निजी क्षेत्र की तेलशोधन कंपनियों रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) तथा रूस की कंपनी रोसनेफ्ट के स्वामित्व वाली नायरा एनर्जी द्वारा बड़े पैमाने पर रूस से कच्चे तेल का आयात किए जाने का पश्चिमी देशों तथा पश्चिम एशिया के देशों के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्तों पर असर पड़ सकता है। पश्चिम एशिया के देश अब तक भारत के शीर्ष तेल आपूर्तिकर्ता रहे हैं। गत माह रिलायंस और नायरा ने मिलकर रूस के तेल निर्यात का 69 प्रतिशत खरीदा और गत सप्ताह वह देश का दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता बन गया। उसने सऊदी अरब को पीछे छोड़ दिया और वह केवल इराक से पीछे रह गया है। मानक ब्रेंट क्रूड की तुलना में यूरल काफी सस्ती दरों पर बिक रहा है, ऐसे में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की परिशोधन कंपनियों को एक अच्छा विकल्प मिल गया है क्योंकि यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद वैश्विक आपूर्ति बाधित होने से तेल कीमतों में इजाफा हो रहा है। यह सही है कि आयात का निर्णय निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा लिया जाता है लेकिन सरकार को इस सवाल को हल करना पड़ सकता है कि यह देश के लिए वांछित परिस्थिति है या नहीं।
प्रथमदृष्टया निजी परिशोधन कंपनियों द्वारा सस्ता तेल खरीदकर अपना मुनाफा बढ़ाने के खिलाफ कोई समुचित तर्क नहीं नजर आता है। खासकर तब जबकि सरकारी तेल कंपनियां भी यही कर रही हैं। परंतु सरकारी परिशोधन कंपनियों का तेल घरेलू बाजार में बेचा जाता है। निजी परिशोधन कंपनियों का मामला अलग है क्योंकि उनके उत्पादन का बड़ा हिस्सा निर्यात कर दिया जाता है। कई बार यह तेल उन बाजारों में भी बेचा जाता है जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाया है। भूराजनीतिक कूटनीति की इस दुनिया में कारोबारी दलीलों को हमेशा उचित नहीं माना जा सकता है, भले ही वे कितने भी सही तरीके से रखी गयी हों।
निजी परिशोधकों की दलील है कि वे किसी भी घरेलू राजनीतिक प्रोटाकॉल का उल्लंघन नहीं करते हैं क्योंकि भारत ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के विषय में अपने आपको तटस्थ रखा है। संयुक्त राष्ट्र में हुए मतदान में भी उसका यही रुख रहा, हालांकि संतुलन कायम करने के लिए उसने रूस के कूटनीतिक विकल्प न चुन पाने की आलोचना अवश्य की।
अनुमान के अनुरूप ही रूस पर भारत की सैन्य निर्भरता के कारण उसने यह कूटनीतिक रुख अपनाया और इस बात ने अमेरिका तथा यूरोपीय संघ के देशों को नाराज भी किया। इन बातों के बीच विदेश मंत्री ने ठोस तरीके से भारत का पक्ष रखा। परंतु अगर भारत यूरल क्रूड आयात करने के मामले में कंपनियों को मनमानी करने देता है तो उसने जो कूटनीतिक लाभ कमाए हैं वे प्रभावित होंगे। चीन के साथ भारत की छवि भी ऐसी बनी है कि वह व्लादीमिर पुतिन के लिए राहत लेकर आया है। ऐसे में यूरोप द्वारा रूस के जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करना वैश्विक दृष्टि से अच्छा नहीं दिखता।
अगर यह सिलसिला जारी रहा तो भारत पर इराक और सऊदी अरब जैसे प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता भी दबाव डाल सकते हैं। सऊदी अरब पहले ही दरों में कटौती कर चुका है क्योंकि उसकी बाजार हिस्सेदारी पर असर पड़ रहा है लेकिन लंबी अवधि में शायद वह इसे पसंद न करे। कुछ हालिया घटनाओं को लेकर इस्लामिक देशों की असहजता को ध्यान में रखें तो भारत को आर्थिक तनाव कम करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए। निकट भविष्य में जब ये भौगोलिक क्षेत्र यूरोप के बड़े आपूर्तिकर्ता बन जाएंगे तो व्यावहारिक आर्थिक कारणों से भी ऐसा करना जरूरी हो जाएगा। इस समस्या को हल करना सरकार के हाथ में है क्योंकि वाणिज्यिक क्रूड आयात के लिए लाइसेंस जरूरी है और सरकार चाहे तो इसका इस्तेमाल करके भारत के दीर्घकालिक हितों को सुरक्षित कर सकती है।
