मैगी, वोल्वो, हवाई चप्पल और डेटॉल सरीखे ब्रांडों में आम आदमी से लेकर करोड़पति तक सभी लोगों के लिए एक चीज तो समान है।
इन सभी बहुराष्ट्रीय ब्रांडों का एक-एक स्थानीय नाम भी है, जो इनकी श्रेणी के उत्पादों के लिए यहीं के बाजारों से उन्हें मिला है। हालांकि यह हैरत की बात है कि अपने-अपने ब्रांडों के प्रमोशन पर करोड़ों खर्च करने वाली इनमें से किसी एक भी बहु-राष्ट्रीय कंपनी ने इस चीज का फायदा उठाने के बारे में सोचा भी नहीं है।
मैगी इन्स्टैंट नूडल्स जो अपनी 25वीं सालगिरह मना रहा है, इसका एक अच्छा उदाहरण है। मैगी इन्स्टैंट नूडल्स के लिए एक सर्वमान्य शब्द हो चुका है। सड़क के किनारे खुले ढाबों में इसके लिए आपको मैघी, मेगी और मागी सरीखे कई नाम पढ़ने को मिल जाएंगे, जिनसे कॉल सेंटरों में काम करने वालों को एक बात की चिंता तो खत्म हो जाती है कि आधी रात को जब उन्हें भूख लगेगी तो दो मिनट जितने कम वक्त में उन्हें खाने को तो कुछ न कुछ मिल ही जाएगा।
यह भी सही है कि इन ढाबों में मैगी जिस रूप में मिलती है वह असली मैगी की पैकेजिंग से काफी मिलती-जुलती है। मैगी के इस स्थानीय रूप में मसालों में कुछ देसीपन भी मिलता है, बावजूद इसके यह ‘फास्ट टु कुक ऐंड गुड टु इट’ के मैगी के स्वाद के काफी करीब भी है।
हालांकि जहां तक मेरी जानकारी है नेस्ले ने इन ढाबों पर मैगी को बेचने के लिए कोई कड़ी मेहनत तो कतई नहीं की। भारत के ज्यादातर फूड पॉइंट्स में अपने ब्रांड नाम की लोकप्रियता निश्चित रूप से नेस्ले की उपलब्धता और उसकी कीमत की रणनीति से मेल खाती है।
25 साल पहले जब इसे लॉन्च किया गया होगा, उस वक्त इन्स्टैंट नूडल्स के भारतीय बाजारों में सफल होने की संभावना ठीक उतनी थी, जितनी विंबलडन में वाइल्ड कार्ड के जरिये टूर्नामेंट में शामिल होने वालों की होती है। कई और कंपनियों ने भी इस तरह के प्रयास किए, जिनमें उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई और इस फेहरिस्त में एक नाम लिप्टन का भी है, जो यूनीलिवर ब्रांड के तहत एक अलग कंपनी हुआ करती थी।
1970 के दशक के आखिरी दौर में सिर्फ पैकेज चाय (कॉर्नफ्लैक्स के ब्रांड बिंगो और 21 नाम की चाय इनमें से एक थी) बेचने के अपने मूल कारोबार में विविधता लाने के एक प्रयास के तहत लिप्टन ने इन्स्टैंट नूडल्स पेश किया। लिप्टन का इन्स्टैंट नूडल का नाम सुपरमम था, लेकिन जिस वर्ग को लक्षित कर इसे बाजार में उतारा उसमें इसे नाकामयाबी हासिल हुई।
उपभोक्ता बाजार में जहां भोजन की आदतें परंपरा से जुड़ी रहती हैं, वहीं सुपरमम का विपणन भारतीय चावल रोटी की जगह लेने वाले उत्पाद के रूप में किया गया। 1984 में नेस्ले ने मैगी को लिप्टन से अलग रूप में पेश किया। मुख्य भारतीय भोजन में अनाज के एक रूप में इसे पेश करने की बजाए नेस्ले ने इसके लिए उपयोगिता का एक रास्ता अपनाते हुए इसे बच्चों के लिए नाश्ते के एक उत्पाद के रूप में पेश किया।
ऐसा करने के साथ नेस्ले ने औसत मध्यम वर्ग के परिवारों में गृहणियों की चिंता को हल किया और सबसे अहम उपभोक्ताओं के वर्ग में इस ब्रांड के साथ कामयाबी हासिल की। बाजार में जिस वर्ग के लिए नेस्ले ने मैगी को पेश किया वह इतना सटीक और लंबे अरसे से बना हुआ है कि नेस्ले को 25 वर्षों में भी अपने इस लक्ष्य को बदलने की जरूरत नहीं पड़ी, हालांकि उसकी बाजार हिस्सेदारी में प्रतिस्पर्धा काफी नुकसान पहुंचा रही है।
मैगी और डेटॉल सरीखे ब्रांड इतने लंबे अरसे से बाजार में मौजूद हैं कि आज वे भारतीय शब्दकोष का हिस्सा बन चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ वोल्वो भारतीय बाजार में 1990 के दशक में पेश हुई। हालांकि स्वीडन की कंपनी के इसे भारत में लग्जरी बस सेवाओं के ब्रांड के रूप में नाम कमाने में बेहद कम समय लगा, फिर भले ही बस वोल्वो हो या न हो।
जब यह बाजार में उतरी तो मैगी की ही तरह इसके और इसकी लग्जरी पेशकश को लेकर काफी सवाल मन में थे। पहले और आज भी बस सेवाओं को राज्य सरकारों से बड़ी मात्रा में सब्सिडी मिलती है और इसलिए बस से यात्रा करना काफी सस्ता हो जाता है और यही वजह है कि वोल्वो सरीखी लग्जरी बसों के लिए बाजार परिस्थितियां काफी मुश्किल हैं।
क्या वाकई लग्जरी बसों में अधिक किरायों के साथ पर्यटन करने के वालों की पर्याप्त संख्या है? वोल्वो ने भारत के लिए अलग से आंकड़े नहीं दिखाए हैं, इसलिए यह साफ नहीं हो पाया कि कंपनी बिक्री को मुनाफे में तब्दील कर पाने में सफल रही या नहीं, लेकिन जिस रफ्तार से कंपनी अपने उत्पाद परिवहन कंपनियों को बेच रही है, उससे कहा जा सकता है कि उस रफ्तार से वोल्वो भारतीय शब्दकोष में एक ब्रांड नाम बना चुका है।
बेशक स्वीडन का यह ब्रांड भारतीय बस पर्यटकों के दिमाग में कुछ खास सेवाओं के लिए ही है। शायद इसका लेना-देना इस बात से है कि इसने लग्जरी बस सेवाओं को एक नए स्तर तक बढ़ा दिया है। सच तो यह है कि वैश्विक ब्रांड नामों के इस स्थानीय सह-विकल्प का जन्म बेहद शांत तरीके से हुआ और इसे बता पाना भी मुश्किल है।
आखिर बाटा की हवाई चप्पल, जिसे पिछले साल एक ब्राजील की कंपनी को बेच दिया गया, कैसे भारतीयों द्वारा घर पर पहने जाने वाली रबर की चप्पल के लिए एक शब्द, एक ब्रांड बन गया? इसे समझने के लिए यही कहा जा सकता है कि कंपनी का कारोबार, उसका रिटेल क्षेत्र में प्रसार आदि ही इसकी अहम वजह है।
बाजार में ब्रांड का दबदबा और बाजार में सबसे पहले पहुंचने का फायदा निश्चित रूप से इसकी अहम वजहों में शामिल हो सकता है। हालांकि इन सभी कसौटियों पर कई मोबाइल फोन कंपनियां खरी उतर चुकी हैं, लेकिन कई बड़े ब्रांड नामों में से कोई एक भी मोबाइल सेवाओं के लिए स्थानीय शब्द का खिताब हासिल नहीं कर पाई है।
इसी तरह कार्बोनेटेड ड्रिंक में दिखाई देने वाली दो प्रमुख कंपनियां कोक और पेप्सी भी अपने करोड़ों की मार्केटिंग योजनाओं के साथ भारतीयों की जुबान पर कोल्ड ड्रिंक के लिए अपने ब्रांड को चढ़ा पाने में सफल नहीं रह पाई हैं। उत्तर भारत के कई बड़े बाजारों में आज भी कार्बोनेटेड ड्रिंक्स के लिए ठंडा शब्द का इस्तेमाल होता है।
और शायद कोक का ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ अभियान भी इसके मद्देनजर एक प्रयास मात्र था। अब वजह कुछ भी मानी जा रही हो, लेकिन सच है कि जिन कंपनियों के ब्रांडों को स्थानीय उत्पादों के लिए एक ब्रांड बना दिया गया है, उन्हें इससे खासा फायदा पहुंच रहा है। साथ ही यह भी सही है कि मार्केटिंग के विज्ञान का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
