रक्षा मंत्रालय ने पिछले दिनों अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित वह वक्तव्य हटा दिया जिसमें मंत्रालय ने माना था कि चीन के सैनिकों ने मई में कई स्थानों पर भारत-चीन सीमा रेखा यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का अतिक्रमण किया था। जबकि सरकार अतिक्रमण को नकारती आई है। उस वक्तव्य में स्वीकार किया गया था कि मौजूदा गतिरोध लंबा खिंच सकता है। सरकार के सामने प्रश्न यह था कि क्या इसकी जवाबदेही तय की जाएगी?
राष्ट्रीय सुरक्षा चूक के मामलों में हमारे यहां कभी भी अधिक जवाबदेही नहीं तय की गई। सन 1962 में चीन के साथ जंग में 3,250 जवानों की शहादत के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन को बचाने का प्रयास किया था। सन 1999 में करगिल में 522 जवानों की शहादत के बाद केवल एक ब्रिगेडियर को खुफिया और कार्रवाई संबंधी चूक के लिए जवाबदेह ठहराया गया जबकि वहां चूक कई स्तरों पर हुई थी। यह आशा करना बेमानी है कि इस बार जवाबदेही तय होगी।
खबरों के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल विपिन रावत के मामले से निपटने के तरीके से नाखुश हैं। लोगों को बर्खास्त या स्थानांतरित नहीं किया गया क्योंकि इससे यह कुप्रबंधन सबकी नजर में आ जाता।
अप्रैल के मध्य में देश की सैटेलाइट इमेजरी ने एलएसी के उस पार चीन की सैन्य कवायद दर्ज की जिसमें बड़ी तादाद में चीन के सैनिक शामिल थे। सामान्य परिस्थितियों में भारतीय सेना भी कुछ आरक्षित टुकडिय़ों (प्रत्येक में 2,500 जवान) को एलएसी पर भेज देती थी ताकि चीन को घुसपैठ करने से रोका जा सके। परंतु इस वर्ष कोविड के कारण ऐसा नहीं किया गया था और चीन की सेना को अवसर मिल गया।
अंदरूनी जानकारी के अनुसार सैटेलाइट के माध्यम से मिली खुफिया जानकारी और सिग्रल के बाद योजनाकारों को वाणिज्यिक सैटेलाइट इमेजरी के माध्यम से प्रतिपुष्टि करनी होती है। सीडीएस के अधीन आने वाली रक्षा इंटेलिजेंस एजेंसी में इन तस्वीरों और सिग्रलों की प्रतिपुष्टि नहीं की गई। खुफिया विश्लेषण में भी चूक हुई। एनएसए के अधीन आने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एसएससीएस) में, सैन्य तकनीकी खुफिया जानकारी और असैन्य एजेंसियों मसलन आईबी, रॉ, आईटीबीपी आदि से प्राप्त खुफिया जानकारी में तालमेल की कमी थी। हालांकि एनएससीएस को अप्रैल के मध्य से ही निरंतर पर्याप्त खुफिया जानकारी मिल रही थी लेकिन वह चीनी सेना के इरादों का अनुमान लगाने में नाकाम रहा। इसके बावजूद 5 मई तक तस्वीर साफ हो जानी थी क्योंकि उस दिन सीमित तादाद में गश्त पर गए भारतीय सैनिकों के साथ गलवान घाटी में पैट्रोलिंग प्वाइंट 14 पर भारतीय क्षेत्र में चीनी सैनिकों ने बदसलूकी की। हॉट स्प्रिंग सेक्टर में भी चीन की घुसपैठ का पता चला। परंतु एनएसए ने अपनी प्रतिक्रिया चीन को फोन पर विरोध जताने तक सीमित रखी।
बाद के दिनों में एलएसी पर डेपसांग से उत्तरी लद्दाख और सिक्किम में नाकू ला तक चीन की संभावित घुसपैठ को लेकर चेतावनी की बाढ़ आ गई। 9 मई को सरकार उस वक्त चकित रह गई जब चीन के सैनिकों ने सिक्किम के नाकू ला में स्थापित अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया। जानकारी के मुताबिक सीडीएस और एनएसए ने प्रधानमंत्री को बताया कि इस मामले को सुलझा लिया जाएगा। यह आश्वस्ति 12 मई तक जारी रही जब चीन के दो हेलीकॉप्टरों ने पैंगोंग त्सो झील के पार भारत के कमांडिंग जनरल को ले जा रहे एक भारतीय हेलीकॉप्टर का पीछा किया। जब 17 और 18 मई को चीनी सेना भारत में 8 किलोमीटर भीतर घुस गई और 72 जवानों को बुरी तरह मारा पीटा, तब इस समस्या को स्वीकार किया गया। आखिरकार लेह में 14वीं कोर के मुख्यालय में योजना बननी शुरू हुई। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो गया। 22 मई को सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने लेह की यात्रा की। 24 मई को पूर्वी लद्दाख में फौज बढ़ाने के आदेश हुए। तब तक पहली झड़प को तीन सप्ताह बीत चुके थे। अब भी पाटी प्रवक्ता, सत्ता के करीबी सैन्य अधिकारी और मीडिया का एक हिस्सा यही कह रहा था कि सब ठीक है। जब लद्दाख मेंं भारतीय फौज बढ़ी तो एनएसए, विदेश मंत्री और चीन में भारतीय राजदूत चीन से बातचीत में मुब्तिला हुए। चीन का रुख स्पष्ट था: भारत ने अतिक्रमण किया है और गृह मंत्री अमित शाह गत वर्ष अगस्त में संसद में कह चुके हैं कि अक्साई चिन भारत का हिस्सा है। चीन ने तब भी अपनी नाराजगी नहीं छिपाई थी और तीखी आपत्ति के अलावा 11 सितंबर 2019 को चीनी सैनिकों ने पैंगोंग में एलएसी का उल्लंघन कर 10 भारतीय जवानों को पीटा और तीन गश्ती वाहनों को क्षति पहुंचाई। दोनों देशों के सैन्य कमांडर 6 जून को मिले ताकि गलवान में पीछे हटने पर चर्चा हो सके। चीन ने दोनों देशों के लौटने का प्रस्ताव रखा जो उसके पक्ष में है क्योंकि इसमें यथास्थिति की बात कही गई। आशा थी कि चीन वापस लौट जाएगा। परंतु 15 जून को चीनी सैनिकों द्वारा 20 भारतीय जवानों को मारे जाने के बाद हालात की गंभीरता को स्वीकार किया गया। परंतु 19 जून को विदेश मंत्री ने सर्वदलीय बैठक में घुसपैठ को सामान्य घटना बताने की कोशिश की। रक्षा मंत्री ने खुफिया विफलता को नकार दिया।
प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि गलवान में चीन ने घुसपैठ नहीं की है। सूत्रों के मुताबिक ऐसा एनएसए और सीडीएस की राय पर किया गया। कहा जा रहा है कि अब प्रधानमंत्री राजनीतिक और खुफिया अधिकारियों पर भरोसा कर रहे हैं क्योंकि उनके आकलन सही साबित हुए हैं। यदि चीन वापस लौटने से इनकार करता रहा तो शायद एक नई एलएसी बनेगी और भारत कई सौ वर्ग किलोमीटर जमीन गंवा बैठेगा। यह न केवल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को क्षति होगी बल्कि एक तरह से चीन की अधीनता स्वीकारने जैसा भी होगा। देश की जनता इसे स्वीकार नहीं करेगी। सरकार के लिए भी यह अस्वीकार्य होना चाहिए।
