अमेरिकी इतिहासकार बारबरा टचमैन ने एक पुस्तक लिखी थी, मार्च ऑफ फॉली: फ्रॉम ट्रॉय टु वियतनाम। अब अगर इस पुस्तक को अद्यतन किया जाए तो निश्चित रूप से इसमें रूस और अमेरिका की अफगानिस्तान में नाकामी, पश्चिम एशिया में दोनों देशों के हस्तक्षेप और यूक्रेन में मौजूदा रूसी आक्रमण को शामिल करना होगा। अमेरिका ने जो मूर्खताएं कीं उन्होंने उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था को उस कदर प्रभावित नहीं किया जितना कि यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने रूस को किया है। रूस के महाशक्ति होने का आधार केवल आर्थिक या पारंपरिक सैन्य शक्ति भर नहीं है बल्कि उसका परमाणु हथियार भंडार इसकी वजह है। आशा की जानी चाहिए कि वह यूक्रेन में इसका इस्तेमाल नहीं करेगा।
अहम पारंपरिक सैन्य क्षमता की मदद से प्रभावित देश के घरेलू प्रतिरोध को समाप्त नहीं किया जा सकता है। रूस को अफगानिस्तान में अपने अनुभव से यह बात जान लेनी चाहिए थी। अब यूक्रेन में उन्हें इसका अंदाजा हो रहा है। यूक्रेन में रूस अनुमान के मुताबिक ही सैन्य क्षमता इस्तेमाल कर रहा है। हो सकता है रूस कुछ मोर्चों पर जीत जाए और यूक्रेन का कुछ भूभाग हासिल कर ले। परंतु समूचे यूक्रेन पर कब्जा कर लेने के बाद भी वह यह जंग नहीं जीत पाएगा। वह सैन्य जीत की घोषणा कर सकता है लेकिन स्थानीय प्रतिरोध, कड़े प्रतिबंध तथा पश्चिम की नजर में उसका अछूत राज्य होना बना रहेगा। यूरोप के साथ उसका आर्थिक संपर्क टूट जाएगा जो उसकी आर्थिक स्थिरता के लिए अहम है। वह चीन के साथ गठजोड़ में अधीनस्थ भूमिका में आ जाएगा।
ऐसे में अगले कुछ वर्षों में वैश्विक भूराजनीति के हालात कैसे रह सकते हैं?
पहला आशावादी लेकिन कम संभावना वाला नतीजा यह हो सकता है कि रूस और यूरोप के बीच रिश्ते सुधरें। हालांकि यह तभी संभव लगता है जब वर्तमान घटनाक्रम के चलते व्लादीमिर पुतिन सत्ता से हट जाएं। इसकी एक दूसरी वजह बन सकती है रूसी तेल और गैस पर रूस की निर्भरता तथा यूरोपीय बाजारों पर पहुंच के लिए रूस की निर्भरता। इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि यूरोप रूस से ईंधन आयात कर रहा है और इससे संबंधित भुगतान करने वाले बैंकों को सावधानीपूर्वक प्रतिबंधों से अलग रखा गया है। बहरहाल, ऐसे नतीजों की संभावना कम है क्योंकि रूस और पुतिन की छवि बेहद खराब हो चुकी है।
ज्यादा संभावना इस बात की है कि चीन और अमेरिका-नाटो के बीच एक नया शीतयुद्ध शुरू हो जाए और रूस चीन का कनिष्ठ सहयोगी बने। यह सिलसिला कितना लंबा चलेगा और वैश्विक भूराजनीति तथा विश्व अर्थव्यवस्था के लिए कितना नुकसानदेह होगा यह दो बातें पर निर्भर करेगा। पहला, रूस शायद चीन का कनिष्ठ सहयोगी होना स्वीकार न कर पाए क्योंकि वह महाशक्ति रहा है। दूसरा, नये शीतयुद्ध का तनाव इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन को ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्या लगता है: उसका भूराजनीतिक दावा और दक्षिण चीन सागर तथा ताइवान में उसकी महत्त्वाकांक्षा या पश्चिम के साथ उसका आर्थिक तकनीकी और निवेश संबंध।
फिलहाल ऐसा लगता है कि चीन, ताइवान तथा दक्षिण चीन सागर में शक्ति प्रदर्शन नहीं करेगा क्योंकि उस स्थिति में उसकी अर्थव्यवस्था पर भी पश्चिमी प्रतिबंध लग सकते हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के देशों पर निर्भरता तथा विकसित देशों के निवेश की आवश्यकता भी उसे पश्चिमी देशों का कट्टर शत्रु बनने से रोकेगी। एशियाई देशों के साथ भी उसके व्यापारिक और वित्तीय रिश्ते हैं।
तीसरी और सबसे क्षीण संभावना यह है कि यूक्रेन के प्रतिरोध और उसे पश्चिम के समर्थन के चलते कहीं रूस युद्ध को तेज न कर दे और परमाणु या नाभिकीय हमला न कर दे। यदि यह जंग नाटो के सीमावर्ती सदस्य देशों तक फैली तो पूरे यूरोप में युद्ध छिड़ सकता है। आगे चलकर यह विश्वयुद्ध में बदल सकता है जिसमें अमेरिका और चीन सीधे शामिल हो सकते हैं।
एक नतीजा ऐसा भी हो सकता है जो दीर्घावधि में गहरे असर वाला हो। वह है जर्मनी और जापान का सैन्य शक्ति के रूप में उदय जहां वे अपने सैन्य व्यय में इजाफा कर सकते हैं। उनकी आर्थिक और तकनीकी क्षमताओं को देखते हुए इसका यूरोप और पूर्वी एशिया के शक्ति संतुलन पर गहरा असर होगा।
भारत अमेरिका-नाटो और रूस-चीन के भूराजनीतिक तनाव के बीच फंसा हुआ है। रक्षा मामलों में उसकी निर्भरता भूराजनीतिक चयन के मामले में एक बड़ी बाधा है। परंतु अब तक उसने सही कदम उठाए हैं। अब उसे मध्यम से दीर्घ अवधि की एक नीति की आवश्यकता है ताकि वह नए शीतयुद्ध की स्थिति से निपट सके। इस रणनीति का सबसे अहम घटक होना चाहिए महाशक्तियों पर रक्षा निर्भरता कम करना। इसमें समय लगेगा और रूस और पश्चिम पर निर्भरता में बेहतर संतुलन कायम करने के लिए अंतरिम व्यवस्था करनी होगी। हाल के वर्षों में ऐसा हुआ भी है। इसके साथ ही घरेलू क्षमता विकसित करनी होगी।
देश के स्तर पर इस रणनीति के अलावा भारत को वैश्विक गठजोड़ पर विचार करना चाहिए जो उभरते भूराजनीतिक विवाद में दोनों विरोधियों के बीच प्रतिरोधक का काम करें। संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस को मानवाधिकार परिषद से निकालने को लेकर हुए मतदान से शुरुआत कर सकते हैं। जिन 58 देशों ने किसी का पक्ष लिए बिना अनुपस्थित रहने का विकल्प चुना उनमें भारत के अलावा दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया के लगभग सभी देश, पश्चिम एशिया के अधिकांश देश और अहम अफ्रीकी देश तथा लैटिन अमेरिका के ब्राजील तथा मैक्सिको जैसे देश शामिल थे। जो देश अनुपस्थित थे वे क्रय मूल्य समता के मुताबिक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 25 फीसदी के हिस्सेदार हैं जबकि वैश्विक आबादी में उनकी हिस्सेदारी 50 फीसदी है। यानी पुराने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की तुलना में वे अधिक प्रभावी हैं।
ऐसे में आगे चलकर भारत ऐसी तीसरी शक्ति का नेतृत्व संभाल सकता है, जिसमें मतदान में अनुपस्थित रहे अन्य देश शामिल हों। यह तीसरी शक्ति सैन्य, कूटनीतिक तथा आर्थिक विवादों से दूर रहेगी और विवादों के वैश्विक प्रसार में प्रतिरोधक का काम करेगी। ऐसे में यूरोप में छिड़ी लड़ाइयों को तीसरा विश्वयुद्ध बनने से रोकने में मदद मिलेगी।
अगले कुछ वर्ष या शायद अगला दशक भूराजनीतिक दृष्टि से बहुत अच्छा नहीं दिखता। बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाओं के नजरिये से भी यह ठीक नहीं दिख रहा है। अगर यह लड़ाई लंबी चली तो क्या होगा? यह भी एक प्रश्न है। हमें वर्तमान घटनाक्रम जैसी और परिस्थितियां देखने को मिलेंगी, हमारी नीति इनसे दूर रहने तथा रणनीतिक संपर्क कायम करने की होनी चाहिए।
