लद्दाख के पैंगोंग त्सो इलाके से भारत और चीन के सैनिकों की शीघ्र वापसी हो गई। कोर कमांडरों के बीच नए दौर की वार्ता के साथ ही यह आशा भी की जा सकती है कि बड़े पैमाने पर तनाव दूर हो सकता है।
अब जबकि शांति कायम होती दिख रही है तो यह इस बात के लिए भी अच्छा अवसर है कि हम ठहरकर सोचें कि किसने क्या पाया और/अथवा क्या गंवाया? हमारी थलसेना के उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल वाईके जोशी पहले बता चुके हैं कि उन 48 घंटों के दौरान जब भारतीय सेना पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर और पैंगोंग-मोल्दो-चुशुल के पश्चिम में कैलाश पर्वत शृंखला पर ऊंचे और अहम दर्रों पर जम गई थी तब दोनों देश जंग के एकदम करीब थे।
उस वक्त एक घटना का ज्यादा जिक्र नहीं हुआ था और वह यह कि भारतीय जवान पहाडिय़ों पर चढ़ते हुए उन स्थानों पर पहुंच गए थे जहां से निचले इलाकों में जमे चीनी सैनिकों पर आसानी से नजर रखी जा सकती थी। पहाड़ी लड़ाइयों से वाकिफ लोग जानते हैं कि निचले इलाकों में रहना आरामदेह तो होता है लेकिन उसे प्राथमिकता नहीं दी जाती। आश्चर्य नहीं कि चीन ने भारत पर नीचे उतरने का दबाव बनाने का प्रयास किया।
गत वर्ष 29 और 30 अगस्त को भारतीय सेना ने ऑपरेशन स्नो लेपर्ड के तहत जो कार्रवाई की उससे उसे सामरिक संतुलन हासिल करने में मदद मिली। हमें दक्षिणी तट और उसके पश्चिम में रेचिन ला, मुखपारी और रेजांग ला में घटी घटनाओं के बारे में जानकारी मिली लेकिन ऊंची पहाडिय़ों पर घटी अपेक्षाकृत तीव्रता वाली घटनाओं के बारे में कुछ समय तक खबर नहीं आई। चीन के सैनिकों की परंपरागत चीनी हथियारों के साथ भारतीय सैनिकों को धमकाने की तस्वीरें मुखपारी की थीं।
अब तक तीन चीजें एकदम स्पष्ट हो चुकी थीं: पहली, भारतीय सैनिक जाने वाले नहीं थे। उनकी तैयारी भी चीनी सैनिकों जैसी थी और हथियारों के मामले में भी वे उन्नीस नहीं थे।
दूसरा, दोनों ही पक्ष नहीं चाहते कि तनाव बढ़कर मुठभेड़ का रूप ले। संकरे दर्रों की बात करें तो रेचिन ला महज कुछ सौ मीटर चौड़ा है और दोनों पक्षों ने कुछ फुट के अंतर पर टैंक तैनात कर दिए थे। ठीक भारत-पाकिस्तान की वाघा सीमा की तरह। टैंक इतनी करीब से लड़ाई नहीं लड़ते। यह केवल ताकत का प्रदर्शन था और एक दूसरे की राह रोकने का। यह सब समाप्त होने के बाद हम इन तस्वीरों को देखकर हंसेंगे। परमाणु हथियार संपन्न दो देश एक दूसरे के आमने-सामने टैंक तैनात करते हैं मानो एक दूसरे से सिर टकराने जा रहे हों। तीसरी बात यह कि यह एक दूसरे को थकाने की लड़ाई थी जो मौसम, ऊंचाई और तमाम चीजों के सहारे लड़ी जा रही थी। सवाल यह था कि जाड़ों में कौन वहां अधिक तादाद में टिक सकता है।
दोनों ने ऐसा ही किया। इसके बाद ही चीन टकराव खत्म करने को तैयार हुआ। जाहिर है अंतरराष्ट्रीय और आर्थिक कदमों, क्वाड का उभार और इसे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का समर्थन मिलना, भारत द्वारा सामरिक इतिहास की हिचक दूर करना और चीन से प्रताडि़त देशों की एकता यानी चीन पीडि़त समाज के मजबूत होने ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई।
तनाव खत्म करने की बात करें तो बीते नौ महीनों में चीन और भारत ने कई बार आशा जगाई लेकिन अंतत: नाकामी हाथ लगी। ऐसे में शांति स्थापना के इस प्रयास के नतीजे के बारे में बात करना आसान नहीं। यह वैसा ही है जैसे यह बताना कि अप्रैल में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव कौन जीतेगा।
दोनों देशों में जनमत और सोशल मीडिया पर छाया उन्माद अभी भी एक चुनौती हैं। भारत में हमें यह समाचार चैनलों और ट्विटर पर नजर आता है लेकिन चीन मामलों के जानकार और द हिंदू के वरिष्ठ संपादक अनंत कृष्णन कहते हैं कि चीन के ट्विटर कहे जाने वाले वीबो पर भी चीन के नागरिक अपना क्रोध प्रदर्शित कर रहे हैं। खासकर गलवान में चीन को हुए जानमाल के नुकसान के दावों के बीच। दोनों देशों को अपनी जनता को बताना है कि वे जीते हैं। यह बात अगले दौर की वार्ता को प्रभावित करेगी।
हालांकि हम विशुद्ध भू-रणनीतिक स्तर पर विश्लेषण का प्रयास कर सकते हैं। हमारा ज्ञान इस बात से सीमित है क्योंकि हम नहीं जानते कि गत वर्ष लद्दाख में चीन क्यों आ धमका?
जानकारों का अनुमान है कि अनुच्छेद 370 को रद्द करने और लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश घोषित किए जाने के बाद वह संदेश देना चाहता था और साथ ही वह भारत को हिंद महासागर से वापस जमीनी सीमाओं पर केंद्रित करना चाहता था। शायद वह भारत को अमेरिका के अधिक करीब जाने से रोकना चाहता होगा या फिर ये तीनो बातें होंगी। क्या चीन को कुछ हासिल हुआ?
वर्तमान में भारत चीन के खिलाफ अमेरिकी गठजोड़ के करीब है और शायद वह संधि से बाहर वाले देशों में उसका सबसे करीबी मुल्क है। दूसरा, भारत तथा अन्य तीन देश अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया अब क्वाड को लेकर अधिक प्रतिबद्ध हैं। इस विषय में सब शंकाएं दूर करने के लिए पिछले दिनों चारों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक के बारे में जानना चाहिए।
अब वे बातें करते हैं जिनके बारे में हमें स्पष्ट जानकारी नहीं है। यह 21वीं सदी के लिए भारत के सामरिक नजरिये में क्या बदलाव करेगा? चीन का 2013 का सामरिक दस्तावेज जो हाल ही में अमेरिकी वायु सेना के थिंक टैंक द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया है, वह चीन की सोच के बारे में बताता है।
चीन का मानना है कि सन 1991 के बाद आई आर्थिक तेजी के चलते भारत खुद को क्षेत्रीय शक्ति से अधिक मानता है और वह हिंद महासागर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। दस्तावेज में कहा गया है कि भारत अब अपनी जमीनी सीमाओं को सुरक्षित समझता है और उसे युद्ध की कोई आशंका भी नहीं है। क्या लद्दाख में चीन की घुसपैठ से यह सोच बदली है? क्या उसने भारत को यह याद दिलाया है कि दो देशों के साथ सीमा की समस्या दूर नहीं हुई है?
क्या भारत अब नौसेना के बजाय थलसेना की ओर ध्यान देगा? यह बात हमें एक-दो वर्ष में पता चल जाएगी। परंतु यदि ऐसा हुआ तो यह चीन के लिए बढ़त होगी। इसी प्रकार बीते नौ महीनों में भारत का पक्ष लेने वाले किसी व्यक्ति ने अक्साई चिन वापस लेने की बात नहीं कही। आने वाले समय में भी ऐसा न हो तो चौंकने की जरूरत नहीं है। यदि यही चीन का संदेश था तो वह पहुंच गया है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि केवल इसके लिए वह इतना जोखिम उठाएगा।
भारत के पक्ष से देखें तो दशकों तक हमारे रणनीतिक विचारक दो मोर्चों को लेकर चिंतित रहे। भारत अपना रक्षा बजट बढ़ा कर पाकिस्तान की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य बन सकता है (हालांकि मैं ऐसा नहीं चाहूंगा), दो मोर्चों पर जंग की आशंका एक दु:स्वप्न थी और इसे जीतना केवल कल्पना। ऐसे में देश के राजनीतिक और सामरिक नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती थी इसे टालना।
यहां फिर वही बात आती है कि भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ इस त्रिकोण को खत्म करना होगा। लेकिन सवाल है कि कैसे?
हमें दोनों में से एक देश के साथ अपने मसले हल करने होंगे। यही कारण है कि पिछली सभी सरकारों ने चीन के साथ शांति कायम करने का पूरा प्रयास किया। परंतु बेहतर यही होता कि हम खुद से कमजोर मुल्क के साथ मसले हल करते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब एक नई मुश्किल सामने है।
मौजूदा सरकार सभी नीतियों को चुनावी दृष्टिकोण से देखती है। ऐसे में पाकिस्तान के साथ दुश्मनी उसके लिए लाभदायक है क्योंकि पाकिस्तान और इस्लामिक आतंकवाद उसे देश में चुनावी ध्रुवीकरण रूपी तोहफा देते हैं।
यह मोदी सरकार को इस बुनियादी मुद्दे पर ध्यान देना होगा। क्या वह घरेलू राजनीतिक वजहों को अपने सामरिक विकल्प सीमित करते रहने देगी या बदलाव का साहस है? यकीनन वह अधिक साहस दिखा कर पहले चीन को निपटा सकती है लेकिन वहां मजबूत कौन है यह हम अच्छी तरह जानते हैं।
