जीडीपी को लेकर बिजनेस स्टैंडर्ड में छपे मेरे पिछले लेख पर बड़ी ही रोचक प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं।
इस लेख का निष्कर्ष था कि वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान भारत की जीडीपी विकास दर 6.5 प्रतिशत के सर्वसम्मत पूर्वानुमान के मुकाबले काफी कम रहेगी।
यह भी कहा गया था कि 2008 की महामंदी से भारत अछूता नहीं रह सका है- एक साल पहले के मुकाबले भारत की जीडीपी विकास दर में आई कमी लगभग उतनी ही है, जितनी ज्यादातर विकासित और विकासशील देशों की।
ये निष्कर्ष जीडीपी आंकड़े के मानक सत्रीय समायोजन पर आधारित थे। मानक इसलिए क्योंकि अमेरिका ने अभी तक जीडीपी विकास दर के गैर-सत्रीय समायोजित आंकड़े पेश नहीं किए हैं। कुछ ‘विशेषज्ञों’ ने सत्रीय समायोजन की गलत व्याख्या करते हुए इसे कार्यप्रणाली के अनुरूप और स्वीकार्य बताया है।
निराशाजनक बात यह है कि ये तथाकथित विशेषज्ञ सत्रीय समायोजन के जरिए भविष्य में विकास दर की संभावनाओं का अनुमान लगाते हैं। यह पूरी तरह से गलत है और बल पूर्वक सच्चाई से पर्दा उठाने की जरूरत है। सत्रीय समायोजन के जरिए इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि भूतकाल में क्या हुआ है।
सत्रीय समायोजन किसी खास अवधि के बारे में बेहतर ढंग से बताता है। भविष्य में जीडीपी विकास दर, मुद्रास्फीति या किसी और बात का पूर्वानुमान व्यक्त करना इस्तेमाल किए गए मॉडल, मनोविज्ञान या ऐसी ही किसी बात पर निर्भर करता है। इन पूर्वानुमानों का सत्रीय समायोजन के उपयोग या दुरुपयोग के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है।
लेकिन इस आरोप ने मुझे सबसे अधिक दु:खी किया है कि मैं एक निराशावादी व्यक्ति हूं। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि मेरा पूर्वानुमान था कि चूंकि पिछले दिनों विकास दर कम रही है इसलिए भविष्य में भी कम रहेगी। यह आरोप इसलिए कष्टदायक है क्योंकि मुझे दृढ़ विश्वास है कि कोई आशावादी है या निराशावादी, यह उसके डीएनए का गुणदोष है।
आप इस बात का बहाना कर सकते हैं कि बचपन के शुरुआती दिनों का माहौल भी असर डालता है और इस दौरान भी किसी की आंखों के सामने धुंध छा सकती है। ऐसा हो सकता है, और मानव मनोविज्ञान के इस पहलू पर किए गए शोध के बारे में जानकर मुझे बेहद खुशी होगी।
ऐसे में मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि किसी दुर्घटना, असामान्य घटना या सामान्य विरोध को छोड़कर, हममें से ज्यादातर लोग अपने डीएनए की अनैच्छिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आशावादी या निराशावादी या तेजड़ियों या मंदड़ियों के खेमों में जा बैठते हैं।
मेरे मामले में इसका अर्थ है कि मैं हमेशा इस पहलू की ओर पहले गौर करता हूं कि गिलास आधा भरा है, हमेशा उम्मीदों का दामन थामता हूं। इसलिए मेरी आपत्ति इस बात पर है कि मुझ पर आरोप लगाया गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में मेरा पूर्वानुमान निराशाजनक है। इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था करीब 7 से 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर सकती है।
मैं कह रहा हूं कि मेरा डीएनए ने मुझे बेहतर ढंग से व्यक्त किया है? शायद- आप जज बनकर निष्पक्ष फैसला कीजिए। अंतरराष्ट्रीय संगठन (जो उनके पूर्वानुमान व्यक्त करने वालों के डीएनए द्वारा संचालित हैं) ने कहा है कि दुनिया इस समय न सिर्फ गंभीर संकट से जूझ रही है (सही है), बल्कि अगले कुछ वर्षों के दौरान भी दुनिया ऐसी ही बदहाल अवस्था में बनी रहेगी।
आज एक आशावादी पूर्वानुमान यह है कि 2009 के दौरान दुनिया अमेरिका की अगुवाई में नकारात्मक विकास दर दर्ज करेगी। यह दर शून्य से दो प्रतिशत तक कम हो सकती है। ये पूर्वानुमान लीमन घटना से अस्थिर हुई दुनिया के हैं। अब जबकि सभी आंकड़े आ चुके हैं, तो लगता है कि अक्टूबर से दिसंबर 2008 की तिमाही अब तक की सबसे बुरी तिमाही साबित होगी।
जी हां, मैं इसमें महामंदी की अवधि को भी शामिल कर रहा हूं। उत्पादन ढह गया है, औंधे मुंह गिर गया या गिरकर मर गया- जो चाहें संज्ञा इस्तेमाल कर लीजिए, आपको उसी वास्तविकता का पता चलेगा। यह तिमाही एक ऐसी अप्रत्याशित घटना है जिसके असर दूरगामी साबित होंगे। इसकी तीव्रता अनुमान नहीं लगाया जा सका लेकिन यह काफी वास्तविक है।
अक्टूबर-दिसंबर 2008 का उत्पादन और हमारे मानस पटल पर कितना गहरा असर होगा? जवाब आसान है- बहुत गहरा। क्यों? क्योंकि अमेरिका विकास का इंजन है और अमेरिकी उपभोक्ता अब बचत के बारे में सोचेंगे। इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा और हमें अमेरिका में हाउसिंग क्षेत्र के एक बार फिर सामान्य होने और अमेरिकी उपभोक्ताओं के मॉल में पहुंचने तक इंतजार करना होगा।
इसमें फिर गलती हो सकती है। अक्टूबर-दिसंबर में यह गलती हुई है- पूरी दुनिया अमेरिका की अगुवाई में बढ़ रही है। हमने देखा कि इसके बाद क्या हुआ, क्या नहीं देखा? ऐसे में यह कैसे सोच सकते हैं कि दुनिया एक बार फिर बदल जाएगी? चीन और भारत दुनिया को इस मंदी से उबारेंगे? अब तो आशावाद की अति हो गई है।
क्या आप नहीं जानते हैं कि चीन और भारत को मिलाकर उनकी जीडीपी करीब 5,000 अरब डॉलर है, जो 14,000 अरब डॉलर की अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मुकाबले काफी कम है। लेकिन भरपाई (या गिरावट) अर्थव्यवस्था के आकार से संबंधित नहीं हैं बल्कि यह आकार में बदलाव से जुड़ी हुई है। अगर अमेरिका 2 प्रतिशत की दर से विकास करता है तो वैश्विक उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी 280 अरब डॉलर होगी।
भारत और चीन इसी आंकड़े को 5.6 प्रतिशत की विकास दर के साथ हासिल कर सकते हैं। वर्ष 1980 से 2008 के बीच ये अर्थव्यवस्थाएं औसतन 8 प्रतिशत की दर से बढ़ी हैं, और पिछले आठ वर्षो के दौरान यह दर और अधिक रही है। इस उच्च विकास दर का एक प्रभाव पड़ा है। वर्ष 2000 में चीन और भारत में करीब 17 प्रतिशत अमेरिकी माल की खपत हो रही थी।
अब यह आंकड़ा बढ़कर दोगुना हो गया है। तो क्या अब से आठ साल पहले जिसके बारे में सोचना मुश्किल था, उस बारे में आज सोचा जा सकता है। पश्चिमी अर्थशास्त्र द्वारा प्रेरित ‘ब्लैक-स्वान’ पर ध्यान केन्द्रित करके विशेषज्ञ एक वास्तविक संभावना से वंचित हो सकते हैं।
चीन और भारत की अगुवाई में और सभी मौद्रिक तथा राजकोषीय राहत पैकेज (भारत नहीं, जहां नीतिनिर्माता हमेशा प्रतिक्रियाशील रहते हैं) के साथ दुनिया निश्चित तौर से निश्चित तौर से वी आकार की आर्थिक विकास से रूबरू हो सकती है।
वर्ष 2009 के दौरान भारत और विश्व के बारे में मेरा जोखिमपूर्ण पूर्वानुमान कुछ इस तरह है: चीन और भारत की विकास दर विकास दर 7 से 8 प्रतिशत के बीच रहेगी और पश्चिमी देश सुधार के दौर में 2009 के अंत तक प्रवेश करेंगे।
(लेखक एक्सस इनवेस्टमेंट के अध्यक्ष हैं और एनडीटीवी प्रॉफिट के टॉक शो ‘टफ टॉक’ के एंकर हैं।)
