गिलास आधा भरा हुआ है। मुद्रास्फीति फिलहाल भले ही मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिए बनी व्यवस्था की ऊपरी सीमा से अधिक हो लेकिन यह आशा बरकरार है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2022-23 में अच्छी वृद्धि हासिल करेगी।
मुद्रास्फीति की दरों में कमी आना जरूरी है। लेकिन विश्लेषणों की बात करें तो जरूरी मौद्रिक सख्ती को लेकर पुनर्विचार होता दिख रहा है। वृद्धि को लेकर आशावाद भी इसी वजह से है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति अप्रैल में 7.9 प्रतिशत रही और मई में यह 7 प्रतिशत हो गई। जून 2022 में मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने 2022-23 के लिए मुद्रास्फीति अनुमान को बढ़ाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया। बाजार विश्लेषणों में घबराहट नजर आ रही थी। कुछ विश्लेषकों ने कहा कि 2022-23 में रीपो दर 4 फीसदी से बढ़ते हुए 6.2 प्रतिशत हो जाएगी।
उसके बाद से इस मामले में पुनर्विचार होता दिख रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्र ने गत 22 जून को पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स को संबोधित किया जिसका बाजार पर अनुकूल असर हुआ। संबोधन के बाद 10 वर्ष के सरकारी बॉन्ड प्रतिफल में 18 आधार अंकों की गिरावट आई। इससे पता चलता है कि आरबीआई की मौद्रिक नीति की कितनी विश्वसनीयता है।
डॉ पात्र ने तीन बातें कहीं। पहला, उन्होंने संकेत दिया कि हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि 2022-23 की चौथी तिमाही तक मुद्रास्फीति 2-6 फीसदी के तय दायरे में लौट जाएगी। दूसरा, डॉ. पात्र को आशा है कि भारत में मौद्रिक नीति संबंधी कदम दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में कुछ सहज होंगे।
तीसरा बिंदु थोड़ा विवादास्पद है। डॉ. पात्र का संकेत है कि मुद्रास्फीति लगातार तीन तिमाहियों में 6 फीसदी का स्तर पार कर सकती है जो एमपीसी के दायरे का उल्लंघन होगा। बहरहाल, भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इस वर्ष तथा अगले वर्ष 6-7 फीसदी की दर से बढ़ सकता है, ऐसे में आरबीआई मूल्य स्थिरता को प्राथमिकता देने का अपना लक्ष्य पूरा करेगा। दूसरे और तीसरे बिंदु को एक साथ देखें तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि ब्याज दरों में होने वाला इजाफा इतना अधिक नहीं होगा कि जीडीपी की वृद्धि दर 6 फीसदी से नीचे आए। शायद डॉ. पात्र का सुझाव है कि इससे एमपीसी की जवाबदेही में कमी आ सकती है तो आने दिया जाए।
इस बात से कुछ लोग नाखुश हैं। उन्हें लग रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है? डॉ. पात्र के पास इसका जवाब है। उनका कहना है कि यह असाधारण समय है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। हम अभी एक के बाद एक महामारी की लहरों से उबरे हैं। दुनिया की अर्थव्यवस्था अभी भी आपूर्ति बाधाओं से जूझ रही है। भारत की अर्थव्यवस्था को आपूर्ति बाधाओं से बचाने की आवश्यकता है। मुद्रास्फीति की बात करें तो रिजर्व बैंक को ऐसे निर्देश नहीं देने चाहिए जो बाजार को भ्रमित करें। यहां वैसा मामला एकदम नहीं है।
अमेरिकी फेडरल रिजर्व के कदम जरूर गड़बड़ी की वजह बन सकते हैं। फेड ने मुद्रास्फीति से निपटने के लिए कुछ भी करने का रुख थोड़ी देर से अपनाया। बाजार विश्लेषकों को लगता है कि आने वाले महीनों में फेड ब्याज दरों में 120 से 150 आधार अंकों का इजाफा कर सकता है। यदि आरबीआई को इसकी बराबरी करनी हो तो रीपो दर को 6.4 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के लिए हालात मुश्किल हो सकते हैं।
सबसे अच्छा नतीजा यही होगा कि फेड नीतिगत दरों में उतना इजाफा न करे जितनी आशंका है। दूसरी संभावना यह है कि आरबीआई फेड के इजाफे की बराबरी न करे। इसकी कीमत पोर्टफोलियो फंड गंवाने और रुपये के अवमूल्यन के रूप में चुकानी पड़ सकती है। डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट के बावजूद मई 2021 की तुलना में मई 2022 में 40 मुद्राओं के वास्तविक प्रभावी एक्सचेंज में रुपये का मूल्य अपरिवर्तित रहा।
डॉ. पात्र सही हैं। जहां तक नियंत्रण की बात है तो भारत अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में बेहतर स्थिति में है। मई की 7 फीसदी मुद्रास्फीति के बावजूद देश में मुद्रास्फीति बीते पांच साल की तुलना में 2.5 फीसदी अधिक है। अमेरिका में यह अंतर 5.5 फीसदी से अधिक है। अमेरिका में मौद्रिक सख्ती की आवश्यकता अधिक है।
दूसरी बात, बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमेंट्स की सालाना रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में हाल के वर्षों में फिलिप्स कर्व एकदम सपाट रहा है। यह अर्थशास्त्री ए.डब्ल्यू. फिलिप्स द्वारा दी गई अवधारणा है जो कहती है कि मुद्रास्फीति और बेरोजगारी में एकदम स्थिर और उलट रिश्ता है। यह कर्व जितना सपाट होगा मुद्रास्फीति में गिरावट के लिए मौद्रिक सख्ती की उतनी ही अधिक आवश्यकता होगी। हमारे देश में फिलिप्स कर्व ने 2014 के बाद लगभग छह वर्ष तक सपाट रहने के बाद अपेक्षाकृत रूप से अपना सामान्य आकार हासिल कर लिया है।
डॉ. पात्र ने अपने भाषण में ऐसी कई बातें कहीं जो आरबीआई गवर्नर पहले कह चुके थे। उनका भाषण आने वाले महीनों में देश में मुद्रास्फीति का दायरा तय करने में निर्णायक साबित हो सकता है।
बैंकिंग क्षेत्र अच्छी स्थिति में है
देश के बैंकिंग क्षेत्र की स्थिति आर्थिक परिदृश्य को लेकर आशावाद की एक और वजह है। आरबीआई की ताजा वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट सुधार के कई संकेतकों की ओर इशारा करती है।
मार्च 2022 में सकल गैर निष्पादित परिसंपत्तियां कुल अग्रिम के 5.9 फीसदी के बराबर थीं। मार्च 2023 में उनके घटकर 5.2 फीसदी रह जाने की आशा है। बैंकिंग तंत्र में पूंजी पर्याप्तता औसतन 16.7 फीसदी है यानी न्यूनतम नियामकीय आवश्यकता से 5.2 फीसदी अधिक। प्रॉविजन कवरेज अनुपात 71 फीसदी के अच्छे स्तर पर है। जून 2022 में वार्षिक ऋण वृद्धि 13.1 फीसदी थी जो मार्च 2019 के स्तर की थी। कहा जा सकता है कि देश का बैंकिंग क्षेत्र करीब एक दशक के बैंकिंग संकट से उबर गया है। यदि अनुमानित एनपीए स्तर सही है तो कह सकते हैं कि कोविड के दौरान बरती गई नियामकीय नरमी का परिणाम सामने आ रहा है। अगर भूराजनीतिक हालात काफी खराब नहीं हो जाते तो 2022-23 में भारतीय अर्थव्यवस्था को 6.5 फीसदी से 7 फीसदी की वृद्धि बरकरार रखनी होगी और इस बीच मुद्रास्फीति को चरणबद्ध तरीके से तय दायरे में लाना होगा। मौजूदा संकटग्रस्त माहौल में यह एक बड़ी कामयाबी होगी। इससे पहले की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती सामने आएगी। वृहद आर्थिक प्रबंधन के क्षेत्र में भी हम बेहतर हो रहे हैं।
