भारत और अमेरिका के बीच ऐतिहासिक असैन्य परमाणु समझौते की घोषणा के 15 साल पूरे हो चुके हैं। इस बहुचर्चित करार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2005 में सहमति जताई थी। इस समझौते से जुड़ी घटनाओं ने नई सदी के पहले दशक के उत्तराद्र्ध की भारतीय राजनीति को काफी प्रभावित किया। तत्कालीन सरकार को समर्थन दे रहे वामदलों और मनमोहन सिंह के बीच करार को लेकर तीखी झड़पें हुई थीं। समझौते को अंतिम मुकाम तक पहुंचाने के लिए डॉ सिंह ने व्यक्तिगत स्तर पर पुरजोर प्रयास किए और अपने साथ-साथ कांग्रेस के भविष्य को भी दांव पर लगा दिया था।
मार्च 2008 में इस करार पर दोनों पक्षों की ओर से औपचारिक दस्तखत होने तक कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी 2.9 फीसदी थी। उसके 12 साल बाद यह हिस्सेदारी बढऩे के बजाय घटी है और महज 2.5 फीसदी रह गई है।
वास्तविक उत्पादित बिजली के संदर्भ में परिदृश्य थोड़ा बेहतर है। कुल उत्पादित बिजली में परमाणु ऊर्जा का अंश पिछले 10 वर्षों में करीब एक फीसदी बढ़ा है। विडंबना ही है कि इस अवधि में कुल उत्पादित बिजली में तापीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 3 फीसदी बढ़ गई है। ऐसा तब है जब यह माना जा रहा था कि कार्बन फुटप्रिंट घटाने की दिशा में भारत की कवायद में परमाणु ऊर्जा एक अहम घटक होगा और इससे देश को ऊर्जा सुरक्षा भी मिलेगी।
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के पास नाभिकीय ऊर्जा के लिए कोई महत्त्वाकांक्षी योजना ही नहीं है। इस साल मार्च में संसद को यह बताया गया था कि पांच नाभिकीय बिजली संयंत्रों के निर्माण का काम जारी है जिनकी कुल क्षमता 7,200 मेगावॉट है। इनके अलावा 9,000 मेगावॉट की कुल क्षमता वाले छह अन्य संयंत्रों के निर्माण को मंजूरी देने के साथ वित्तीय स्वीकृति भी दी जा चुकी है। पिछले साल अमेरिका ने आंध्र प्रदेश में छह नाभिकीय रिएक्टर बनाने की सहमति जताई थी। सरकार ने नाभिकीय औषधि में निजी क्षेत्र की भागीदारी और खाद्य उत्पादों के संरक्षण के लिए कृषि में नाभिकीय उपयोग की भी अनुमति दे दी है। भारत ने हाल ही में यूरोपीय संघ के साथ भी असैन्य परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इन सबके बावजूद यह साफ है कि असलियत अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रही है। आखिर गलती क्या हुई? पहली बात, भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से उपजी अत्यधिक अपेक्षाओं के बीच भारत ने नाभिकीय दायित्व विधेयक पारित कर दिया जिसमें नाभिकीय उपकरणों के विनिर्माताओं को किसी भी हादसे की सूरत में जवाबदेह ठहराने की बात कही गई है। इस वजह से कई नाभिकीय संयंत्र विनिर्माताओं ने भारतीय बाजार से अपने हाथ पीछे खींच लिए। लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के फेलो मनोज जोशी कहते हैं कि नाभिकीय करार के पहले भी कभी हकीकत उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। पहले यह उम्मीद की गई थी कि वर्ष 2000 तक भारत में नाभिकीय ऊर्जा क्षमता बढ़कर 10,000 मेगावॉट हो जाएगी। लेकिन जोशी कहते हैं कि इस लक्ष्य को वर्ष 2020 तक भी हासिल करना किस्मत की बात होगी। इसी तरह नाभिकीय करार के बाद जैसी आसमान छूती उम्मीदें रखी गई थीं, उनमें आगे चलकर कटौती करनी पड़ी। नाभिकीय क्षमता में विस्तार से जुड़ी समस्याएं पुरानी हैं और यह शुरू से ही कमतर प्रदर्शन से प्रभावित रहा है।
भारतीय नाभिकीय परिदृश्य पर लंबे समय से नजर रखने वाले नाभिकीय भौतिकशास्त्री एम वी रमन ने एक पुस्तक में कहा था कि इस क्षेत्र के शासकीय ढांचे का भी थोड़ा दोष रहा है। इसकी सामरिक महत्ता के निहितार्थों का यह मतलब हुआ है कि परमाणु ऊर्जा आयोग एवं परमाणु ऊर्जा विभाग जैसे संगठनों पर अपेक्षाकृत कम निगरानी रही है और उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट किया है जिससे वे कम जवाबदेह रहे हैं। नियामकीय संस्था के तौर पर गठित परमाणु ऊर्जा नियामकीय बोर्ड भी सीधे परमाणु ऊर्जा विभाग को रिपोर्ट करता है जिससे उसकी नियामकीय स्वतंत्रता बाधित होती है। एक नाभिकीय करार से हमारी ही बनाई हुई ये समस्याएं दूर नहीं होंगी। इससे एकदम परे यह बात भी सच है कि इस दशक की शुरुआत में हुए फुकूशिमा परमाणु हादसे के बाद से ही वैश्विक मनोदशा नाभिकीय ऊर्जा को लेकर प्रतिकूल होती गई है। भारत में भी स्थानीय लोगों के तीखे प्रदर्शनों के चलते तमिलनाडु के कुडनकुलम संयंत्र जैसी परियोजना पर विराम लग गया है।
लेकिन असली वजह तो शायद सामान्य अर्थशास्त्र रहा है। वास्तव में, सही मायने में काम तो नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में रहा है। पिछले दशक में कुल स्थापित क्षमता में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा नाटकीय रूप से बढ़ते हुए तिगुने से भी अधिक हो गया है। इस दौरान इसकी शुल्क दरें भी बहुत तेजी से गिरी हैं। जोशी कहते हैं, ‘परमाणु बिजली के उलट भारत ने बहुत कम निवेश में ही नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में लक्ष्य को भी पीछे छोड़ दिया है।’ हालत यह है कि आज भारत में नवीकरणीय ऊर्जा तापीय ऊर्जा की तुलना में भी बेहद प्रतिस्पद्र्धी है।
इसके उलट नाभिकीय संयंत्रों की पूंजी लागत काफी ऊंची होती है और यहां से उत्पादित बिजली भी महंगी पड़ती है। परमाणु ऊर्जा विभाग नाभिकीय बिजली की शुल्क दरें तय करता है लेकिन इसे अन्य स्रोतों से उत्पादित बिजली के शुल्कों से मुकाबला भी करना होता है। नाभिकीय ऊर्जा देश में दूसरे बिजली क्षेत्रों में हुए सुधारों से तालमेल नहीं बिठा पाई है।
क्या परमाणु ऊर्जा का भारत में अप्रासंगिक होना तय है? यह साफ है कि नाभिकीय ऊर्जा के संस्थानिक एवं नियामकीय ढांचे में सुधार किए बगैर भारत-अमेरिका परमाणु करार के वादे को पूरा नहीं किया जा सकेगा। संस्थानिक ढांचों की दशकों पुरानी मौजूदगी को देखते हुए सरकार को ऐसे सुधार करने होंगे जो इनके कामों में कटौती करें। ऐसा नहीं होने पर 10 वर्षों तक दरकिनार रही परमाणु ऊर्जा विरोधी लॉबी ही शायद आखिर में विजयी हो।
(लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं)
