अगस्त के पहले सप्ताह में मीडिया में रिपोर्ट आईं कि कैनबरा स्थित नैशनल गैलरी ऑफ ऑस्ट्रेलिया ने 14 प्राचीन भारतीय पेंटिंग और कलाकृतियां लौटाने का निर्णय लिया है जिनमें 12वीं सदी के बाल संत संबंदर की नृत्य मुद्रा वाली मूर्ति शामिल है। इन कलाकृतियों को सुभाष कपूर नामक न्यूयॉर्क का एक पूर्व आर्ट डीलर तस्करी करके ले गया था। इन बेशकीमती वस्तुओं के बारे में पूरी जानकारी शायद कभी सामने न आए पाए जिनमें मुगल बादशाहों का वह मयूर सिंहासन भी शामिल है जिसे मार्च 1739 में नादिर शाह दिल्ली से लूट कर ले गया था। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो उन भारतीय कलाकृतियों और मूल्यवान वस्तुओं का बेहतर लेखाजोखा मौजूद है जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव तथा भारत में काम करने वाले अन्य ब्रिटिश सरकार के प्रशासक सन 1858 से 1947 के बीच यहां से ले गए।
रॉबर्ट क्लाइव को जून 1757 में नवाब सिराजुद्दौला पर ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत का श्रेय दिया जाता है। क्लाइव उच्च मूल्य वाली तमाम कलात्मक वस्तुओं को भारत से बाहर ले गए। क्लाइव के बेटे एडवर्ड क्लाइव को सन 1798 में मद्रास का गवर्नर नियुक्तकिया गया। उसने भी भारत में अपने कार्यकाल के दौरान तमाम कलाकृतियां विदेश भेजीं। ये अनमोल वस्तुएं अब वेल्स के पॉविस कैसल में लोगों के देखने के लिए रखी हुई हैं। यह कैसल सन 1952 में ब्रिटेन के नैशनल ट्रस्ट के अधीन हुआ। पॉविस कैसल में रखी अधिकांश कलाकृतियां सन 1600 से 1830 के बीच की हैं और इनमें मूर्तियां, हाथी दांत, आभूषण और पारंपरिक जिरह बख्तर शामिल हैं।
भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान यहां से जो कीमती कलाकृतियां बार ले जाई गईं वे लंदन के विक्टोरिया ऐंंड अल्बर्ट म्यूजियम (वीऐंडए) में प्रदर्शित हैं। वीऐंडए के भारत वाले खंड में दूसरी सदी ईसापूर्व से लेकर 15वीं सदी तक की कलाकृतियां रखी हैं। यहीं पर शिव की तांबे की बनी नटराज मुद्रा वाली मूर्ति है जो 12वीं सदी में तमिलनाडु में बनी थी। इस मूर्ति को सन 1935 में लॉर्ड एंपथिल ने ‘दान’ में दिया था जो सन 1900-1906 के बीच मद्रास के गवर्नर थे। वीऐंडए में प्रदर्शित एक और प्रमुख कलाकृति जो कोयंबत्तूर के खजाने से निकली थी वह 15वीं सदी की है। यह कलाकृति लॉर्ड कर्जन ने वीऐंडए को 1927 में ‘वसीयत’ की थी। कर्जन 1898 से 1905 के बीच भारत के वायसराय रहे थे। सन 2012-2013 के बीच वीऐंडए की यात्राओं के दौरान मुझे याद है मैंने कई हजारों वर्ष पुरानी कलाकृतियां देखीं जो उपायुक्त स्तर के भारतीय अफसरशाहों द्वारा ‘भेंट’ के रूप में दी गई थीं।
लंदन में ही स्थित रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी के पास देश के पूर्वी और पश्चिमी तटों की बेशकीमती तस्वीरें हैं। इन्हें ब्रिटिश पोतों के सर्वेक्षकों ने 17वीं और 18वीं सदी में इन क्षेत्रों में बनाया था। इसके अलावा लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी में ईस्ट इंडिया कंपनी (1600-1858), बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स फॉर द अफेयर्स ऑफ इंडिया (1784-1858) और इंडिया ऑफिस (1858-1947) के आर्काइव और रिकॉर्ड संरक्षित हैं। संभव है कि इनमें सर्वाधिक संवेदनशील दस्तावेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध न हों। ब्रिटिश लाइब्रेरी की यात्रा के दौरान मैं ईस्ट इंडिया कंपनी मिलिट्री बोर्ड के सदस्यों द्वारा सड़कों, इमारतों और सिंचाई आदि को लेकर दर्ज लिखित रिकॉर्ड को देखकर दंग रह गया था। इसमें पेशावर जाने वाली ग्रांड ट्रंक रोड पर बने पुलों की इंजीनियरिंग और फंड के ब्योरे, सन 1842 में रुड़की के निकट ऊपरी गंगा नहर की खुदाई आदि के ब्योरे शामिल थे। मेरे प्रयासों के बावजूद भारत सरकार ने ब्रिटिश लाइब्रेरी में दफन इंजीनियरिंग के नायाब टुकड़ों पर शोध में रुचि नहीं दिखाई। स्कॉटलैंड और ब्रिटेन के तमाम हिस्सों में ऐसे ऐतिहासिक महत्त्व के ऐसे तमाम कागजात और बहुमूल्य कलाकृतियां रखी हुई हैं।
देश के पश्चिमोत्तर ओर पश्चिमी हिस्से पर जमीनी और समुद्री आक्रमण करने वालों ने देश की तमाम कलाकृतियों को नष्ट किया। सारनाथ में अनेक मूर्तियों के चेहरे और नाक टूटी हुई देखी जा सकती है। मुंबई के तट से 11 किलोमीटर दूर एलिफैंटा गुफाओं में भी यह देखा जा सकता है। ये गुफाएं पांचवीं सदी ईस्वी की हैं और शिव की एक मूर्ति तो सात मीटर ऊंची है। दक्षिण भारत के मंदिरों और महलों से कई मूर्तियां और अन्य कलाकृतियां देश से बाहर ले जाई गईं और उत्तर में आक्रांताओं ने कई बार उच्च कलात्मक मूल्य वाली कृतियों को नष्ट कर दिया या उनमें तोडफ़ोड़ की। आपसी लड़ाइयों में भी महत्त्वपूर्ण स्थापत्य नष्ट हुआ। उदाहरण के लिए विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) के महलों और मंदिरों के अवशेष कर्नाटक में हंपी में देखे जा सकते हैं।
देश के तमाम नागरिक न तो ब्रिटेन जा सकते हैं और न ही वे देश के भीतर मौजूद ऐतिहासिक महत्त्व की जगहों पर जा सकते हैं। उन्हें अपनी कलात्मक और इंजीनियरिंग संबंधी विरासत के बारे में भी बहुत कुछ मालूम नहीं होता। इस बात की संभावना बहुत कम है कि भारत सरकार ब्रिटिश संग्रहालयों पर यह दबाव बना पाएगी कि वे भारत से ले जाई गई कलाकृतियों को वापस करें। विभिन्न महाद्वीपों के बीच विभिन्न संग्रहालयों में इनका आदान-प्रदान कम ही होता है क्योंकि सुरक्षित आवागमन में दिक्कत होती है और बीमा लागत बहुत अधिक होती है। आज भी देश के अधिकांश अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में इतिहास के पाठ्यक्रम में आमतौर पर केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक और मुगल कालखंड को शामिल किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप देश के निर्णय प्रक्रिया में शामिल वर्गों में से कई को देश के इतिहास के बारे में सामान्य जानकारी है और ए एल बाशम की 1954 में आई पुस्तक का शीर्षक उधार लें तो उन्हें ‘वंडर दैट वाज इंडिया’ (हिंदी में ‘अद्भुत भारत’ नाम से प्रकाशित) के बारे में अधिक जानकारी नहीं है।
भारत सरकार इस दिशा में यह प्रयास कर सकती है कि 10 हिस्सों में एक-एक घंटे अवधि के वृत्तचित्रों की शृंखला बनाई जाए। इनमें देश के ऐतिहासिक महत्त्व वाली मूल्यवान जगहों, मानचित्रों और दस्तावेजों को त्रि-आयामी होलोग्राफिक छवि के माध्यम से पेश किया जाना चाहिए। इनमें उन तमाम चीजों को शामिल किया जाना चाहिए जो अब ब्रिटेन तथा दुनिया भर में यहां वहां रखे हुए हैं। ऐसी पहल में निजी क्षेत्र को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसमें इन्फोसिस, टाटा समूह और रिलायंस इंडस्ट्रीज को शामिल किया जा सकता है। इस सहकारी प्रयास में ब्रिटिश काउंसिल और न्यूयॉर्क स्थित मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ ऑर्ट को भी शामिल किया जा सकता है। ये वृत्तचित्र अंग्रेजी में बनने चाहिए और इन्हें तमाम भारतीय भाषाओं में डब किया जाना चाहिए। इनके निर्माण में भरपूर कल्पनाशीलता बरतनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह देश और विदेश में भरपूर रुचि का विषय होगा।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)