हम इस समय बहुत कठिन दौर में जी रहे हैं। वित्तीय संकट ने कुछ ऐसी स्थिति ला दी है कि पिछले एक महीने में किसी अन्य मुद्दे पर सोचने के लिए वक्त ही नहीं बच रहा है।
यह ऐसा वक्त है कि पूंजीवाद को खुद से बचाने की चुनौती है। जैसा कि लार्ड कीन्स ने कहा था , ‘पूंजीवाद कुछ इस तरह से डराने-धमकाने में विश्वास करता है कि सबसे उत्पाती लोग सबसे ज्यादा उत्पात वाला काम करेंगे, जो सबके लिए अच्छाई साबित होगी।’
वास्तव में हाल में हुई घटनाओं ने दिखा दिया है कि इस तरह के बहुत ज्यादा उत्पाती लोगों को नियमों में बांधने की जरूरत है, अगर उनसे सबके लिए लाभ लेना है। हकीकत यह है कि पूरक बजट जैसी महत्त्वपूर्ण घटना के प्रति भी किसी का दिमाग नहीं गया, जिसके द्वारा सरकार को 237,286 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने का अधिकार मिल गया।
यह रकम सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत के बराबर है, लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पूरक मांगों से कुल बजट अनुमान में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई। क्या यह हंसी- मजाक करने जैसा छोटा मामला है? इन पूरक मांगों का शायद ही कोई विस्तृत विश्लेषण हुआ हो कि इसका वृहद अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
तमाम चीजों की तरह इसकी भी केवल उम्मीद की जा सकती है। ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है, जो दुनिया में आए वित्तीय संकट से सरोकार रखते हैं, कि इसकी गति बहुत ही डरावनी और निर्दयी है। वित्तीय बाजारों में चिंतनीय अनिश्चितता है। बाजार में विश्वास वापस लाने की सभी कोशिशें की जा रही हैं।
जैसा कि अमेरिका के बारे में पॉल क्रूगमैन ने कहा कि निश्चित रूप से यह समय बजट घाटे के बारे में सोचकर चिंतित होने का नहीं है। बहरहाल समस्या इससे जुदा है। अगर वास्तव में यह अतिरिक्त खर्च विभिन्न आधारभूत ढांचे की परियोजनाओं, राष्ट्रीय राजमार्गों, बंदरगाह और बिजली के क्षेत्रों में लगाई जाएं तो इसे उचित ठहराया जा सकता है। बहरहाल अगर इसे वित्तीय स्थिति को खराब करने वाले के रूप में देखा जाए, जो इससे संकट और बढ़ेगा।
पूरक मागों में शामिल किए गए विभिन्न खर्चों का गहन विश्लेषण करने से पता चलता है कि इसे किसी तरह से भी ऐसा नहीं माना जा सकता है कि वित्तीय संकट के समाधान के लिए कदम उठाया गया है। निश्चित रूप से कोई भी अतिरिक्त खर्च बढ़ाने से अर्थव्यवस्था में चल रही मंदी को दूर करने के लिए सकारात्मक प्रभाव डालेगा।
लेकिन ये खर्चे पहले ही बजट में रखे जा चुके हैं, इसलिए कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो इतने धन की पूरक मांगें अपेक्षित थी। बजट में की गई घोषणाओं को देखें तो खर्चों को देखते हुए इस तरह की पूरक मांगों की जरूरत थी।
बजट पर लिखते समय भी मैने कहा था कि इस बजट में जितना कुछ कहा गया है उससे भी ज्यादा इस बजट में उतनी ही सावधानी से छिपाया गया है। इस तरह से निश्चित रूप से इन अतिरिक्त खर्चों में वित्तीय संकट पर कहीं से भी निशाना नहीं साधा गया है, जिसके चलते इसे संसद में पेश किए जाने की जरूरत हो।
अतिरिक्त खर्चों की कुल धनराशि 237,286 करोड़ रुपये है, जिसमें से नकदी में से 105,613 करोड़ रुपये का जुगाड़ किया जाएगा जो सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत आता है और शेष 131,672 करोड़ रुपये या सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत का जुगाड़ अतिरिक्त प्राप्तियों और वसूलियों या मंत्रालयों और विभागों की बचत के माध्यम से पूरा किया जाएगा।
नकद दी जाने वाली धनराशि में 38,863 करोड़ रुपये की फर्टिलाइजर सब्सिडी, 22,700 करोड़ रुपये नए वेतन आयोग के लागू होने से आने वाले खर्च, 5064 करोड़ रुपये खाद्यान्न और तेल पर दी गई सब्सिडी, 10,500 करोड़ रुपये राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पर दिए गए अतिरिक्त खर्च के हिस्से जाएगा।
अगर इन सभी खर्चों को जोड़ दें तो इसका हिस्सा 92,000 करोड़ रुपये आता है, जो सकल घरेलू उत्पाद का 1.75 प्रतिशत है। वास्तव में, बेहतर यही होता कि इसे पहले साल के बजट खर्च में शामिल किया जाता और कुछ अंश गैर योजना व्यय में रखा जाता।
दिलचस्प है कि ये अतिरिक्त खर्चे अन्य मंत्रालयों और विभागों के बचत के माध्यम से पूरे किए जाएंगे। यह असंतुलित प्राप्ति है, जिसे बचत तो कहीं से नहीं कहा जा सकता। इसमें महत्त्वपूर्ण हिस्सा गैर बजट देनदारियों का है। इनमें से तीन बड़े खर्चे हैं, जो बॉन्ड जारी करने से पैदा हुए हैं।
फर्टिलाइजर कंपनियों के लिए 14,000 करोड़ रुपये, तेल कंपनियों के लिए 65,942 करोड़ रुपये और किसानों की कर्ज माफी के लिए जारी कर्ज राहत कोष के लिए 25,000 करोड़ रुपये के बॉन्ड जारी किए गए। इन सभी को अगर मिला दें तो कुल खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत आता है।
अनुदानों के लिए पेश की गई पूरक मांगों में घाटे का कुछ हिस्सा खुले तौर पर आया और अन्य खर्चों को गैर बजट देनदारियों के रूप में दिखाया गया। वास्तव में अतिरिक्त नकदी खर्चों को घाटे में जोड़ा जाएगा । बजट में कहा गया था कि अर्थव्यवस्था में उछाल के चलते अतिरिक्त खर्च को पूरा कर लिया जाएगा।
लेकिन अब राजस्व के बढ़ने की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि मंदी का दौर चल रहा है। लेकिन 3जी स्पेक्ट्रम की बोली प्रक्रिया से 40,000 करोड़ रुपये आएंगे। आगे यह भी संदेह जताया जा रहा है कि वेतन पुनरीक्षण और एरियर पूरे अनुमान को बढ़ा सकते हैं।
अब ऐसे में तेल कीमतों का शुक्रिया अदा दिया जा सकता है, कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरावट आ रही है। इससे तेल कंपनियों का घाटा कम होगा और इससे फर्टिलाइजर सब्सिडी का भार और नहीं बढ़ेगा। बहरहाल चुनाव भी होने को हैं, जिसके चलते मांग में और ज्यादा बढ़ोतरी होगी।
पूरक मांगों सहित खर्च से घाटे में बढ़ोतरी होगी। सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत जो राजस्व खाते से नकद दिया जा रहा है, इससे सीधे तौर पर राजस्व और वित्तीय घाटा समान प्रभाव से बढ़ेगा। इसके अलावा सकल घरेलू उत्पाद का शेष 2.5 प्रतिशत गैर बजटीय देनदारियों में जुड़ेगा।
इस तरह बगैर फंड और गैर बजटीय देनदारियों का करीब 4.5 प्रतिशत पूरक अनुदान मागों के माध्यम से लाया गया है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अनुमान लगाया है कि तेल की कीमतें 120 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल होने से ये देनदारियां बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद की 5 प्रतिशत हो जाएगी। इन अतिरिक्त मांगों के साथ जैसे जैसे साल बीतेगा, इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लोक खर्च पर व्यय के रूप में सरकार पर देनदारियां और बढ़ेंगी।
वास्तव में इस समय घाटा के बारे में चिंता करने का वक्त नहीं है। हाल ही में टाइम्स आफ इंडिया (अक्टूबर 27) में लिखे गए अपने एक कालम में एन. के. सिंह ने लिखा था कि इस समय की मांग है कि तमाम आधारभूत ढांचे की परियोजनाओं को कड़ाई से शुरू किया जाए और इसके लिए अतिरिक्त फंड मुहैया कराया जाए, जिससे नेशनल हाइवे डेवलपमेंट, पॉवर प्रोजेक्ट्स, बंदरगाह और हवाईअड्डे जैसी परियोजनाओं पर तेजी से काम हो सके। इस तरह के सार्वजनिक व्यय से निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा और हम तेजी से घाटे को पूरा कर लेंगे।
इस कठिन दौर में सरकार को नए और प्रभावकारी कदम उठाने की जरूरत है। सरकार से उम्मीद रखने वाले यह कह सकते हैं कि वह हर संभव कोशिश करेगी। लेकिन एक ऐसी अर्थव्यवस्था, जिसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना है, हम इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपना खर्च बढ़ा सकते हैं।
इससे उत्पादकता भी बढ़ेगी और इस क्षेत्र में रोजगार की भी अपार संभावनाएं हैं। हो सकता है कि वित्त के जानकार कुछ अन्य रास्ते भी खोजें, जिससे मंदी से उपजे घाटे की भरपाई तेजी से हो सके।
(लेखक एनआईपीएफपी के निदेशक हैं। यह उनके निजी विचार हैं)