ज्यादातर हिंदुस्तानी यही सोचते हैं कि भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) कामयाबी का दूसरा नाम है।
वजहें हैं, उनसे पढ़कर निकलने वाले छात्रों को ऑफर किए जाने वाला मोटा वेतन, आईआईएम की एक-एक सीट के लिए लोगों के बीच होने वाली मारामारी और ‘ब्रांड आईआईएम’ को दुनिया भर में मिलने वाली इज्जत।
हालांकि, इस भ्रम को तोड़ा है मारुति सुजुकी के अध्यक्ष और पूर्व नौकरशाह आर.सी. भार्गव की अध्यक्षता में गठित हुई आईआईएम रिव्यू कमेटी ने। उन्होंने इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी सही तर्क सामने रखे हैं। उन्होंने आईआईएम एक सम्मानित संस्थान के तौर पर तो माना है, लेकिन उनका यह भी कहना है कि इस संस्थान को अभी लंबा रास्ता तय करना है।
कमेटी ने सही ही कहा है कि आईआईएम आज भी दुनिया भर के सबसे अच्छे बी-स्कूलों की लिस्ट में शामिल नहीं हो पाए हैं। रुपये में उनके छात्रों को ऑफर होने वाली तनख्वाह भले ही काफी ज्यादा लगे, लेकिन वह असल में अंतरराष्ट्रीय स्तर के बराबर भी नहीं है।
उनके शिक्षकों के इक्का-दुक्का लेखों को ही दुनिया भर के सम्मानित मैनेजमेंट जर्नलों में जगह मिल पाई है। हिंदुस्तानी कंपनियों में काम करने वाले कुछेक बड़े मैनेजर ही रिफ्रेशर प्रोग्राम्स के लिए वापस आईआईएम की राह पकड़ते हैं।
खामियों की लिस्ट यहीं नहीं खत्म होती। आप इसे भी एक खामी ही कहेंगे कि इतनी इज्जत मिलने के बाद भी ये संस्थान कुछेक ही मैनेजमेंट गुरु दे पाए हैं। इक्का-दुक्का बड़ी देसी कंपनियां ही आईआईएम के प्रोफेसरों से मदद मांगती हैं।
इतनी बड़ी दिक्कतों को ध्यान में रखकर ही कमेटी ने इसका सामना करने के लिए इतने ही बड़े सुधारों की सिफारिश की है। सबसे पहले तो उसने संस्थागत स्वायत्तता की सिफारिश की है। इसके लिए उसने सभी आईआईएम के लिए एक 15 सदस्यीय बोर्ड गठित करने का सुझाव दिया है, जिसमें से केवल पांच सदस्यों को ही सरकार नियुक्त कर सकती है।
इस बोर्ड का काम होगा, सभी आईआईएम के लिए रणनीतियां बनाना। साथ ही, कमेटी ने आईआईएम के बोर्डों में मौजूदा सदस्यों की तादाद को भी कम करने के लिए भी कहा है, ताकि उनका प्रबंधन अच्छी तरह से किया जा सके। इन पैनलों में स्वतंत्र पेशवरों के बहुमत का भी उसने सुझाव दिया है।
उसकी सिफारिश है कि हर बोर्ड के पास फीस में इजाफा करने और टीचरों को लुभाने के लिए वेतन के स्तर को बढ़ाने का अधिकार हो। इसके अलावा इस कमेटी ने और भी सुझाव दिए हैं। कमेटी ने बिल्कुल सच कहा है कि हालांकि, आज भी बोर्ड ही आईआईएम के निदेशक को चुनती है, लेकिन असल में उसका नाम एक सरकारी कमेटी सुझाती है।
ऊपर से, उसके नाम पर आखिरी फैसला कैबिनेट की नियुक्ति संबंधी कमेटी ही करती है। इस कारण से बोर्ड असल में बस एक रबर स्टॉम्प भर बनकर रह जाती है। इसी तरह आईआईएम पैसों का इस्तेमाल कैसे करेगी, इसका फैसला भी सरकार ही करती है। इसलिए रकम उगाहने के मामले में भी आज आईआईएम कुछ खास नहीं कर सकते।
ये सारी बातें सही हैं। इनके तुरंत हल की भी जरूरत है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन सुझावों को आसानी से मान लिया जाएगा। असल में, जो पैसे देता है, उनकी बातों को अनसुना करना इतना आसान भी नहीं है।