतने नाराज भी नहीं हुए जितना होने का हमने दिखावा किया।
ऐसे में हमारे सामाजिक, संवैधानिक और नैतिक मूल्यों पर प्रश्न न उठा पाने का दोष क्या हम पर होना चाहिए यानी बहुसंख्यक वर्ग पर? ऐसा कहना खुद को दोषी मानना होगा और बेमानी भी होगा क्योंकि इससे मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग को कोई राहत नहीं मिलेगी। न ही लोग हालात की गंभीरता को समझेंगे। ऐसे ही समय पर विविधतापूर्ण लोकतांत्रिक गणराज्य को राजनीतिक आवाजों की जरूरत होती है। बीते सप्ताह ये आवाजें सुनने को नहीं मिलीं।
सन 2022-24 में सर्वाधिक अहम राजनीतिक विवाद यही है कि हर पार्टी की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता को कैसे परिभाषित किया जाए? अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इस समय गुजरात में हैं क्योंकि वहां अगले महीने होने वाले चुनाव में पार्टी को अवसर नजर आ रहा है। पंजाब में जीत के बाद अगर पार्टी प्रधानमंत्री के गृह राज्य में अच्छा प्रदर्शन करती है तो 2024 तक वह देश भर में मजबूत राजनीतिक शक्ति बन जाएगी। क्या आपने कहीं पढ़ा कि आप के नेताओं या प्रवक्ताओं में से कोई खेड़ा के पीड़ितों घर पहुंचा हो? संवाददाता सम्मेलन किया हो या इस विषय में ट्वीट ही किया हो?
केजरीवाल की पार्टी को ही दोष नहीं दिया जा सकता है। हमने सबसे पहले उसका नाम इसलिए लिया कि इस समय भाजपा के खिलाफ सबसे मुखर वही नजर आ रही है। कांग्रेस, जो कि गुजरात में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी रही है और जो 2017 में जीत के बहुत करीब पहुंच गई थी, वह भी खामोश है। भारत जोड़ो यात्रा को लेकर चर्चा है लेकिन गुजरात पर खामोशी है।
भारत जोड़ो यात्रा यह कहकर की जा रही है कि भाजपा ने देश को बांट दिया है। अगर ऐसा है तो कांग्रेस गुजरात में हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश क्यों नहीं कर रही है? जिग्नेश मेवाणी गुजरात में कांग्रेस का सबसे प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने अपना करियर और प्रतिष्ठा सामाजिक कार्यों से बनाई है। खेड़ा में वह भी नहीं दिखे। कन्हैया कुमार जो जेएनयू में रहते हुए अक्सर आंदोलन करते और भाषण देते नजर आते थे वह भी यात्रा की तस्वीरें और वीडियो पोस्ट करते हैं लेकिन गुजरात और खेड़ा का जिक्र नहीं करते।
मुस्कराते हुए राहुल गांधी, युवाओं और बुजुर्गों से गले मिलते नजर आते हैं। यहां तक कि हिजाब वाली एक स्कूली बच्ची के साथ उनकी तस्वीर नजर आती है। ऐसा करके वह नरेंद्र मोदी के उलट साहस, विविधता को अपनाने और समता की तस्वीर पेश करते हैं। अगर यही उनका लक्ष्य है तो क्या बेहतर नहीं होता कि वह खेड़ा के पीड़ितों को गले लगाते हुए तस्वीर जारी करते। पी चिदंबरम, मेवाणी और केसीआर के बेटे केटीआर जैसे नेताओं ने या तो ट्वीट किए या फिर चलताऊ टिप्पणियां करके आगे निकल गए।
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज कराई। आम आदमी पार्टी के एक नेता ने अपने साक्षात्कार में बताया कि गुजरात में इस मसले से किनारा क्यों किया गया? उन्होंने कहा, ‘गुजरात में कानून व्यवस्था की स्थिति उत्तर प्रदेश या बिहार से भी खराब है। गुजरात सुरक्षित नहीं है।’ मामले से दूरी बनाने की यह प्रवृत्ति यही बताती है कि भाजपा के प्रतिद्वंद्वी मुस्लिमों के प्रति सहानुभूति दिखाने से इस कदर घबराते हैं कि ऐसे मामलों से कतरा कर निकल जाना बेहतर समझते हैं।
वे मानते हैं कि अब उनको मुस्लिमों के लिए बोलने की जरूरत नहीं है क्योंकि भाजपा के डर के मारे वे उन्हें वोट देंगे ही। सबसे प्रमुख उदाहरण यह है कि आप सरकार ने शाहीन बाग में हुए विरोध प्रदर्शन और दिल्ली में हुए दंगों से अपने आपको एकदम अलग कर लिया था। हम जानते हैं कि दिल्ली में पुलिस पर उनका नियंत्रण नहीं है लेकिन दंगाग्रस्त इलाके में पार्टी की उपस्थिति लोगों को आश्वस्त करती, उनके घाव भरने में मदद करती। दो वर्ष से अधिक समय से जेल में बंद लोगों के लिए कानून के सामने समान व्यवहार की मांग भी नहीं की गई। यही यथार्थपरक राजनीति है।
एक ओर तो आप के नेता खेड़ा और ऐसी तमाम जगहों से अनुपस्थित रहे जहां मुस्लिम पीड़ित थे। जबकि उसी सप्ताह पार्टी ने लोगों से यह वादा किया कि वे लोगों को अयोध्या में बने नए राम मंदिर की मुफ्त यात्रा करवाएंगे। जिस समय यह बड़ा राजनीतिक खेल हो रहा है उस बीच 20 करोड़ से अधिक अल्पसंख्यकों को बेसहारा छोड़ दिया जा रहा है। चंद राज्यों को छोड़कर देश की यही हकीकत है। यह शून्य बढ़ गया है और कोई धर्मनिरपेक्ष शक्ति उसे भर नहीं रही है। ऐसे में स्थानीय स्तर का मुस्लिम नेतृत्व अपनी जगह बना रहा है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, पीएफआई और उससे संबद्ध संगठन ऐसा ही कर रहे हैं।
आजाद भारत में मुस्लिम राजनीति की यह उलटी दिशा है। मुहम्मद अली जिन्ना के बाद भारतीय मुस्लिमों ने किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं माना तो इसकी वजह थी। उन्होंने न केवल भारत का बंटवारा किया बल्कि अपने समुदाय को भी बांट दिया। आज अगर भारत अविभाजित होता तो 180 करोड़ की आबादी वाले देश में 60 करोड़ मुस्लिम एक बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति होते। जिन्ना ने उपमहाद्वीप में मुस्लिम शक्ति निर्मित नहीं की बल्कि उसे नष्ट कर दिया। यही कारण है कि भारतीय मुस्लिमों ने कांग्रेस और गांधी परिवार में आस्था जताई। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद ने हिंदी प्रदेश के मुस्लिमों का भरोसा हासिल किया।
समय के साथ उनकी राजनीति कमजोर पड़ी क्योंकि उनकी राजनीतिक दृष्टि परिवारों तक सीमित हो गई। आज भी तेलंगाना से बाहर के अधिकांश मुसलमान ओवैसी को वोट नहीं देते जबकि वह इस समुदाय के सबसे मुखर प्रवक्ता हैं। मुसलमान यह देख रहे हैं कि कैसे खेड़ा जैसे अत्याचार के बीच भी अधिकांश धर्मनिरपेक्ष ताकतें उनके साथ दिखने से डर रही हैं, साथ देना तो बहुत दूर की बात है। इंदिरा गांधी या युवा लालू और मुलायम सिंह यादव में ऐसा कोई डर नहीं था। मुस्लिम अधिकारों को लेकर बात कर रही नई ताकतें इसी खाली स्थान को भर रही हैं। जरूरी नहीं कि ये सभी लोकतांत्रिक हों। पीएफआई का किस्सा इसकी शुरुआती चेतावनी है।