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  लेख  संकट से घिरा भारत का विमानन उद्योग
लेख

संकट से घिरा भारत का विमानन उद्योग

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 24, 2008 10:04 PM IST
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वित्तीय संकट के मौजूदा दौर में लगभग हर ओर से बुरी खबर आ रही है। इसी बीच भारतीय विमानन क्षेत्र से भी ऐसी खबरें मिलने लगी हैं जो खासा परेशान करने वाली हैं।


जेट एयरवेज ने जो ड्रामा किया वह किसी की भी समझ से परे था, हालांकि अब तक एयरलाइंस उद्योग में जेट एयरवेज को काफी सम्मान के साथ देखा जाता था।

जिन लोगों का विमानन जगत से जरा सा भी सरोकार रहा होगा, चाहे वे लोग जिन्होंने पहली बार उड़ान भरने का अपना सपना पूरा किया हो, या जो अक्सर कारोबार या फिर घूमने फिरने के लिए हवाई यात्रा करते हों, या फिर ऐसे सैकड़ों हजारों लोग जिन्हें विमानन उद्योग की वजह से रोजगार मिला हो या फिर केवल खुद से सरोकार रखने वाले राजनीतिक नेता और नौकरशाह, सभी ने इस हाई वोल्टेज ड्रामा को देखा और यह उनकी उत्सुकता का विषय बन गया था।

 कई दशकों तक भारत का नागर विमानन मंत्रालय सिर्फ और सिर्फ एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस का ही मंत्रालय बना हुआ था। वर्ष 1953 में जब से नागरिक विमानन का राष्ट्रीयकरण किया गया तब से सरकारी विमानन कंपनियों को खास संरक्षण दिया जाने लगा। उन्हें निजी विमान कंपनियों की प्रतियोगिता से बचाने की हर संभव कोशिशें की जाती रही हैं ताकि राजनीतिक नेता और नौकरशाह अपनी आवश्यकता के अनुसार निजी विमानों की तरह उनका इस्तेमाल कर सकें।

शायद यहां इस्तेमाल की जगह पर दुरुपयोग शब्द ज्यादा सटीक रहेगा। ऐसे राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों को सरकारी विमानों में उड़ान भरने के लिए कंप्लीमेंट्री ट्रैवल पास (इनमें से कुछ तो जीवन भर के लिए होते हैं) दिए जाते रहे हैं, दोस्तों और परिवारों के लिए विमानों में बिना किसी रोक टोक के अपग्रेड की सुविधा, नौकरशाहों को किसी यात्रा के दौरान एक साथी ले जाने की सुविधा जिसके तहत वे अपनी पत्नी को ऑफिस के दौरे पर साथ ले जाते हैं, चाहे वह भारत के बाहर की यात्रा भी क्यों न हो।

जब लोड फैक्टर अधिक होता था तो उस समय भी इन नेताओं और नौकरशाहों को मिलने वाली विमान सुविधाओं में किसी तरह की कटौती नहीं की जाती थी।ऐसे में इन दोनों सरकारी विमान कंपनियों का निजीकरण करना सरकार के लिए अपनी सुख सुविधाओं पर कैंची चलाने की तरह होता, भले ही खुद सरकार के पास इन विमान कंपनियों के विस्तार के लिए संसाधन मौजूद नहीं थे।

इस बीच अंतरराष्ट्रीय विमान कंपनियों ने भी अपनी बाजार हिस्सेदारी को बढ़ाना शुरू कर दिया था और इस तरह उनके राजस्व और मुनाफे का ग्राफ भी बढ़ता चला जा रहा था। खासतौर पर यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों के रास्तों पर उन्होंने अपनी मजबूत पकड़ बनानी शुरू कर दी थी।

1990 में जब विमान क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोला गया था तब ही यह साफ कर दिया गया था कि इस उद्योग में किसी तरह के विदेशी निवेश की कोई जगह नहीं होगी। साथ ही यह भी कि कम लोड फैक्टर वाले मार्गों पर अंतरराष्ट्रीय विमान कंपनियों को उड़ान भरने की इजाजत नहीं होगी।

इस आदेश के बाद ही कुछ ही सालों में मोदीलुफ्त, दमानिया और ईस्ट वेस्ट ने अपने पंख सिकोड़ लिए और ऐसा होना स्वाभाविक भी था। इसे नरेश गोयल की दूरदर्शिता ही कहेंगे कि जेट एयरवेज न केवल विमान कंपनियों की प्रतियोगिता में बनी रह पाई बल्कि देश की सबसे बड़ी घरेलू विमान सेवा कंपनी बन कर भी उभरी।

जो भारतीय अक्सर विमान यात्राएं करते हैं वे बता सकते हैं कि जेट एयरवेज में दी जाने वाली सुविधाएं और इसकी परिचालन गुणवत्ता किसी भी अंतरराष्ट्रीय विमान सेवा के बराबर हैं। भले ही लोगों ने इसकी कल्पना नहीं की होगी पर मई 2005 में जब विजय माल्या ने किंगफिशर विमान सेवा की शुरुआत की तो अंतरराष्ट्रीय विमान कंपनियों को भारतीय कंपनियों द्वारा टक्कर देने की क्षमता और बढ़ गई।

वर्ष 2003 में कैप्टन गोपीनाथ ने एयर डेक्कन की शुरुआत की और उन्होंने लाखों भारतीयों के पहली बार उड़ान भरने के सपने को लो कॉस्ट कैरियर यानी सस्ती विमान सेवा के जरिए पूरा कर दिया। इस तरह की विमान सेवाएं शुरू होने के पहले उन लाखों लोगों को विमानों को पास से देख पाना भी एक ख्वाब की तरह लगता था। वहीं इंडिगो और स्पाइस जेट लो कॉस्ट कैरियर के क्षेत्र में बेहतर मानदंडों को बनाए रखने की लगातार कोशिशों में जुटी हुई हैं।

जिस उद्योग में इतनी बेहतर दूरदर्शिता हो, उद्यमशीलता हो, जो अपने वादों के लिए प्रतिबद्ध हो, जहां बेहतर कारोबारी व्यवस्थाएं हों, प्रबंधन गुर हों और जहां उपभोक्ताओं का ध्यान रखने की सिर्फ चर्चा ही नहीं की जाती बल्कि उसके लिए ठोस कदम भी उठाए जाते हैं, वहां हालात इतने बुरे कैसे हो गए कि परिचालन को बंद तक करने की नौबत आने लगी। यह सही है कि इन कंपनियों के बही खाते का नक्शा बिगाड़ने के लिए तेल की ऊंची कीमतों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी।

 और यह भी एक सच्चाई है कि बाजार हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए विमान कंपनियों ने खुद अपने कारोबारी नीतियों की बलि चढ़ा दी। उन्होंने बड़ी जल्दबाजी में आकर परिचालन क्षमताओं और नेटवर्क का विस्तार करना शुरू कर दिया। साथ ही बजट विमान कंपनियों ने भी औने पौने दामों पर टिकटें बेचना शुरू कर दिया। हालांकि विमान कंपनियों की इस बदहाल स्थिति के लिए काफी हद तक जिम्मेदार भारतीय राजनीतिक नेता और नौकरशाह भी रहे हैं।

भारत के राजनीतिक नेता और नौकरशाह ही ऐसी निवेश नीतियां ला सकते हैं जो देश के विमानन क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दे सके। वही ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं जिसमें विदेशी विमान कंपनियां तो भारत में परिचालन शुरू कर सकती हैं पर शानदार प्रदर्शन करने वाली जेट और किंगफिशर जैसी विमान कंपनियां जिन्होंने अपनी क्षमताओं में विस्तार कर एयर इंडिया को हर क्षेत्र में टक्कर दी है, उन्हें विदेशी उड़ानों के लिए पांच सालों तक इंतजार करना पड़ रहा है।

अगर इन्हें अब विदेशी उड़ानों की मंजूरी दे भी दी जाती है तो दुबई जैसे व्यस्त और रिझाने वाले मार्ग फिर भी उनकी पहुंच से बाहर ही रहेंगे क्योंकि उन्हें इन रास्तों पर और विमानों के लिए उन्हें विदेशी सरकार से भी मंजूरी लेनी पड़ेगी। केरोसिन, एलपीजी और डीजल (कुछ हद तक पेट्रोल भी) में ऑयल बॉन्ड्स के जरिए 95,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी देना राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों के लिए ही संभव है।

जबकि एटीएफ यानी विमान ईंधन की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से 60 फीसदी अधिक हैं। भारतीय हवाईअड्डा प्राधिकरण द्वारा विमान लैंडिंग की ऊंची दरें वसूलना विमान कंपनियों के लिए आग में घी का काम करता है। अगर सरकार इन बेहतरीन सुविधाएं प्रदान करने वाली और उम्दा प्रदर्शन करने वाली भारतीय विमान कंपनियों को उबारने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करती और उन्हें नुकसान के बोझ तले दम तोड़ने देती हैं तो यह एक आपराधिक कृत्य जैसे होगा।

avaitation industry is in dark shadow
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